Sunday, October 27, 2013

मनमानी

.... , क्या लिखूं, क्या बोलूं, कुछ समझ में नहीं आता, मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं, नहीं मालूम, सच्ची नहीं मालूम, लेकिन लिखने का मन करता है, लिखने से ज्यादा बोलने का मन करता है, मन में बेवजह एक अंतहीन द्वंद हर वक्त छिड़ा रहता है।, क्या है ये द्वंद और क्यों हैं। सवाल उठते हैं लेकिन उससे पहले ही खत्म भी हो जाते हैं, लाख बार कोशिश करता हूं कि यह मन की मनमानी खत्म हो लेकिन हर कोशिश के बाद दोगुनी हो जाती है। खामोश हो जाता हूं, तो फिर खामोशी मुझे डरा देती है, चुप क्यों हो, सवाल हजार होते हैं, सोचूं तो दर्द सर में उठता है, फिर भी पार नहीं पाता हूं आपने आप से, अपने मन के द्वंद से, मन मस्तिष्क स्थिर रहे कोशिश करता हूं। अपने आप का मनोबल बढ़ाता हूं, लेकिन मनोबल टूटता नहीं, कहीं-कहीं और कभी-कभी कमजोर पड़ता है, पता नहीं क्यों ऐसा होता है, ये बिखराव क्या है, आखिर क्यों अटक जाता है मन मेरा?  कोई कारण नहीं, फिर निवारण क्या? काश कोई समझता मेरे मन को भी और मन के मामले को भी।  

Saturday, September 7, 2013

चंद्रापुरीः त्रासदी के बाद की जिंदगी

प्रदीप थलवाल, पत्रकार 

चंद्रापुरी रुद्रप्रयाग 
आंखों देखी --------

रूद्रप्रयाग से 26 किलोमीटर दूर बसा चंद्रापुरी गांव, कभी चार धाम यात्रियों का आकर्षण का केंद्र हुआ करता था।  लेकिन 16-17 जून को केदारघाटी में आई भीषण आपदा ने चंद्रापुरी को भारी जख्म पहुंचाये। नतीजतन आज चंद्रापुरी खामोश आकर्षण का केंद्र बनकर रह गई।
आपदाग्रस्त इलाका (रुद्रप्रयाग ) 
चंद्रापुरी के बगल से मंदाकनी नदी बहती है। यही नदी चंद्रापुरी को सरसब्ज करती रही, लेकिन इस साल मंदाकिनी के रौद्र रूप ने सब कुछ रौंद डाला। चंद्रापुरी वासियों ने कभी कल्पना भी नहीं की कि मंदाकनी का यह रूप भी देखेंगे। गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं कि ऐसी भीशण तबाही हमने अपने जिंदगी में कभी नहीं देखी, यहां तक कि हमारे बाप, दादा और परदादा ने भी मंदाकिनी को गुस्से में नहीं देखा। लेकिन इस बार मंदाकनी का कभी न दिखने वाला रूप देखने को मिला। चेहरे पर लंबी सफेद कुछ-कुछ पीली पड़ चुकी दाड़ी वाले बाबा दूर से ही चिल्लाते हैं कि सब कुछ चैपट हो चुका है। आपदा ने कहीं का नहीं छोड़ा, खाने के लिए कुछ नहीं और रहने और पहनने की बात ही छोड़ दीजिये। बाबा की आवाज पहले कड़क लेकिन अपनी पीड़ा बताते-बताते पस्त पड़ने लगी। उनकी आंखों में भय साफ झलक रहा था। यह भय आपदा के दिये जख्मों का भी था और भविष्य को लेकर भी।
स्थानीय बुजुर्ग 

चंद्रापुरी : टेंटों में रहते लोग 
चंद्रापुरी पहुंचने में पूरा एक दिन का समय लगा, गंगानगर से पैदल सफर और ‘रेड़ी’ की दम निकाल देने वाली चढ़ाई। तेज धूप और खड़ी चढ़ाई अहसास करवाती है कि पहाड़ को समझना आसान नहीं है, इसे समझने के लिए पहाड़ जैसा हौसला चाहिए। ‘रेडी’ की खड़ी चढ़ाई के बाद दूसरी ओर तीव्र ढाल, पैर फिसले तो सीधे गदेरे में समाने का खतरा। ढाल खत्म होते ही सामने हाट गांव। हाट गांव भी मंदाकनी नदी के एक छोर पर बसा हुआ है। गांव के लोग बताते हैं कि वो भी विपदा के मारे हैं। उनकी कई एकड़ कृषि भूमि मंदाकनी बहा ले गयी। सारे रास्ते और बाटे-घाटे नदी में समा गये। आने-जाने की विकट समस्या। जिंदगी जैसे ठहर चुकी है। हाट गांव जैसे हालात और तकलीफ अड़ोस-पड़ोस के गांव भी भोग रहे हैं। लाचार और बदहवास जिंदगी, उम्मीदों के उत्सवों की जगह भय का भंवर हर रोज जिंदगी को निगलता हुआ। हाट से आगे एक और चढ़ाई, फिर आता है कुंड गंाव। गांव पहुंचने से पहले तप्पड़ (समतल जमीन) पर नजर आते तंबू। इन तम्बूओं में दो-दो परिवार एक साथ। बच्चे, महिलाएं और उनके पुरूष। न रोजगार और न खाने-खिलाने के संसाधन, बस खाली हाथ। शाम का समय, धूमिल होती सूरज की किरणे और पहाड़ों को ढ़कता अंधेरा तेजी से बढ़ता हुआ। एक अजीब सा वातावरण, घर लौटते लोग। कुछ बुदबुदाते हुए कुछ फीकी मुस्कान लिये पगडंडियां चढ़ते हुए। चेहरों पर झलकता त्रासदी का सच तो अच्छे कल की उम्मीद भरी लकीरें भी।
प्रेम सिंह पंवार, कुंड गाँव 
मृतक राजेंद्र की मां कमला देवी 
मृतक राजेंद की पत्नी माहेश्वरी, माँ और बच्चे 
मृतक राजेंद्र के पिता गोपल सिंह बिष्ट 
कंुड गांव के ठीक नीचे ‘अखुरू नौली’ गांव जो मंदाकनी में समा रहा है। गांव का एक हिस्सा जिसमें कई मकान, एक प्राथमिक विद्यालय, कृषि भूमि जिन पर आजकल कोदा-झंगोर और साटी की फसलें लहलहा रही है सारा का सारा मंदाकिनी ओर सरक रहा है। अखुरू के लोग अपने मकान छोड़ तम्बुओं में दिन काट रहे हैं, गांव के लोग परेशान हैं ‘‘कहते हैं कि इधर न कोई खाने का और न रहने का साधन है। बस मजबूरी है इन पहाड़ों में रहने की, इन्हें छोड़कर जा भी कहां सकते हैं साहब’’। इसी गांव का एक बेटा राजेंद्र सिंह प्रलय के दिन से गायब है। दो बच्चों का बाप राजेंद्र केदारनाथ में खच्चर चलाया करता था। लेकिन इस बार जलप्रयल ने उसे हमेशा के लिए एक किवदंती का हिस्सा बना दिया। ऐसी किवदंती जिसे समाज न नकार पा रहा है और ना स्वीकार। राजेंद्र की मां कमला देवी बेटे के लापता होने की खबर से गुमसुम हैं। हर वक्त बेटे की फोटे सीने से लगाकर आंखों से आंसू बहाती है। इकलौते बेटे के इस दुनियां में न रहने से पिता गोपल सिंह बिष्ट अपने भाग्य को कोसते हुए कहते हैं कि केदारनाथ ने उन्हें तो बचा दिया लेकिन बेटा, दामाद और नाती से महरूम कर दिया। अपनी आपबीती सुनाते हुए बिष्ट फफक पड़ते हैं। 28 वर्षीय राजेंद की पत्नी माहेश्वरी बदहवास जिंदगी जीने को मजबूर है। अपने बच्चों की ओर नजरें करके वह कहती है कि उसका भविष्य यही है उनकी परवरिश ही उसका मकसद है। गांव के लोग भी इस त्रासदी से आहत हैं।
रात का अंधेरा पहाड़ों को लीलता हुआ, समूचे पहाड़ सुनसान, चारों ओर मुर्दनी छाई हुई। बिजली का कहीं कोई अता-पता नहीं। आपदा के दो महीने बाद भी बिजली का ना आना सरकार की विफलता को इंगित करता है। कुंड गांव के प्रेम सिंह पंवार कहते हैं ‘‘ये है ऊर्जा प्रदेश का सच, यहां बांध तो बनते हैं, लेकिन बिजली शहरों के लिए पैदा की जाती है, पहाड़ के गांव के गांव डुबो दिये जाते हैं, लेकिन बिजली नहीं मिलती, और ना ही कोई आर्थिक लाभ, सिर्फ विपदा ही नसीब में रह जाती है। मंदाकनी की तबाही के बारे में पंवार बताते हैं कि मंदाकिनी का रास्ता बदला और यहां बाढ़ जैसे हालात के लिए सिर्फ और सिर्फ बांध जिम्मेदार है। जिसके मलबे ने लोगों के खेत-खलियान से लेकर घर तक ध्वस्त कर दिये। वह कहते हैं कि जब से बांध बनाये गये तभी से प्रदेश में आपदा बरप रही है। खैर ऊर्जा प्रदेश में रात भर बिजली का इंतजार किया लेकिन बिजली के दर्शन नसीब नहीं हुए।
चंद्रापुरी : सब कुछ ख़त्म 
अगले रोज चंद्रापुरी के क्षत-विक्षत वाले हिस्से पहुंचे, उफनती मंदाकनी पास से गुजरती हुई और उसके दोनों ओर जख्मी हालत में चंद्रापुरी अपनी स्थिति को बयंा करता हुआ। धान का आधा सेरा रेत से सना पड़ा, आधे से ज्यादा मंदाकनी बहा ले गई और थोड़े बहुत हिस्से पर धान की फसल असल स्थिति को बयां करती हुई। मंदाकनी के तेज बहाव से बचे-खुचे खण्डर मकान और चंद्रापुरी गांव का बह चुके झूला पुल की तारें मानों सिर्फ त्रासदी के भयावहता को दिखाने के लिए श्रापग्रस्त हो। पचास से भी ज्यादा हरिजन परिवारों के बसेरे का भूगोल बदल चुका है। रघुवीर लाल कहते हैं कि चंद्रापुरी में हरिजन परिवार सबसे ज्यादा रहते हैं। कई लोगों के मकान मंदाकनी बहा ले गई, साथ ही खेत और गांव के मंदिर समेत कानूनगो की चैकी भी आदपा की भेंट चढ़ गई। रघुवीर कहते हैं कि दो महीने होने को हैं लेकिन यहां सरकार की ओर से कोई मदद नहीं पहुंची। हां, पटवारी एक दफा जरूर आया हमने उनको अपनी स्थिति से अवगत कराया लेकिन उसके बाद वे यहां पलटकर भी नहीं आया।
चंद्रापुरी: अंधकारमय भविष्य 
आपदा प्रभावित प्रेमलाल
पेशे से ड्राइवर पे्रम लाल कहते हैं कि चंद्रापुरी के लिए एक हेलीकाप्टर से राशन आया लेकिन इलाके के कुछ प्रभावशाली लोगों ने हेलीकप्टर को नदी पार उतारा, और चंद्रापुरी बाजार के लोगों को रसद बांटी। वह कहते हैं कि चंद्रापुरी गांव के नाम पर चंद्रापुरी बाजार के लोग लाभ उठा रहे हैं जबकि उनका कोई नुकसान नहीं हुआ। रघुवीर, प्रेमलाल और कई ग्रामीण अपनी पीड़ा बयां करते हैं, कुछ लोग नाराजगी जताते हुए कहते हैं कि बड़ी मुश्किल से उन्हें एनजीओ वालों ने टंेट दिये, उनके अंदर वह अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं लेकिन अब प्रशासन के नए फरमान से वह व्यथित हैं।  प्रेम लाल कहते हैं कि प्रशासन ने गांव वालों को होटलों में ठहरने के लिए कहा है जिसका पैसा सरकार देगी लेकिन उनकी मवेशियों का क्या होगा, जो उनकी आर्थिकी का हिस्सा है। वह कहते हैं प्रशासन के उटपटांग फैसले से गांव के लोगों में नाराजगी है। चंद्रापुरी में कई लोग अपनी दास्तां बयां करते हुए सरकार, प्रशासन और अपने प्रतिनिधियों को जमकर कोसते हुए नाराजगी भी व्यक्त करते हैं।
चंद्रापुरी : एनजीओ के भरोसे स्कूल  
स्कूल पर भी आपदा की मार 
आपदा से हुए नुकसान का पाई-पाई हिसाब गांव का युवक भी चाहते हैं। इस साल कालेज में प्रवेश करने वाला आकाश जोशी कहता है कि छह घंटे उन्हें कालेज आने-जाने में लगते हैं पढ़ाई के लिए वक्त निकालना संभव नहीं हो पाता है क्योंकि घर के काम-काज में भी हाथ बंटाना पड़ता है। नदी के किनारे की ओर इशारा करता हुआ आकाश कहता है कि कभी यहां पर स्कूल हुआ करता था लेकिन नदी बहा ले गई, स्कूल ना होने का खामियाजा गांव के कई छोटे बच्चे भुगत रहे हैं। वह कहता है कि जब एक एनजीओ गांव के बच्चों को पढ़ा सकता है तो फिर सरकार ऐसा क्यों नहीं कर पाती। यह सही है कि आपदा ग्रस्त इलाके में स्कूलों की हालत गंभीर है। इन इलाकों में सरकार के शिक्षा के कई अभियान गायब है, और पहाड़ के नौनिहाल आखर बांचने से पूरी तरह वंचित हो चुके हैं।
मंदाकनी का कहर 
जोखिम में जान 
हताश और निराश लोग 
कठिन है डगर 
चंद्रापुरी गांव से सटा जंगल भी भूस्खलन की चपेट में है। जंगल से धीरे-धीरे मलबा घरों की ओर सरक रहा है। गांव के लोगों का कहना है कि इस पहाड़ के अंदर से एल एंड टी की सुंरग जानी है। लेकिन अभी से ही पहाड़ दरक रहा है। जो कि भविष्य में भारी नुकासन की चेतावनी दे रहा है। गांव के लोग भयग्रस्त हैं कि आखिर उनकी सुनवाई क्यों नहीं हो रही है। लोग बताते हैं कि कुछ लोग यहां मदद करने आये थे, नदी पार से उन्होंने कुछ राशन भी दी। साथ ही न्यूजीलैंड के एक राफ्टर ने चंद्रापुरी की हालत को देखते हुए एक ट्राली लगाई। लेकिन कुछ नेता टाईप लोगों ने इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ दिन बाद ट्राली खराब हुई तो फिर वे लोग उसे सही करने नहीं आये जो इसे अपनी उपलब्धि बता रहे थे।गांव के लोग हर किसी से अपना दुखड़ा सुना रहे हैं लेकिन दो महीने बाद भी सरकार की ओर से चंद्रापुरी जैसे गांवों के लिए कोई भी व्यवस्था नहीं हुई। गांव के लोग सरकार के काम-काज से बेहद नाराज हैं, तो जनप्रतिनिधियों के रवैये से भी भारी निराश।


खैर केदारघाटी की मौजूदा उदासी में वहां की वेदना समाई हुई है। वहां जख्मों में बिखरा ऐसा शोकगीत है जो पीढि़यों बाद भी नहीं भुलाया जायेगा।
जान हथेली पर





विनाशकारी बांध , एल  एंड टी की सुरंग 
पहाड़ जैसा हौसला 



बांध कंपनी पर भी आपदा की मार 




ख़त्म हुए आशियाने 
स्कूल के आगे नदी, कभी कोसों दूर बहा करती थी 

पुल भी  बहा ले गई मंदाकनी 
















Monday, August 26, 2013

घायल है हिमालय बेफिक्र नौकरशाह




भारत में आए सबसे बड़े जल प्रलय के 40 दिन बाद बचाव कार्य अपने अंतिम दौर में है तो राहत कार्य जारी हैं। सरकार मृतकों आश्रितों और आपदा प्रभावित परिवारों को आर्थिक सहायता बांटने में जुटी हुई है मगर वह भी कहां ठीक से हो पा रहा है। लेकिन इन सब के बावजूद आपदा से तबाह हुए क्षेत्रों में सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने पर सरकार का ध्यान नहीं है। केदारघाटी, अलकनंदा घाटी और उत्तरकाशी जिले में आज भी लगभग सब कुछ वैसा ही है जैसा जल प्रलय के दौरान था। सड़क मार्ग अभी भी ध्वस्त हैं तो आपदा प्रभावित लोग आज तक टैंटों और सरकारी भवनों में रहने को मजबूर हैं। कुछेक छोटे कर्मचारियों को अपवाद मान लें तो प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाह या तो राजधानी में ही बैठकों में व्यस्त हैं या फिर हवाई सर्वेक्षण कर लीपापोती में जुटें हैं। नूतन सवेराने आपदा ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया तो पाया कि सरकार और नौकरशाही की लापरवाही से आपदा प्रभावितों के साथ-साथ समूचा पहाड़ घायल है।

सड़कों का संकट

उत्तराखंड की सबसे बड़ी आपदा को 40 दिन बीत चुके हैं लेकिन मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी घाटी के सैकड़ों गांव इस भयंकर त्रासदी से उभर नहीं पाये हैं। हालात इतने गंभीर है कि इन गांवों को जोड़ने वाली तकरीबन 5 हजार किलोमीटर की सड़कें बुरी तरह से ध्वस्त हैं। सड़कों के क्षतिग्रस्त होने से पहाड़ की लगभग 16.4 फीसदी आबादी दाना-पानी से लेकर कपड़े-लत्ते के लिए मुहाल हो गई है। प्रदेश की भौगोलिक बीहड़ता और सरकार के नकारेपन से पहाड़ का कभी ना झुकने वाला हौसला हर रोज टूट रहा है।

उत्तराखंड सरकार की नीतियों के चलते हिमालय की तलहटी में बसे 500 से ज्यादा गांवों का संपर्क आपदा के 40 दिन बाद भी कटा हुआ है। आवागमन की दिक्कतों से जूझ रहे इन गांवों की स्थिति इतनी विकट है कि पैदल रास्ते भी चलने लायक नहीं है। खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी इस बात को स्वीकारते हैं कि सूबे की 5 हजार किलोमीटर सड़कें भू-स्खलन और नदी के कटाव से तबाह हो चुकी है, जबकि राज्य के लगभग 200 पुल उफनती नदियों के भेंट चढ़ गये हैं। बहुगुणा यह भी बताने से नहीं चूकते कि राज्य के 4,300 गांवों में विद्युत और पेयजल आपूर्ति से लेकर संचार माध्यम ठप हैं।
उत्तरकाशी जिले में यमुना और भागीरथी घाटी के 135 गांव अलग-थलग पड़े हैं, इन गांवों को जोड़ने वाली 23 लिंक रोड़ बंद होने से तकरीबन 30 हजार की आबादी प्रभावित है। रूद्रप्रयाग जिले के हालात भी इससे कम नहीं है। जखोली, ऊखीमठ और अगस्तमुनि ब्लाॅक में मोटर मार्ग ध्वस्त होने से सैकड़ों गांवों का संपर्क टूट चुका है। अगस्तमुनि ब्लाॅक की लाइफ लाइन कहे जाने वाले गुप्तकाशी-मयाली मार्ग पर भी जगह-जगह भू-स्खलन का खतरा बना हुआ है। मंदाकिनी में आई भीषण बाढ़ से अगस्तमुनि और विजयनगर को जोड़ने वाला हाईवे तबाह हो चुका है। जबकि तिलवाड़ा के पास नदी की प्रचंड लहरों ने केदारनाथ हाईवे का लगभग एक किलोमीटर हिस्सा नेस्तनाबूद कर दिया जिससे इलाके में यातायात व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गई है। इतना ही नहीं जिले के तीनों ब्लाॅकों को जोड़ने वाले 26 पुल भी आपदा की भेंट चढ़ चुके हैं। लेकिन विड़ंबना देखिए कि सड़क मार्गों से कट चुके गांवों को जोड़ने के लिए अभी तक किसी भी प्रकार की कोई वैकल्पिक व्यवस्था स्थानीय प्रशासन नहीं कर पाया है।
चमोली जिले में भी 40 दिन बाद हालात सामान्य नहीं हो पाये हैं। जिले में लगभग 53 संपर्क मार्ग अब भी बंद पड़े हैं। जिससे सीधे तौर पर 84 गांव प्रभावित हुए हैं। बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग भी जगह-जगह भू-स्खलन और नदी के कटाव से बाधित है। अकेले गोविंदघाट से लेकर लामबगड़ तक राजमार्ग 4 जगाहांे पर भू-स्खलन की चपेट में हैं। जिन्हें खुलने में अभी काफी वक्त लगेगा। इससे पहले लोक निर्माण विभाग ने दावा किया कि वह आपदा से छतिग्रस्त सड़कों को जुलाई महीने तक खोल देगा, लेकिन असल सच्चाई यह है कि प्रदेश का लोक निर्माण विभाग इन दिनों मोर्चे से गायब है। जुलाई महीना खत्म होने वाला है और सैकड़ों सड़कों का खुलना भी मुमकिन नहीं है। राज्य के चारों धामों को जोड़ने वाली 647 किलोमीटर नेशनल हाईवे को भी भारी नुकसान पहुंचा है। राज्य सरकार ने इसे जल्द तैयार करने का दावा किया था लेकिन सरकार का यह दावा भी हवाई नजर आता है माना जा रहा है कि इसे बनाने में अभी साल भर का समय लग सकता है। प्रदेश में स़ड़कों के सुस्त निर्माण से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सूबे की सरकार लोगों के प्रति कितनी फिक्रमंद है। राज्य के ये हालात तब है जब खुद मुख्यमंत्री भी चीजों से वाकिफ हंै। ऐसे में साफ जाहिर होता है कि सूबे में नौकरशाही ने सरकार को बौना साबित कर दिया है।

राहत नहीं पहुंचा पाई सरकार
राज्य में आपदा प्रभावित क्षेत्रों के हालात गंभीर बने हुए हैं। आपदा में सब कुछ लुटा देने वाले कई गांव अब भुखमरी की कगार पर है। आलम यह है कि पीडि़त परिवार तक राहत सामग्री नहीं पहुंच रही है। आपदा पीडि़तों का कहना है कि अगर सरकार उनकी मदद कर रही है तो फिर उनके हिस्से की मदद आखिर जा कहां रही है।

राज्य में आई भीशण आपदा के बाद समूचे देश से प्रदेश की मदद के लिए हाथ आगे बढ़े। हर राज्य की ओर से सूबे को राहत सामग्री भेजी गई। लेकिन प्रदेश के भ्रश्ट अफसरो की हिलाहवाली और सरकार के कुप्रबंधन के चलते राहत सामग्री या तो डंप हो रही है या फिर सरकारी कब्जे में सड़ रही है। जगह-जगह से भेजी गई राहत का सरकार के पास कोई रिकाॅर्ड नहीं है। हालांकि सरकार का दावा है कि जो भी सहायता आपदा पीडि़तों के लिए आई है उसे प्रभावितों को बांटा जा रहा है। लेकिन अगर सच्चाई से पर्दा उठाया जाय तो अधिकांश राहत उन लोगों के घरों में पहुंच रही है जो आपदा पीडि़त नहीं है।
हरिद्वार से लेकर देहरादून और आपदा प्रभावित जिलों के कई कस्बों में कुछ लोग राहत सामग्री को ठिकाने लगाने में तुले हैं। जबकि जरूरतमंद किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि सरकार भी इस बात से वाकिफ है लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी सरकार इस ओर कोई कदम उठाने से बच रही है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि हर रोज राशन से भरे सैकड़ों ट्रक बदरीनाथ और केदारनाथ हाईवे पर देखे जा सकते हैं। राहत सामग्री से लदे ट्रक कहां जा रहे हैं और उनकी राशन किसे बांटी जा रही है इस बात की जानकारी किसी को भी नहीं है। स्थानीय प्रशासन भी इस बात से बेखबर है कि उसके यहां आने वाले ट्रकों की संख्या कितनी है और उसके पास कितनी राहत पहुंच पाई है। इतना ही नहीं प्रशासन के पास प्रभावित गांवों के बारे में कोई जानकारी नहीं है गांव वालों का कहना है कि कई गांवों में अभी तक पटवारी नहीं पहुंच पाया है, ये लोग बताते हैं कि उनका गांव सड़क से सटे होने पर भी पटवारी एक महीने बाद वहां पहुंचा। ऐसे में सरकार की राहत बांटने की बात कुछ अटपटी लगती है।
सरकार और प्रशासन देहरादून में बैठकर भले ही कुछ भी बयान दें लेकिन आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री की बदइंतजामी को लेकर पहाड़ के लोगों में भारी आक्रोश व्याप्त है। केदारनाथ के मुख्य पड़ाव गौरीकुंड से सटे गौरी गांव के जगदीश प्रसाद गोस्वामी बताते हैं कि उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। राहत सामग्री के बारे में पूछने पर गोस्वामी कहते हैं कि हेलीकाॅप्टर द्वारा गांव में राशन जरूर पहुंचाई गई थी लेकिन राशन जरूरतमंदों की बजाय कुछ लोगों तक सिमट कर रह गई। गौरीकुंड के आस-पास के गांवों के भी यही हाल है, कहने को तो सरकार द्वारा हेलीकाप्टर से रसद सामग्री बांटी जा रही है लेकिन यह रसद किसे और कितनी बंट रही है इसकी जानकारी किसी को नहीं है। एक स्थानीय बुजुर्ग कहते है कि जितनी राहत सामग्री उत्तराखंड पहुंची है अगर उसका तरीके से वितरण हो तो प्रभावित लोगों का गुजारा साल भर तक चल सकता है लेकिन सरकार की अकर्मण्यता के चलते ऐसा होना संभव नहीं है।
सरकारी तंत्र का कुप्रबंधन पाण्डुकेश्वर में भी देखने को मिला। जहां सरकारी मदद के लिए पाण्डुकेश्वर के आस-पास के गांवों को बुलाया गया था। लेकिन आपदा के मारे ग्रामीणों की आस उस वक्त टूटी जब उन्हें बैरंग वापस लौटना पड़ा। पाण्डुकेश्वर से 5 किलोमीटर दूर अपने गांव से राहत सामग्री के लिए पहुंची जयंती देवी कहती हैं कि उनके साथ बुरा बर्ताव हो रहा है। वह कहती है कि राहत सामग्री के लिए उन्हें पाण्डुकेश्वर बुलाया गया लेकिन इतनी दूर पैदल आने के बाद भी उन्हें राहत सामग्री नहीं मिली। जयंती देवी कहती है कि ऐसी आफत में प्रशासन उनके साथ भद्दा मजाक कर रहा है। सरकार के कुप्रबंधन का एक और उदाहरण गुप्तकाशी से कुछेक किलोमीटर दूर जौला-पाटियूं में दिखा। पाटियूं की ग्राम प्रधान कुंवरी देवी बताती है कि उनका गांव सड़क से सटा है लेकिन आपदा के इतने दिन बीतने के बाद भी उन्हें राहत के नाम पर एक भी फूटी कौड़ी नसीब नहीं हुई। इसे विडंबना नहीं और क्या कहेंगे जहां एक ओर राज्य को बहारी प्रदेशों से भारी तादाद में राहत सामग्री मिल रही है लेकिन प्रदेश सरकार है कि वह राहत को प्रभावितों तक पहुंचाने में नाकामयाब है।

मददगार एनजीओ
अगर एनजीओ नहीं होते तो हम भूखे मर जाते, आज हमारे पास खाने के लिए राशन और पहनने के लिए कपड़े हैं। यह सब एनजीओ की देन हैं, इन लोगों का कर्ज हम कभी नहीं चुका सकतेयह कहना है माहेश्वरी देवी का। चमोली जिले के जोशीमठ से 19 किलोमीटर दूर बसा घाट गांव। 16 जून को अलकनंदा के प्रलय ने इस गांव को भी तबाह कर डाला। स्थानीय लोगों का कहना है कि एनजीओ वालों की मदद से वह आज जिंदा हैं। घाट के ग्रामीणों का कहना है कि उनके गांव में सरकार द्वारा कोई मदद नहीं पहुंची है। वह कहते हैं कि आपदा को आये इतने दिन गुजर चुके हैं लेकिन अभी तक एक पटवारी के अलावा वहां कोई नहीं पहुंचा है।

यह हाल सिर्फ घाट गांव के नहीं है बल्कि समूचे पहाड़ों में सरकार की ओर से कोई भी अधिकारी पीडि़तों तक नहीं पहुंच पाया है। जबकि इसके उलट आपदा प्रभावित गांवों तक कई एनजीओ पहुंचे है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शासन-प्रशासन सिर्फ सड़कों तक सिमट कर रह गया है। जबकि आपदा से सबसे ज्यादा पीडि़त सड़कों से दूर हैं। सेव द चिल्ड्रनसंस्था के अविनाश कुमार कहते हैं कि हमारी संस्था पहले आपदा प्रभावित क्षेत्रों का मुआयना करती है और लोगों की आवश्यकता के बारे में जानकारी जुटाती हैं। जिसके बाद हम लोग उस गांव में जाकर राहत सामग्री वितरित करते हैं। वह कहते हैं इस दौरान उन्हें कई सारी विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है।
सेव द चिल्ड्रन के अलावा धाद’, ‘आंचल चैरिटेबल ट्रस्ट’, ‘उत्तरांचल भातृमंडल’, ‘ए.टी.इंडिया’ ‘नव ज्योति डेवलपमेंट सोसइटी’, ‘अखिल गढ़वाल सभाजैसे कई एनजीओ ने पहाड़ों पर मोर्चा खोल रखा है। ए.टी. इंडिया एनजीओ से जुड़ी यशोदा सेमवाल कहती है कि उनके द्वारा आपदा प्रभावित क्षेत्रों को अगल-अलग सेक्टर में बांटा गया है। वह बताती हैं कि रूद्रप्रयाग जिले में 10 सेक्टर है जिसमें कालीमठ घाटी, केदार घाटी, मनसूना, आकाश कामनी, अगस्तमुनि, मयाली, चंदन गंगा, मोहनखाल, तिलवाड़ा और गिमतोली वैली शामिल हैं। यशोदा बताती है कि उनका एनजीओ खाद्य सामग्री के अलावा पीडि़तों के खाते भी बैंकों में खोल रहे हैं ताकि सरकार से मिलने वाली राहत राशि सीधे उनको मिल सके।
सरकार भले ही बड़े-बड़े दावे कर रही हो लेकिन पहाड़ों में एनजीओ से बेहतर काम प्रशासन नहीं कर पाया है। एनजीओ द्वारा धरातल पर किये जा रहे काम से स्थानीय लोगों को सीधे लाभ पहुंच रहा है। जानकारों की माने तो अगर एनजीओ द्वारा पहाड़ों में मदद नहीं पहुंचाई जाती तो आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस त्रासदी के आंकड़े और भी भयावह हो सकते थे। इन लोगों का कहना है कि राज्य सरकार महज खानापूर्ति के लिए हेलीकाॅप्टरों का उपयोग कर रही है, जो काम इलाकों में एनजीओ द्वारा अब तक किया गया वहां तक पहुंचने में सरकार को महीनों लग जायेंगे। राज्य हित में सरकार को चाहिए कि वह एनजीओ के साथ तालमेल बिठा कर लोगों तक राहत पहुंचाये।
बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं
यूं तो राज्य में स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं पहले से ही बदहाल है, लेकिन इस आपदा ने पहाड़ों में स्वास्थ्य और शिक्षा की असल हकीकत सबके समाने रखी है। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा का इतना बुरा हाल है कि कुछ अस्पतालों में एक भी डाक्टर नहीं हैं। ऐसे में बीमार और घायल लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। स्थानीय लोगों की मानें तो बरसात के दिनों उन्हें और भी मुसीबत उठानी पड़ती है, वे लोग बताते हैं कि अस्पतालों में डाक्टर न होने के कारण उन्हें छोटी सी बीमारी के ईलाज के लिए श्रीनगर जाना पड़ता है।

अगस्तमुनि ब्लाॅक के जौल-पाटियूं ग्राम सभा के लोग बताते हैं कि उनके यहां स्थिति भारी नाजुक हैं ये लोग कहते हैं कि अगर इलाके में कोई बीमार होता है तो उसे देखने वाला यहां कोई डाक्टर नहीं है। लिहाजा उन्हें खर्चा करके ऋषिकेश और देहरादून जाना पड़ता है। दूसरी ओर स्कूलों का भी यही आलम हैं, कहीं स्कूल हैं तो टीचर नहीं, जहां टीचर हैं भी तो वहां स्कूल भू-स्खलन की जद में आ चुके हंै। पांडुकेश्वर की महिलाएं बताती है कि वह अपने बच्चों के भविष्य को लेकर खासी चिंतित हैं, वे कहती हैं कि गोविंदघाट और पांडुकेश्वर के पास सड़क टूटने से उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इतना ही नहीं आपदा के चलते स्कूलों की दीवारंे जर्जर हालत में है ऐसे में उन्हें हर समय डर सताये रहता है कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाय। स्कूलों का यही हाल रूद्रप्रयाग जिले में भी हैं, भीषण त्रासदी के चलते कई स्कूल तबाही की भेंट चढ़ चुके हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जो स्कूल बचे भी है वह खतरे की जद में हंै, ऐसे में बच्चों को स्कूल भेजना खतरे से खाली नहीं हैं। और कहीं स्कूल की हालत तो सही है लेकिन भारी बारिश और भूस्खलन के चलते सड़के जगह-जगह क्षतिग्रस्त है जिससे बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। वह कहते हैं कि सड़कें क्षतिग्रस्त होने से स्कूल में टीचर भी नहीं आ पाते जिस वजह से बच्चों को घर वापस लौटना पड़ता है।

यात्रा बंद रोजगार ठप
जून के महीने उत्तराखंड में आई भीशण तबाही चार धाम यात्रा भी खटाई में पड़ गई है। चार धाम यात्रा के ठप पड़ने से लोगों के रोजगार पर भारी असर पड़ा है। बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री धामों में यात्रियों को पहुंचाने वाले पोर्टरो, घोड़ा मालिकों और डंडी-कंडी वालों का व्यवसाय इस साल चैपट हो चुका है। इतना ही नहीं यात्रा रूट पर पड़ने वाले सैकड़ों ढ़ाबे, होटल और लाॅज इन दिनों सूने पड़े हैं। जोशीमठ में एक होटल संचालक बताते हैं इस साल उन्हें भारी नुकसान पहुंचा है। वह बताते हैं कि हर साल यात्रा के दौरान उनका होटल बुक रहता था। जिसके लिए लोग एडवांस बुकिंग कर लेते थे, इस बार भी उनके होटल में सैकड़ों बुकिंग थी लेकिन चार धाम यात्रा ठप पड़ने से उन्हें लोगों के पैसे वापस देने पड़ रहे हैं। उत्तराखंड में यह हाल मात्र एक होटल का नहीं है बल्कि सैकड़ों होटल मालिक इस आपदा से संकट में हैं।
चार धाम यात्रा के पीछे अपना गुजर-बसर करने वाले डंडी-कंडी वालों को इस बार सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा। दरअसल इन लोगों का मुख्य रोजगार धामों में यात्रियों को पहुंचाना है। लेकिन इस बार केदारप्रलय के बाद चार धाम यात्रा लगभग बंद हो चुकी है। जिसके चलते ये लोग अब पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं। ऐसे ही हालात घोड़ा स्वामियों की भी है। केदारनाथ और हेमकुंड साहिब में अधिकांश यात्री घोड़ों से पहुंचते हैं, अलकनंदा और केदारघाटी में अधिकांश लोग घोडे़-खच्चरों पर आश्रित हैं इसके अलावा उनके पास रोजगार का कोई और साधन नहीं है। ये लोग बताते हैं कि इस बार यात्रा में भारी भीड़ थी जिससे उन्हें अच्छे पैसे कमाने की काफी उम्मीद थी लेकिन 16 जून को आई बाढ़ ने उनके उम्मीदों पर पानी फेर दिया। केदारघाटी में घोड़ा-खच्चर वालों का कहना है कि बाढ़ में उनके कई खच्चर बह गये हैं लेकिन सरकार की ओर से उन्हें अभी तक कोई मदद नहीं मिल पाई है।
यात्रा पड़ावों पर बसे कस्बों की रौनक इस बार गायब हो चुकी है। यात्रा ठप पड़ने से बाजार सुने पड़े हैं। जोशीमठ में कपड़ों की दुकान चलाने वाले राजेश कहते हैं कि वह हरियाणा के रहने वाले हैं और पिछले कई सालों से यहां कपड़ों की दुकान चला रहे हैं। राजेश बताते हैं इस साल कुदरत ने उनके व्यापार को भी भारी नुकसान पहुंचाया। वह कहते हैं कि यात्रा बंद होने से वह भारी घाटे में है। पहाड़ में हर साल आपदा को देखते हुए वह कहते हैं अब पहाड़ में बिजनेस करना बहुत कठिन है वह बताते हैं कि वो अब हमेशा के लिए पहाड़ छोड़ देंगे और शहरों में कहीं काम तलाशेंगे। पहाड़ों में कुदरत की मार झेलने वाले कई राजेश हैं जो रोजगार के खातिर अब पहाड़ों की जगह शहरों में जाना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि चार धाम यात्रा ही उनकी आजीविका का एक मात्रा जरिया था जो अब खत्म हो चुका है। लिहाजा उन्हें भी अब शहरों में कहीं नौकरी ढूंढनी पडे़गी।
राज्य सरकार भले ही सितंबर में तीन धामों में यात्रा शुरू करने का दावा कर रही हो, लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि इस साल यात्रा होनी संभव नहीं हैं। इस बात को स्थानीय व्यापारी भी दबी जुबान में स्वीकारते हैं, इन लोगों की सरकार से मांग है कि वह चार धाम मार्गों को जल्दी बहाल करें।

आपदा की इस घड़ी में जब सरकार को पीडि़तों के बीच होना चाहिए था तब न जाने सरकार कहां थी। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में सेना ने सराहनीय कार्य किया है। यदि के सेना के जवान जी-जान से बचाव कार्यों में नहीं जुटते तो बहुत भारी नुकसान हो सकता था। सीमा सड़क संगठन ने भी इस दौरान अच्छा काम किया है। उत्तराखंड सरकार को सेना और बीआरओ की मदद करनी चाहिए थी। लेकिन सरकार बीआरओं को आवश्यक धन उपलब्ध नहीं करा पाई। सरकार मंे शामिल नेता और नौकरशाह हवाई सर्वेक्षण तक ही सीमित रहे। राज्य में आई इस आपदा को चेतावनी समझते हुए भविष्य में पूरी तैयारी होनी चाहिए।
- बी.सी.खंडूड़ी, पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराख्ंड

उत्तराखंड सरकार ने आपदा के दौरान राहत और बचाव कार्यों पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। मुख्यमंत्री जी के अलावा सभी मंत्रियों और विधायकों ने जिम्मेदारी से काम किया। सरकार ने काबिल अफसरों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों में तैनात कर पीडि़तों को जल्द से जल्द राहत उपलब्ध कराई। यह बहुत बड़ी जल प्रलय थी। इसके बावजूद सरकार ने सेना के साथ मिलकर व्यापक स्तर पर बचाव कार्यों को अंजाम दिया। इसी संयुक्त प्रयास का नतीजा रहा कि लाखों लोगों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों से बाहर निकाल कर सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाया। राहत कार्य अब भी चरम सीमा पर है। सरकार का प्रयास है कि अंतिम पीडि़त तक राहत सामग्री पहुंच सके। आपदा की इस घड़ी में भाजपा के नेता जिस तरह से बयानबाजी कर रहे हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण हैं। यह पीडि़तों के जख्मों पर मदद का मरहम लगाने का समय है।
- सुबोध उनियाल, विधायक, कांग्रेस

उत्तराखंड में आपदा से बड़ा नुकसान हुआ है। पूरे देश के लोग इस आपदा से प्रभावित हुए हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इसे हिमालयी सुनामी कहा है। मैं स्वयं आपदाग्रस्त क्षेत्रों से लौटा हूं। सरकार के प्रयास नाकाफी हैं। इसलिए जरूरी है कि इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाय।


- त्रिवेंद्र सिंह पंवार, अध्यक्ष, उत्तराखंड क्रांति दल

हम युद्ध स्तर पर बंद सड़कों को खोलने में जुटें हैं। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती मौसम बना हुआ है। भारी बारिश से दोबारा सड़कों पर मलबा आ रहा है। शासन और प्रशासन की मदद न मिलने से हमें खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यदि हमें स्थानीय प्रशासन सहयोग करे तो हम सड़कों को यातायात के लिए खोल देंगे। हालांकि अभी तक हम हर रोज औसतन 20 मेजर लैंडस्लाइड हटा रहे हैं।
- मेजर राहुल श्रीवास्तव, बीआरओ