Wednesday, March 17, 2010

टिहरी की मौत से कराहता प्रतापनगर


18वीं सदी के पूर्वाद्ध में धुनेरों ने कभी भी नहीं सोचा होगा कि जिस जगह पर उनका 8-10 परिवारों का कुनबा रह रहा है वो कभी विशालकाय समुद्र में बदलकर बिजली उगलेगा। शायद इतनी दूरगामी सोच न कभी धुनेरों की रही और न ही धुनेरों की जमीन का कायाकल्प कर अपनी राजधानी बनाने वाले टिहरी के जनक माने जाने वाले सुदर्शन शाह ने। अगर इस बात की रत्ती भर भनक इन लोगों को होती कि उनकी टिहरी की ये दशा हो गयी तो शायद न धुनेर अपनी जमीन पर राजा को राजधानी बनाने की बात कबूलते और ना राजा अपनी राजधानी की ये गत करने के लिए टिहरी को यूं ही छोड़ देते। लेकिन आज टिहरी डूब चुकी है और उसके गर्भ से बिजली बन रही है। कभी राजा-रजवाड़ों की शानों-शौकत को करीब से देखने वाली टिहरी आज खामोश हो चुकी है। विकास की खातिर भले ही तरक्की पसंद लोगों ने टिहरी को मौत का फरमान सुनाया हो और टिहरी को झील की अतल गहराई में समाने को विवश किया हो लेकिन हमेशा टिहरी को निहारने वाला भगीरथी के उस पार प्रतापनगर का क्या कसूर था कि उसे टिहरी के डूबने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। प्रतापनगर की जनता का क्या कसूर था कि उसे 18वीं सदी की तर्ज पर काला पानी की सजा मुकर्रर कर दी गयी। इसका जबाव ना तो टिहरी बांध बनाने वाली कंपनी टीएचडीसी के पास है न उत्तराखंड सरकार के पास और न ही खादी चोला पहनकर चुनाव के दौरान हाथ जोड कर वोट मांगने वालों के पास। शायद ये दुर्गति प्रतापनगर के भाग्य में हमेशा ही रही है। चाहे टिहरी के झील में समाने से पहले की बात हो या फिर झील बनने के बाद की। हमेशा प्रतापनगर को पहाड का टीला समझ कर भुला दिया जाता रहा है। इस क्षेत्र की सुध न लखनऊ से संचालित सरकार लेती थी और न ही देहरादून से संचालित होने वाली अपनी सरकार ने कभी प्रतापनगर की सुध ली। कभी लालघाटी के नाम से मशहूर ये क्षेत्र आज लाल सलाम की तरह हाशिये पर है। ठीक उसी तरह जिस तरह लाल रंग फीका पडने पर भगवा दिखता है। शायद यहां के रैबासियों ने भी विकास की खातिर लाल सलाम को अलविदा कह कर भगवा रंग की राजनीति का साथ देना शुरू कर दिया। लेकिन भगवा रंग की विकास और कांग्रेस की कथित उदारवादी राजनीति ने भी यहां के लोगों के साथ छल किया और आज भी प्रतापनगर का कथित पहाडी टीला विकास की बाट जोह रहा है। सन् 2003 में जब टिहरी बांध की अन्तिम टी-4 सुरंग को बंद कर दिया गया था तो टिहरी शहर के साथ-साथ प्रतापनगर को जोड़ने वाली सड़के और पुल एक-एक कर डूबने लग गये थे,तब जाकर भागीरथी के उस पार के लोगों को अहसास हुआ कि उनके साथ अन्याय हुआ है। प्रतापनगर के साथ विकास के खातिर जो छलावा किया गया शायद ऐसा आदिम युम में पहले कभी न हुआ होगा और न शायद आगे होगा। लेकिन प्रतापनगर की जनता तो छली जा चुकी है और इसका खामियाजा भी भुगत रही है। आज प्रतापनगर के हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि वहां रहना कोई पसंद नहीं करता। यहां तक कि अगर पिछले पांच वर्षो में पलायन का रिकार्ड खंगाले तो सबसे ज्यादा पलायन प्रतापनगर से हुआ है। इसे बिडंबना भी कह सकते हैं कि जिस उत्तराखंड को बनाने के लिए जो आंदोलन लड़ा गया उसका मूल मकसद ही जल जंगल जमीन और जवान को पलायन करने से रोकना था लेकिन उसी आंदोलन का दम प्रतापनगर के हश्र को देखकर टूटता हुआ नजर आता है। प्रतापनगर क्षेत्र में इतनी विकट परिस्थितियंा पैदा हो चुकी है कि यहंा रहने वाला हर इंसान अपने भाग्य को कोसता है। ऐसा नहीं है कि यहां के लोगों ने अपनी समस्याओं को जनप्रतिनिधि से लेकर राजधानी में बैठे हुक्मरानों को न सुनाई हो लेकिन प्रतापनगर की हालत को लेकर किसी में भी इतना साहस नहीं है कि कोई इसकी पैरवी विधानसभा में करें। अगर बात यहां के नये-पुराने विधायकों की करें तो इन महाशयों ने महज अपनी राजनीति को चमकाने के लिए जनता के साथ खिलवाड किया है। किसी भी विधायक ने यहंां की समस्या को लेकर आज तक आवाज तक नहीं उठाई। इसे प्रतापनगर की बिड़बना भी कह सकते हैं कि यहां से विधायक तो चुने गये लेकिन इन विधायकों ने अपने तंबू टिहरी शहर में गाडने में ही अपनी भलमानसता समझी। जबकि भगीरथी के पार जनता उस वक्त को कोसती रही जब इन लोगों को जीतवा कर देहरादून ‘रैफर’ किया।
यही नहीं अपनी राजनीति को चमकाने के लिए वर्तमान सांसद ने भी प्रतापनगर को साफ्ट टारगेट समझा और आरक्षण का ख्वाब दिखा कर वोट अपने नाम किये। जीतने के बाद सांसद महोदय ने प्रतापनगर जा कर शायद कभी आरक्षण की बात की होगी। ऐसा दूर-दूर तक कभी नहीं सुनाई दिया और न सुनाई देगा। वहीं बीजेपी सरकार आने से एक दफा लगा कि जनरल राज आयेगा तो बीसी खंडूडी अपना फौजी धर्म निभायेंगे। हालांकि ये बात उस समय और पुख्ता हो गयी थी जब खुद बीसी खंडूडी ने प्रतापनगर जा कर वहां की आवाम से मिले लेकिन खंडूडी ने प्रतापनगर में जो बयान दिये वो राजनीति की चासनी में तले हुए थे। खंडूडी ने भले ही प्रतापनगर के लिए पेयजल पंपिंग योजना की सौगात जरूर दी हो लेकिन ये पंापिग योजना महज ठेकेदारों को खूश करने के लिए थी। यहा तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने प्रतापनगर को जोड़ने वाले चांटी-डोबरा पुल पर कोई खास बहस नहीं की। जिससे साफ हो गया था कि खंडूडी भी महज अपने छबरीली मूछे को तानने में ज्यादा विश्वास रखते हैं ना कि जनसमस्याओं के समाधान में। टिहरी को डुबो देने के बाद जब प्रतापनगर के लिए कोई संपर्क मार्ग नहीं बचा ताब जाकर हर किसी को प्रतापनगर की याद आयी। भागीरथी के उस पार खडे अखंड प्रतापनगर ने भी कभी नहीं सोचा था कि उसकी ये गत होगी। जब प्रतापनगर के सभी रास्ते डूब गये थे तो आनन-फानन में चांटी-डोबरा पुल को स्वीकृति दी थी और पुल बनाने की समय सीधा भी 2009 तक निर्धारित की गई थी। लेकिन आज तक कोई पुल नहीं बन पाया है। जबकि इस पुल के लिए केंद्र सरकार द्वारा 51 करोड़ और राज्य सरकार 38 करोड़ रूपये दिये जाने थे लेकिन अभी तक केंद्र ओर राज्य सरकार द्वारा महज क्रमशः 22 करोड़ और 15 करोड रूपये ही दिये गये। पुल क्यों नहीं बन रहा? क्यों सरकारें पैसे देने में कंजूसी दिखा रही है? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। जनता परेशान है और मौज मारने वाले मौज कर रहे है। कोई बोलने वाला नहीं है। सूबे की निशंक सरकार भी इस ओर उदासीन रवैया अपनाये हुए है जबकि अपने हकों की खातिर प्रतापनगर के लोगों ने कई बार सूबे की सरकार को चेताया भी है। लेकिन मामला ढाक के तीन पात ही रहा। यहां तक कि टिहरी बांध प्रभावित संघर्ष समिति के लोग कई बार टावरों पर चढ चुके है लेकिन निशंक राज की बहरी सरकार ने भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। सूबे के मुख्यमंत्री भले ही विकास की दुहाई देते हो और पलायन को रोकने की बात करते हों लेकिन प्रतापनगर की हालिया स्थिति पर सुध लेना उनके विकास के एजेंडे में नहीं है। मुख्यमंत्री भले ही अपने मनगडं़त ‘विपदा’ की बात करते हों लेकिन निशंक जी को ये पता नहीं है कि उनके किताबी विपदा जैसे प्रतापनगर में सैकड़ों विपदाएं है। उनकी विधाता बनने की इच्छा तो पूरी हो गयी है। लेकिन विपदा जैसे लोग आज भी विपत्तियों का सामना कर रहे हैं। विपदाओं की चुप्पी का जो लोग नाजायज फायदा उठा रहे हैं। उन्हे इस बात का इल्म भी होना चाहिए कि तूफान आने से भी पहले सन्नाठा पसरा रहा है। लिहाजा प्रतापनगर को इस नजरिये से मत देखिए। उसकी खामोशी का मतलब हार मानना नहीं है। बल्कि वहां की आवाम को भी विकास चाहिए। ऐसे में एक अनाम कवि की कविता याद आती है। टिहरी की विवशता पर रोता है प्रतापनगर, देखता है एकटक और खामोश हो जाता है देखकर!

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