Tuesday, July 27, 2010
शौर्य को सलाम
उत्तराखंड भले ही पहाड़ों और जंगलों से लवरेज हो लेकिन इस मुल्क की माटी ने कई ऐसे सूरमा पैदा किये जिन्होंने देश की आन-बान और शान को बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा दी। इतिहास की पोटली में अगर झांके तो इस पहाडी मुल्क की शौर्य की गाथा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जिसने देश की रक्षाप के लिए कई जांबाज योद्धा दिये। बात अगर कारगिल युद्ध की करें तो 527 शहीदों में से 75 लाड़ले अकेले इस मुल्क ने खोये। प्रदेश के इन रणबांकुरों ने शहादत देकर प्रदेश का सीना फक्र से चौड़ा कर दिया। 13 जिलों के इस पहाडी मुल्क ने जांबजी की मिशाल कायम की। प्रदेश के जिलों की बात करें तो देहरादून जिला शहादत देने में सबसे आगे रहा। अकेले देहरादून से 18 रणबांकुरे देश की खातिर शहीद हुए। शहादत की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पौड़ी जिले ने भी 17 रणबांकुरों को राष्ट्र रक्षा के लिए समर्पित किया। टिहरी गढ़वाल के 15 वीर सपूतों ने भी अपनी जान की परवाह किये बिना दुश्मनों को खदेड़ते हुए अपनी कुर्बानी दी। दूर सीमांत चमोली जिले ने भी 11 लाड़लों को देश की खातिर खो दिया। नैनीताल और अल्मोड़ा जिले के तीन लाड़लों ने अपनी जान की परवाह किये बिना देश के खातिर अपने प्राणों की बाजी लगा दी। वहीं उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग और बागेश्वर से भी देश के स्वाभिमान केा बचाने के लिए कारगिल की बर्फीली चट्टानों में बैठे दुश्मनों के दांत खट्टे कर शहीद हो गये। शहादत की इस परंपरा को प्रदेश के युवाओं ने आगे तो बढ़ाया लेकिन सरकार के पैरोकार उनकी शहादत को भुला बैठें हैं। विजय दिवस के नाम पर भले ही आयोजन कर वीर सपूतों को श्रद्धांजली तो दी जाती है लेकिन अफसोस इस बात का है कि दस साल पहले किये वादे आजतक अधूरे ही हैं। आखिर देश के खातिर शहीद हुए लालडों के परिवारों की सुध कब ली जायेगी। कुछ कहा नहीं जा सकता। सिर्फ विजय दिवस के नाम पर शौर्य को सलाम कर इतिश्री करना कहां का नियम है।
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