Friday, April 30, 2010

सपना जो आज भी अधूरा है........

एक सपना.... जो ब्रिटिश काल में देखा गया। लेकिन आज भी अधूरा है.... इस सपने पर कब पंख लगेंगे....... कोई नहीं कह सकता....,ऐसा नहीं है कि ये सपना महज सपना रहा हो...इसे हकीकत में बदलने का प्रयास भी किया गया....अफसोस कि वो अधूरा रहा...लेकिन कई दशक गुजरने के बाद भी इस ओर किसी ने नजरें इनायत नहीं की.... ये सपना कोई और नहीं बल्कि लीची और बसमती के शहर को पहाड़ों की रानी से जोड़ने का था। जी हां आपने सही समझा। आज से कई दशक पहले अंग्रेजों ने ये सपना पाला था। मसूरी की खूबसूरती और देहरादून की धड़कन को रेल मार्ग से जोड़ना। अंग्रेजों ने इसकी पहल भी की। बकायदा 1942 में देहरादून के राजपुर गांव से रेल लाईन बिछाने का काम भी शुरू किया गया। यहां तक कि पहाडों के जिस्म को छेद कर पटरियां बिछाने का काम भी हुआ। लेकिन कमजोर पहाडियों ने साथ नहीं दिया। एक के बाद एक दिक्कतों ने अंग्रेजों के सपने को छलनी किया। लिहाजा मजबूरन गोरों को अपने हाथ वापस खींचने पडे़। इस बात की गवाही देता ये बोर्ड भी उसी जमाने का है। भले ही इस बोर्ड की हालत आज स्थिति को बयां करने की न हो, लेकिन इसमें छपे ये अधूरे शब्द कुछ जरूर बयां कर रहे हैं। अंग्रेजों के हाथों लगाया ये बोर्ड आज भी उस दिन के इंतजार में है जब यहां से रेल गुजरेगी। शायद वो दिन आये न आये लेकिन यहां के लोग भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि जो काम अंग्रेजों ने नहीं कर सका उसे आजाद मुल्क के हिन्दुस्तानी जरूर कर सकते हैं।आशा की किरण एक दिन जरूर आयेगी लेकिन सवाल ये भी कब? अंग्रेजों ने जिस सपने को देखा क्या वो पूरा होगा? इसकी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन अगर शिमला और दर्जिलिंग में लोग ट्रेन की सवारी का आंनद ले सकते हैं तो फिर मसूरी में क्यों नहीं। ये सवाल भी जेहन में कौंधता है। इतना तो तय है कि जिस तरह से भारतीय रेल मंत्रालय पहाडों में रेल पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई दे रहा है उससे तो मसूरी में ट्रेन पहुचने का सपना नजदीक लगता है। स्थानीय लोगों की माने तो अगर राज्य सरकार इस ओर कोई पहल करे तो मसूरी में भी ट्रेन पहुचाई जा सकती है। वहीं स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर अंग्रेजों के दौर में रेल लाईन बिछाते समय हादसा न होता तो मसूरी की सैर ट्रेन से होती। भले ही अंग्रेजों के जाने से आज देश आजाद हो गया हो लेकिन यहां के लोगों को अंग्रेजों के जान मलाल जरूर है। ये इन लोगों का कहना है अगर देहरादून से मसूरी ट्रेन जायेगी तो उन लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। भले ही ये बोर्ड आज बदसूरत लग रहा हो लेकिन बोर्ड पर लगे शब्द आज भी उस जमाने की हकीकत को तरोताजा कर देता है। जब कभी यहां पर चुंगी वसूली जाती थी। इस बात की गवाई बोर्ड पर अंग्रजी और हिन्दी में छपी अधूरी रेट लिस्ट देती है। बोर्ड के नजदीक से गुजरती रेल लाईन को आज ऐसे विश्वकर्मा की जरूरत है जो इस सपने को हकीकत में बदल सके। अंग्रेजों के जमाने में देखा गया सपना कब पूरा होगा ये समय की कोख में छुपा है। लेकिन जिस तरह से भारतीय रेल मंत्रायल ने पहाडों में रेल पहुंचाने को लेकर सकारात्मक रूख अपनाया है।

Sunday, April 25, 2010

औद्योगिक पैकेज पर पंतगबाजी क्यों?


सूबे में आजकल औद्योगिक पैकेज की चर्चा चल रही है। यहां तक कि सुदूर पहाड में भी औद्योगिक पैकेज की चर्चा उतनी ही जबरदस्त हो रही है जितनी की राजधानी में। हालांकि सरकार और विपक्ष के नेताओं ने सूबे को औद्योगिक पैकेज दिलाने के लिए दिल्ली दरबार से फरियाद की, और केंद्र की सल्तनत ने इशारों में औद्योगिक पैकेज बढाने की हामी भी भरी। ऐसा हम नहीं बल्कि वो लोग दावे के साथ कह रहे हैं जिन्होंने 10 जनपथ और प्रधानमंत्री से मुलाकात की। वहीं संसद में पौड़ी सांसद सतपाल महराज के प्रश्न ने अब औद्योगिक पैकेज पर एक नई बहस छेड़ दी है। इसका निष्कर्स क्या होगा ये आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन आपको बता दें कि साल 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस शिशु प्रदेश को 2013 तक औद्योगिक पैकेज दिया था लेकिन सत्ता में आते ही यूपीए सरकार ने इस औद्योगिक पैकेज की अवधि 2013 से घटाकर 2010 कर दी। जिससे सूबे में खलबली मचनी शुरू होगी। सदन से लेकर सड़क तक बीजेपी सरकार ने ओद्योगिक पैकेज को लेकर हल्ला बोलना शुरू किया यहां तक कि इस मुद्दे पर लोकसभा चुनाव भी लड़ा गया जिसमें बीजेपी चारों खाने चित हो गई। लेकिन अब समय बदल चुका है, और ओद्योगिक पैकेज बीजेपी सरकार के लिए वरदान साबित हो रहा है। वो इसलिए अगर केंद्र सरकार पैकेज की अवधि बढ़ाती है तो ये बीजेपी के लिए संजीवनी का काम करेगी और औद्योगिक पैकेज नहीं दिया जाता है तो बीजेपी के लिए 2012 के लिए चुनावी मुद्दा बन जायेगा। ये सब बात अब तक राजनीति के इर्द-गिर्द घूम रही थी। लेकिन असल बात तो आम आदमी तक इस पैकेज के लाभ की है। औद्योगिक पैकेज का मकसद था कि सूबे में उद्योग लगे और उसका सीधा फायदा आम जनता को मिले। यहां तक कि पर्वतीय क्षेत्रों में भी उद्योगोें को बढ़ावा मिले। लेकिन औद्योगिक पैकेज पर हाय-तौबा मचाने वाली बीजेपी सरकार अब तक उद्योगों को बढ़ावा देने में सबसे सुस्त रही। पहाडों में उद्योग की पैरवी करने वाली ये सरकार आज तक पहाड में एक भी उद्योग नहीं लगा पायी। इस बात की पुष्टी खुद विभाग द्वारा प्रकाशित कार्यपूर्ति पुस्तिका में होती है। अगर इस किताब पर नजर दौडाये तो काले अक्षरों में साफ लिखा है कि पिछले वित्तीय वर्ष में विशेष एकीकृत औद्योगिक प्रोत्साहन नीति के तहत स्वीकृत 250 लाख रूपये में से सिर्फ 91.50 लाख रूपये ही आवंटित हुए हैं और उसमें से भी मात्र 39.51 लाख रूपये खर्च किए गये। यही नहीं पर्वतीय श्रेणी में आने वाले 11 जनपद में से 5 जिलों में एक भी पैसा नहीं खर्च किया गया और न ही इन जिलों में उद्योग लगाये गये। अगर इन जिलों पर एक नजर दौड़ाये तो स्थिति भयावाह नजर आती है। नैनीताल जिले की करें तो 5 लाख रूपये की धनराशि बकायदा इस जिले को दी गई थी लेकिन अगर इस राशि को खर्च करने की बात करें तो अभी तक ये राशि जस की तस पडी हुई है। ऐसे ही हालात टिहरी के भी हैं, इस जिले को भी उद्योग लगवाने के लिए बकायदा ढाई (2.50) लाख रूपये दिये लेकिन मामला सिफर रहा। चमोली और रूद्रप्रयाग भी आंवटित की गई रकम को खर्च नहीं कर पाये। जबकि इन दोनेां जिलों को भी ढाई-ढाई लाख की रकम दी गई थी। यही नहीं अगर बात देहरादून जनपद की करें तो ये जिला भी आवंटित की गई राशि को खर्च करने से डरा हुआ है। जबकि इस जिले को 05.50 लाख आवंटित किए गये थे। वहीं अगर बात अल्मोडा की करें तो आवंटित की गई 14 लाख की धनराशि में से महज 30 हजार ही खर्च हो पाये। बागेश्वर जिले में भी 10 लाख मंे से 81 हजार ही खर्च हो पाये। पौड़ी जिले में 04.57 लाख ही खर्च हो पाये जबकि पौड़ी को 07.50 लाख रूपये दिये गये थे। यही हाल उत्तरकाशी के भी है जहां 06.50 लाख रूपये आवंटित हो रखे थे लेकिन इसमें से महज 04.93 लाख ही खर्च हो पाये। हालांकि पिथौरागढ़ और चंपावत जिले ही आवंटित की गई धनराशि को खर्चने का साहस दिखा पाये लेकिन फिर भी पिथौरागढ़ जिला 25.50 लाख में से 20 लाख ही खर्च पाया जबकि चंपावत जिले ने 10 लाख में से 08.90 लाख खर्च किये। तो ये हकीकत है सूबे की। सवाल उठता है कि आखिर क्यों औद्योगिक पैकेज पर मारामरी मची हुई है। जबकि सूबे के हालात कुछ और ही बयंा कर रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रोकने के लिए बकायदा पहाड़ में उद्योग लगाने के जो सपने पाले गये थे अगर आंकडों पर विश्वास करें तो शायद पहाडों में उद्योग लगाने के सपने महज सपने ही रह जायेगे। लेकिन सवाल ये भी उठता है कि अगर पहाडों में उद्योग लगने ही नहीं है तो फिर ये औद्योगिक पैकेज पर हल्ला क्यों मचा है। इसे सियासी स्टंट कहें या फिर सरकार का बावरापन या फिर कुछ और। लेकिन जो भी हो औद्योगिक पैकेज पर पतंगबाजी करने वालों को इस बात की जानकारी जरूर होनी चाहिए कि पहाड़ में पतंगबाजी का शौक नहीं पाला जाता है। वहां काम को महत्व दिया जाता है।