Saturday, June 5, 2010

न रही गाढ़ और न रहे घराट







‘घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है। सावन की बरसात और नदी किनारे कुछ दूरियां पर कई छप्परनुमा झोपड़ी। जहां से एक अलग ही किस्म की ध्वनि की गूंज सुनाई देती है। जिसमें गाड़ की तेज गर्जना होती है तो पिसते गेहूं की महक ओढ़े केसरी संगीत। दिल में इस कदर घुल जाता है जैस कि पानी में मिश्री। पनाल से गिरने वाले पानी का भेन से संघर्ष तो दो भारी पत्थरों के बीच की गुत्थमगुत्था। तो आनाज के दानों की आटा बनने जिद। भेन से संघर्ष कर पानी किसी चक्रवर्ती सम्राट जैसा निकलता है मानों घराट को चलाकर कर उसने विजय पताका फहरा दी हो। लेकिन कुछ ही दूरी पर उसे जलक्रिड़ा करते बच्चों के नन्हें हाथों से हार का सामना करना पडता है। पत्थरों की टेड़ी-मेड़ी दीवार और उसमें ठूंसी जंगली घास विजयी सम्राट को रूकने को मजबूर कर देती है। धराशायी जलावेग जब तालाब बन जाता है तो जलक्रीड़ा करते बच्चों की उत्सुकता देखी जा सकती है।जो नहाने की बात करते सुनाई देते हैं। कोई दो बार नहाने की बात कहता है को छः बार। नहाने का ये उत्सव घराटों की कुछ दूरी पर कुछ समय पहले खूब देखने को मिलता था। लेकिन आज न गाड़ है और न घराट। पहाडों़ में घराट का अस्तित्व 17वीं सदी के पूर्वद्ध में बताया जाता है। तब से लेकर 19वीं सदी के अन्तिम दशक तक घराट ने न जाने कितने लोगों का पेट पाला लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब घराटों की जगह बिजली से चलने वाली चक्कियों ने ले ली। भाग दौड़ भरी जिंदगी ने घराट को छोड़ दिया है। प्रकृति और मानव के बीच सेतु का काम करने वाले घराट का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। जिससे तकरीबन 200 साल से चले आ रहे एक रिश्त का बजूद मिट गया। जब पहाड़ में घराट ही नहीं रहे तो फिर न अब भग्वाल दिखाई देते हैं और न घट्वालों की हंसी ठिठोली सुनाई देती है। सावन की रातें अब पहाड़ में उदास होकर गुजर जाती है। बरसात होती है, पर गाडों में पानी का शोर नहीं होता। अब पहाड में वो रौनक नहीं रही जो कभी हुआ करती थी। पहाडों में हालात इतने दयनीय है कि कई गांवों ने अपने जवान बेटों को सालों से नहीं देखा। नन्हें पगों की आहट के लिए मानों गांव तरस गये हैं। लेकिन गंावों का रूंदन से किसी का दिल नहीं पसीज पाया। आज पहाड का हर आदमी अपनी सहूलियतों को देखते हुए पलयान कर रहा है। जिसकी वजह से गांवों के गांव खाली हो रहे हैं। जिसका असर उन घराटों पर भी सीधे रूप से पड़ा जो कभी पहाड़ की आर्थिकी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। विकास की जिद और पलायन की मार ने पहाड के हालतों को बेरूखा कर दिया है। कभी पहाडों में घराट और उसके आसपास की हरियाली का नजारा मन को सुकून देता था लेकिन अब ये किसी सूल से कम नहीं । दर्द इस बात का कि जिस ‘घराट’ ने 19 वीं सदी के अन्तिम दशक तक लोगों को पालने में अहम भूमिका निभाई वो ‘घराट’ आज ढूंडे नहीं मिलता और उसका आटा तो अब अतीत की कहानी हो गया। उत्तराखंड बनने के बाद हालत ने जिस तरह करवट बदली उससे जल,जंगल और जमीन से आम आदमी का रिश्ता छूटता गया। जब इन तीन ज से लोगों का लगाव खत्म होने लगा तो खुद-ब-खुद घराट भी हाशिये पर चलता गया। नौबत यहां तक आन पडी है कि आज की नौजवान पीड़ियों को घराट के बारे में पता तक नहीं है। इंटरनेट की गैलरियों में झांकने के बाद भी घराट के बारे में बहुत ज्यादा कुछ जानकारी नहीं है। लिहाजा आज घराट महज लोक कथाओं और किवदंतियों में सिमट कर रह गये हैं। प्रदेश में घराट को बचाने के लिए सरकार द्वारा योजनाएं बनाये जाने की बाते तो सुनी गई। लेकिन इतने साल गुजर जाने के बाद भी अब ये बातें अफवाह लगने लगती है। अगर सच में सरकार इस ओर कोई ठोस पहल करती है तो शायद पहाड में एक बार फिर से जरूर रौनक लौट आयेगी। सावन की सूनी रातों में घराट के चलने की आवाजे सुनाई देगी। यहां तक कि एक बार फिर से घराट के नजदीक नहाने का उत्सव लौट आयेगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले जंगलों को बचाना होगा। ताकि घराट को चलाने के लिए गाडों में प्रचुर मात्रा मंे पानी उपलब्ध हो सके। इस पारस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए सभी लोगों को आगे आने की एक अदद जरूरत महशूस की जा रही है।