कोक का शोक
प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड की जनता एक बार फिर सड़कों पर उतरने को बेताब है, जिन चार ‘ज’ (जल, जंगल, जमीन और जवान) को लेकर दो दशक पहले उत्तराख्ंाड का समूचा समाज आंदोलित हो गया था, उसी हक के मारे जाने को लेकर एक दफा फिर से प्रदेश का ग्रामीण परिवेश आवेश में है। इस बार लड़ाई लखनऊ में बैठी सरकार से नहीं बल्कि जंग देहरादून से शासित उस सरकार से है जो छद्म पहाड़ी का ढ़ोंग रच कर सूबे की मलाई कार्पोरेट के कारिंदों को पहुंचा रही है।
इस बार आंदोलन का केंद्र बिन्दु पहाड़ी क्षेत्र में नहीं बल्कि राजधानी के छोर पर बसे विकसनगर तहसील का छरबा गांव है। जहां के जल, जंगल और जमीन को बहुराष्ट्रीय कंपनी के आहते में गिरवी रखने की पटकथा प्रदेश सरकार ने लिख डाली है। सुनियोजित तरीके से तैयार इस योजना को विगत 17 अप्रैल को उस वक्त अमलीजामा पहनाया गया जब सचिवालय के चैथे माले में कोका कोला कंपनी और राज्य सरकार के बीच एमओयू पर दस्तखत हुए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक शीतल पेय बनाने वाली कोका कोला कंपनी प्रदेश में 600 करोड़ रूपये की लागत से अपना धंधा शुरू करेगी। गजब देखिए कि विकासनगर तहसील के अंतर्गत जिस जमीन पर कोका कोला अपना प्लांट लगायेगा, उसकी परिधि में ना सिर्फ ग्रामीणों का जंगल आ रहा है बल्कि शीतला नदी का बीच का हिस्सा भी प्लांट की भेंट चढ़ेगा। इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सूबे में पूंजी निवेश का ढिंढ़ोरा पीटने वाली बहुगुणा सरकार ने जो जमीन कोका कोला को आवंटित की, उसकी पैमाइश ना तो पहले सरकार ने की और ना ही इस बावत शासन-प्रशासन ने स्थानीय लोगों केा विश्वास में लेना उचित समझा। अलबत्ता कोक कंपनी के साथ सौदा बनने के बाद सरकार ने इलाके में जो पैमाइश करवाई उसके तहत ग्रामीणों का वह जंगल भी आ रहा है जिसे हरा-भरा करने में उनकी सालों की मेहनत लगी है। लगभग 68 एकड़ में फैले इस जंगल में दुर्लभ प्रजाति के खैर और शीशम के हजारों पेड़ तो हैं ही प्रवासी परिंदों का यह इलाका पनाहगाह भी है। सरकार का दुस्साहस देखिए कि इस क्षेत्र से बहने वाली शीतला नदी के बीच तक का हिस्सा सरकार कोक कंपनी को सौंपने जा रही है। परिस्थितिकी के बेजोड़ संतुलन वाले इस क्षेत्र को आखिर सरकार क्यों कोका कोला कंपनी को नीलाम करना चाहती है, यह सवाल सरकार की नीयत पर चारों ओर से उठ रहे हैं।
राज्य सरकार यह सवाल उठने इस लिए भी लाजमी है क्योंकि इससे पहले सितारगंज स्थिति शक्ति फार्म और सैनिक फार्म की जमीन को खुर्द-बुर्द करने का आरोप सरकार पर लग चुका हैं। समाज से नाता रखने वालों से लेकर पर्यावरणविद्ों और स्थानीय जनता ने साफ कर दिया है कि वो कोका-कोला कंपनी को किसी भी कीमत पर प्रदेश में नहीं आने देंगे। नदी बचाओ अभियान से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि कोका कोला कंपनी प्रदेश का भला करने नहीं आ रही है बल्कि यह कंपनी मुनाफा कमाने आ रही है। उन्होंने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि प्रदेश में निकाय चुनाव हो रहे हैं और राज्य सरकार ऐसे वक्त निवेश करने में जुटी है। इतना ही नहीं उनका यह भी आरोप है कि राज्य सरकार ने ग्र्राम पंचायत को भरोसे में लिये बिना उनकी जमीन कोका कोला को दे रही है। जबकि पंचायती राज एक्ट में साफ है कि ग्राम सभा या ग्राम पंचायत के अंतगर्त जमीन पर विकास कार्य करने के लिए एनओसी लेनी होती है, जो कि राज्य सरकार ने अभी तक नहीं ली। सरकार के इस फैसले से साबित होता है कि उसे ना तो आम जनता से लेना-देना है और ना ही उनकी बेशकीमती जमीन से।
सरकार द्वारा कोका कोला को जमीन दिये जाने पर जहां ग्रामीण गुस्से में हैं वहीं पर्यावरणविद्ों ने भी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। पर्यावरणविद्ों का मानना है कोका कोला के प्लांट से ना सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा बल्कि इलाके में पानी का संकट भी मंडरायेगा। पर्यावरण के जानकारों का आरोप है कि कोका कोला पानी का लुटेरा है और देश में जहां भी कोक के प्लांट लगे हैं वहंा पानी की विकराल समस्या है। पर्यावरणविद् और नदी बचाओ अभियान से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि हिमालयी राज्यों में पानी अथाह है लेकिन पानी उनके काम नहीं आता। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह लोगों को निःशुल्क पानी उपलब्ध कराये लेकिन राज्य सरकार ऐसा ना कर कंपनियों को पानी पहुंचाने में ज्यादा मददगार बनी हुई है। सुरेश भाई आरोप लगाते हैं कि जहां भी कोका-कोला के प्लांट है उसने पानी का अंधाधुंध दोहन किया है जिससे वहां का वाटर लेवल तेजी से गिरा है। इसी स्थिति का सामना यहां के ग्रामीणों को भी करना पड़ेगा और उनकी सैकड़ों एकड़ में फैली कृषि भूमि पर खतरा मंडरायेगा।
सरकार द्वारा डाकपत्थर बैराज से पानी दिये जाने के बयान पर सुरेश भाई का कहना है कि पानी राज्य की संपत्ति नहीं है, और ना ही राज्य सरकार इस पर कोई फैसला ले सकती है, सरकार कोका कोला को डाकपत्थर बैराज से पानी नहीं दे सकती। इसके लिए राज्य सरकार को हरियाणा, उत्तर प्रदेश सरकार से भी बातचीत करनी पड़ेगी। यह सरकार का विवादित फैसला है।
यमुना में पानी नहीं है ऐसे में सरकार कहां से कोका-कोला को पानी उपलब्ध करायेगी। आंकड़े बताते हैं कि गर्मी के दिनों नदी में सिर्फ 10 फीसदी ही पानी रह जाता है। सुरेश भाई बताते हैं कि ऐसी स्थिति में अगर सरकार कोका कोला को पानी की सप्लाई करती है तो फिर करोड़ों की लागत से बने ढकरानी, ढालीपुर और कुल्हाल विद्युत परियोजनाओं के लिए कहां से पानी लाया जायेगा। ऐसी दशा में यह तीनों परियोजनाएं ठप पड़ जायेगी जिससे प्रदेश में बिजली संकट गहरायेगा।
कोका-कोला प्लांट का भारी विरोध करते हुए पर्यावरणविद्ों का कहना है कि सरकार को चाहिए कि उसे पहले प्रदेश में सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक अध्ययन करना चाहिए तब जाकर निवेशक को सूबे में निवेश करायें। लेकिन यहां तो सरकार बिना सर्वे किये अपनी मन-मर्जी से निवेश कराती है जिसका खामियाजा निर्दोष ग्रामीणों को उठाना पड़ता है। दूसरी ओर कोका-कोला प्लांट से भू-जल दूषित होने से भी पर्यावरणविद् चिंतित है उनका चिंता करना लाजमी है। क्योंकि जब प्लांट में शीतल पेय बनाया जायेगा तो उससे भारी मात्रा में रासायनिक तत्व भी निकलेंगे। जानकारों की माने तों इसमें सर्वाधिक कैडमियम और क्रोमियम जैसे जहरीले रसायन निकलेंगे जिससे कैंसर जैसी महामारी का खतरा बनेगा। इतना ही नहीं प्लांट से निकलने वाले अन्य रसायनों से कृषि भूमि भी जहरीली हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यह समूचा इलाका बंजर हो जायेगा।
राज्य सरकार जिस बैराज से कोका कोला कंपनी को पानी देने की बात कर रही है दरअसल यह बैराज देश का पहला कंजर्वेशन रिजर्व है। जिसे केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर 2004 में नोटिफिकेशन भी जारी हो चुका है। इसके बाद भी अगर राज्य सरकार यहां से कोक कंपनी को पानी सप्लाई करने की बात कहती है तो इससे साफ होता है कि प्रदेश सरकार पर्यावरण के प्रति कितनी फिक्रमंद है। यह वह इलाका है जहंा साइवेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षी सबसे ज्यादा पहुंचते हैं। 4440.40 हेक्टेअर में फैले आसन बैराज में तकरीबन 250 से अधिक प्रजाति के विदेशी पंक्षी यहां आते हैं। पक्षी विशेषज्ञों का आंकलन है कि अगर यहां से कंपनी को पानी सप्लाई किया जाता है तो इससे पक्षियों का यह बसेरा उजड़ जायेगा।
कोक कंपनी से उत्तराखंड सरकार ने एमओयू साइन कर दिया है, कोक के लिए सरकार ने पलकपावड़े बिछा तो दिये लेकिन यह उसकी गले की फंस भी बनता जा रहा है। छरबा में ग्रामीणों और पर्यावरणविद्ों का विरोध सरकार भले ही हल्के में ले रही हो लेकिन यह विरोध उसे महंगा भी पड़ सकता है। राज्य सरकार इस मुगालते में ना रहे कि सड़कों पर हकों के लिए आवाज बुलंद करने वाला सामाज सुस्त पड़ चुका है लेकिन जिस जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए इस प्रदेश की नींव रखी गई थी अगर उसी का हनन होने लगेगा तो निश्चित है समाज की चेतना सरकार की नींद हराम कर सकती है। लिहाजा कोक के शोक से सहमे समाज की बात गौर से सुनी जानी चाहिए।