Thursday, May 2, 2013

मीठी सरकार की कड़वी कोक


 कोक का शोक
प्रदीप थलवाल

उत्तराखंड की जनता एक बार फिर सड़कों पर उतरने को बेताब है, जिन चार ‘ज’ (जल, जंगल, जमीन और जवान) को लेकर दो दशक पहले उत्तराख्ंाड का समूचा समाज आंदोलित हो गया था, उसी हक के मारे जाने को लेकर एक दफा फिर से प्रदेश का ग्रामीण परिवेश आवेश में है। इस बार लड़ाई लखनऊ में बैठी सरकार से नहीं बल्कि जंग देहरादून से शासित उस सरकार से है जो छद्म पहाड़ी का ढ़ोंग रच कर सूबे की मलाई कार्पोरेट के कारिंदों को पहुंचा रही है। 
इस बार आंदोलन का केंद्र बिन्दु पहाड़ी क्षेत्र में नहीं बल्कि राजधानी के छोर पर बसे विकसनगर तहसील का छरबा गांव है। जहां के जल, जंगल और जमीन को बहुराष्ट्रीय कंपनी के आहते में गिरवी रखने की पटकथा प्रदेश सरकार ने लिख डाली है। सुनियोजित तरीके से तैयार इस योजना को विगत 17 अप्रैल को उस वक्त अमलीजामा पहनाया गया जब सचिवालय के चैथे माले में कोका कोला कंपनी और राज्य सरकार के बीच एमओयू पर दस्तखत हुए। 
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक शीतल पेय बनाने वाली कोका कोला कंपनी प्रदेश में 600 करोड़ रूपये की लागत से अपना धंधा शुरू करेगी। गजब देखिए कि विकासनगर तहसील के अंतर्गत जिस जमीन पर कोका कोला अपना प्लांट लगायेगा, उसकी परिधि में ना सिर्फ ग्रामीणों का जंगल आ रहा है बल्कि शीतला नदी का बीच का हिस्सा भी प्लांट की भेंट चढ़ेगा। इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सूबे में पूंजी निवेश का ढिंढ़ोरा पीटने वाली बहुगुणा सरकार ने जो जमीन कोका कोला को आवंटित की, उसकी पैमाइश ना तो पहले सरकार ने की और ना ही इस बावत शासन-प्रशासन ने स्थानीय लोगों केा विश्वास में लेना उचित समझा। अलबत्ता कोक कंपनी के साथ सौदा बनने के बाद सरकार ने इलाके में जो पैमाइश करवाई उसके तहत ग्रामीणों का वह जंगल भी आ रहा है जिसे हरा-भरा करने में उनकी सालों की मेहनत लगी है। लगभग 68 एकड़ में फैले इस जंगल में दुर्लभ प्रजाति के खैर और शीशम के हजारों पेड़ तो हैं ही प्रवासी परिंदों का यह इलाका पनाहगाह भी है। सरकार का दुस्साहस देखिए कि इस क्षेत्र से बहने वाली शीतला नदी के बीच तक का हिस्सा सरकार कोक कंपनी को सौंपने जा रही है। परिस्थितिकी के बेजोड़ संतुलन वाले इस क्षेत्र को आखिर सरकार क्यों कोका कोला कंपनी को नीलाम करना चाहती है, यह सवाल सरकार की नीयत पर चारों ओर से उठ रहे हैं। 
राज्य सरकार यह सवाल उठने इस लिए भी लाजमी है क्योंकि इससे पहले सितारगंज स्थिति शक्ति फार्म और सैनिक फार्म की जमीन को खुर्द-बुर्द करने का आरोप सरकार पर लग चुका हैं। समाज से नाता रखने वालों से लेकर पर्यावरणविद्ों और स्थानीय जनता ने साफ कर दिया है कि वो कोका-कोला कंपनी को किसी भी कीमत पर प्रदेश में नहीं आने देंगे। नदी बचाओ अभियान से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि कोका कोला कंपनी प्रदेश का भला करने नहीं आ रही है बल्कि यह कंपनी मुनाफा कमाने आ रही है। उन्होंने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि प्रदेश में निकाय चुनाव हो रहे हैं और राज्य सरकार ऐसे वक्त निवेश करने में जुटी है। इतना ही नहीं उनका यह भी आरोप है कि राज्य सरकार ने                                                                                                                                 ग्र्राम पंचायत को भरोसे में लिये बिना उनकी जमीन कोका कोला को दे रही है। जबकि पंचायती राज एक्ट में साफ है कि ग्राम सभा या ग्राम पंचायत के अंतगर्त जमीन पर विकास कार्य करने के लिए एनओसी लेनी होती है, जो कि राज्य सरकार ने अभी तक नहीं ली। सरकार के इस फैसले से साबित होता है कि उसे ना तो आम जनता से लेना-देना है और ना ही उनकी बेशकीमती जमीन से। 
सरकार द्वारा कोका कोला को जमीन दिये जाने पर जहां ग्रामीण गुस्से में हैं वहीं पर्यावरणविद्ों ने भी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। पर्यावरणविद्ों का मानना है कोका कोला के प्लांट से ना सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा बल्कि इलाके में पानी का संकट भी मंडरायेगा। पर्यावरण के जानकारों का आरोप है कि कोका कोला पानी का लुटेरा है और देश में जहां भी कोक के प्लांट लगे हैं वहंा पानी की विकराल समस्या है। पर्यावरणविद् और नदी बचाओ अभियान से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि हिमालयी राज्यों में पानी अथाह है लेकिन पानी उनके काम नहीं आता। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह लोगों को निःशुल्क पानी उपलब्ध कराये लेकिन राज्य सरकार ऐसा ना कर कंपनियों को पानी पहुंचाने में ज्यादा मददगार बनी हुई है। सुरेश भाई आरोप लगाते हैं कि जहां भी कोका-कोला के प्लांट है उसने पानी का अंधाधुंध दोहन किया है जिससे वहां का वाटर लेवल तेजी से गिरा है। इसी स्थिति का सामना यहां के ग्रामीणों को भी करना पड़ेगा और उनकी सैकड़ों एकड़ में फैली कृषि भूमि पर खतरा मंडरायेगा। 
सरकार द्वारा डाकपत्थर बैराज से पानी दिये जाने के बयान पर सुरेश भाई का कहना है कि पानी राज्य की संपत्ति नहीं है, और ना ही राज्य सरकार इस पर कोई फैसला ले सकती है, सरकार कोका कोला को डाकपत्थर बैराज से पानी नहीं दे सकती। इसके लिए राज्य सरकार को हरियाणा, उत्तर प्रदेश सरकार से भी बातचीत करनी पड़ेगी। यह सरकार का विवादित फैसला है। 
यमुना में पानी नहीं है ऐसे में सरकार कहां से कोका-कोला को पानी उपलब्ध करायेगी। आंकड़े बताते हैं कि गर्मी के दिनों नदी में सिर्फ 10 फीसदी ही पानी रह जाता है। सुरेश भाई  बताते हैं कि ऐसी स्थिति में अगर सरकार कोका कोला को पानी की सप्लाई करती है तो फिर करोड़ों की लागत से बने ढकरानी, ढालीपुर और कुल्हाल विद्युत परियोजनाओं के लिए कहां से पानी लाया जायेगा। ऐसी दशा में यह तीनों परियोजनाएं ठप पड़ जायेगी जिससे प्रदेश में बिजली संकट गहरायेगा। 
कोका-कोला प्लांट का भारी विरोध करते हुए पर्यावरणविद्ों का कहना है कि सरकार को चाहिए कि उसे पहले प्रदेश में सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक अध्ययन करना चाहिए तब जाकर निवेशक को सूबे में निवेश करायें। लेकिन यहां तो सरकार बिना सर्वे किये अपनी मन-मर्जी से निवेश कराती है जिसका खामियाजा निर्दोष ग्रामीणों को उठाना पड़ता है। दूसरी ओर कोका-कोला प्लांट से भू-जल दूषित होने से भी पर्यावरणविद् चिंतित है उनका चिंता करना लाजमी है। क्योंकि जब प्लांट में शीतल पेय बनाया जायेगा तो उससे भारी मात्रा में रासायनिक तत्व भी निकलेंगे। जानकारों की माने तों इसमें सर्वाधिक कैडमियम और क्रोमियम जैसे जहरीले रसायन निकलेंगे जिससे कैंसर जैसी महामारी का खतरा बनेगा। इतना ही नहीं प्लांट से निकलने वाले अन्य रसायनों से कृषि भूमि भी जहरीली हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यह समूचा इलाका बंजर हो जायेगा। 
राज्य सरकार जिस बैराज से कोका कोला कंपनी को पानी देने की बात कर रही है दरअसल यह बैराज देश का पहला कंजर्वेशन रिजर्व है। जिसे केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर 2004 में नोटिफिकेशन भी जारी हो चुका है। इसके बाद भी अगर राज्य सरकार यहां से कोक कंपनी को पानी सप्लाई करने की बात कहती है तो इससे साफ होता है कि प्रदेश सरकार पर्यावरण के प्रति कितनी फिक्रमंद है। यह वह इलाका है जहंा साइवेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षी सबसे ज्यादा पहुंचते हैं। 4440.40 हेक्टेअर में फैले आसन बैराज में तकरीबन 250 से अधिक प्रजाति के विदेशी पंक्षी यहां आते हैं। पक्षी विशेषज्ञों का आंकलन है कि अगर यहां से कंपनी को पानी सप्लाई किया जाता है तो इससे पक्षियों का यह बसेरा उजड़ जायेगा।  
कोक कंपनी से उत्तराखंड सरकार ने एमओयू साइन कर दिया है, कोक के लिए सरकार ने पलकपावड़े बिछा तो दिये लेकिन यह उसकी गले की फंस भी बनता जा रहा है। छरबा में ग्रामीणों और पर्यावरणविद्ों का विरोध सरकार भले ही हल्के में ले रही हो लेकिन यह विरोध उसे महंगा भी पड़ सकता है। राज्य सरकार इस मुगालते में ना रहे कि सड़कों पर हकों के लिए आवाज बुलंद करने वाला सामाज सुस्त पड़ चुका है लेकिन जिस जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए इस प्रदेश की नींव रखी गई थी अगर उसी का हनन होने लगेगा तो निश्चित है समाज की चेतना सरकार की नींद हराम कर सकती है। लिहाजा कोक के शोक से सहमे समाज की बात गौर से सुनी जानी चाहिए।  

निकाय चुनावए तय करेगा बहुगुणा का भविष्य



भाजपा की साख भी दांव पर
प्रदीप थलवाल

उत्तराखंड में निकाय चुनाव का शंखनाद हो चुका हैए एक बार फिर प्रदेश की शहरी जनता भाग्यविधाता की भूमिका में है। लोकतंत्र के सियासी घाटों पर घातए प्रतिघात और भितरघात का खेल शुरू हो चुका है। टिकटों के बंटवारे को लेकर राजनीतिक पार्टियों में खेमेबंदी हो रही हैए कौनसा खेमा टिकट वितरण में हावी होगा कहना मुश्किल है क्योंकि दांव.पेंच आखिरी दौर तक अजमाये जायेंगे। प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के लिए निकाय चुनाव सबसे अहम होंगे इसकी असल वजह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का रास्त यहीं से तय होगा लिहाजा दोनों ही पार्टियों के लिए यह चुनाव किसी लिटमस टेस्ट से कमतर नहीं होगा।
ठीक एक साल पहले राज्य में विधानसभा चुनाव हुएए प्रदेश की जनता ने खंडित जनादेश देकर साबित कर दिया था कि उसे ना तो भाजपा से मोह है और ना कांग्रेस सेए खैर क्षेत्रीय और अन्य दलों को जनता ने सोचने को मजबूर कर दिया था। विधानसभा चुनाव में 32 सीट पाने वाली कांग्रेस सरकार बनाने में भले ही सफल रही लेकिन टिहरी संसदीय सीट पर हुए उप चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस के हौसले पस्त कर डाले। तो दूसरी ओर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से मात्र एक सीट से पिछड़ने वाली भाजपा सितारगंज उपचुनाव से हताश हुई लेकिन टिहरी के नतीजों ने बीजेपी को संभलने का मौका दिया। यानी गौर से अगर जाने और समझे तो दोनों पार्टियों की स्थिति कमोबेश एक सी है और निकाय चुनाव में जो भी पार्टी संगठित होकर मैदान में उतरेगी जीत का सेहरा उसी के सर पर सजेगा।
संगठित और अनुशासन की जहां तक बात की जायए दोनों ही मुख्य पार्टियों में इसका आभाव नजर आता है। पहले कांग्रेस की बात करें तो पार्टी के अंदर साल भर से कोहराम मचा हुआ हैए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा इस कोलाहल को समाप्त करने में नाकामयाब साबित हुए हैं। पार्टी के अंदर कई क्षत्रप लालबत्ती की लालसा पाले हुए हैंए जबकि सीएम लालबत्ती का वितरण करने से डरे हुए हैं उनका यह डर चुनावी नतीजों को लेकर है। लिहाजा विजय बहुगुणा अच्छे वक्त के इंतजार में हैंए लेकिन पार्टी के अंदर सब्र का बांध टूटता जा रहा है जिससे सरकार की भी किरकिरी हो रही है। पार्टी के अंदर मचे घमासान को देखते हुए बड़े नेता अपने हित साधने में जुटे हैंए यही वो नेता हैं जो  कार्यकताओं को अनुशासन की नसीहत देते हैं और खुद अनुशासन की गरिमा को लांघते हैं। जिससे बूथ लेवल पर काम करने वाला कार्यकर्ता अपने आप को उपेक्षित महसूस करता है। खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा मंचों से बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं के सम्मान की बात तो करते हैं लेकिन वह सालभर में कार्यकर्ताओं के बीच अपनी सीधी पहुंच नहीं बना पाये। जिससे कार्यकर्ताओं का उनके प्रति मोहभंग हो चुका है और इसका असर निकाय चुनाव में दिखाई पड़ेगा।
भाजपा का हाल भी यही हैए अपने आप को संगठित और अनुशासित कहने वाली भाजपा में भी अशांति के बादल घिरे हुए हैं। पार्टी के अंदर तीन गुट सीधे आमने.सामने हैं। इन तीनों गुटों का कार्यकर्ताओं पर अपना प्रभाव है। लेकिन एक.दूसरे के बीच वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा के चलते कार्यकर्ता हाशिए पर है। हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष चुनाव के दौरान पार्टी के अंदर उपजी नाराजगी सार्वजनिक होने से साफ हो चुका है कि कि भाजपा भी भाग्य भरोसे बैठी है। पार्टी में अंदरूनी गुटबाजी चरम पर होने से इसकी छाया निकाय चुनाव पर जरूर पड़ेगी।
उत्तराखंड में होने जा रहे निकाय चुनाव में भाजपा और कांग्रेस ही दो मुख्य पार्टियां है लेकिन दोनों के हालत एक.दूसरे से जुदा नहीं है। इन हालातों को दोनों पार्टियों के सर्वेसर्वा बखूबी जानते भी है और समझते भी है। इस कारणवश कांग्रेस निकाय चुनाव को पीछे सरकाना चाहती थी लेकिन वह अपने मनसूबे में सफल नहीं हो पायी। अदालत की चैखट पर पहंुचे इस मामले से सरकार की फजीहत तो हुई लेकिन निकाय चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस ने आरक्षण का हथियार अपने मन मुताबिक इस्तेमाल किया लेकिन यहां भी उसे पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। दरअसल इस पूरे प्रकरण में मुख्यमंत्री के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह खड़े किया जा रहे हैंए नाराज कार्यकर्ताओं का कहना है कि सीएम अपने चाण.बाणों की कठपुतली बने हुए हैं। जो फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
सरकार द्वारा अपनाये गये आरक्षण के फार्मूले से कांग्रेस के अंदर भारी नाराजगी देखी जा रही है जबकि भाजपा का कहना है कि कांग्रेस ने जो हथकंडा अपनाया उससे उसे नुकसान ही होगा फायदा नहीं। अदालत की फटकार के बाद सरकार ने निकायों का जो आरक्षण तय किया उससे कांग्रेस सरकार पर सवाल उठने लगे हैं सबसे पहले सरकार ने 2001 की जनगणना के आधार पर आरक्षण क्यों तय किया जबकि सरकार को चाहिए था कि वो 2011 की जनगणना के मुताबिक आरक्षण निर्धारित करे। नई जनगणना के आधार पर कई सीटें आरक्षण से बाहर होनी थी अन्य सीटों को आरक्षण मिलना था लेकिन सरकार ने अपने चहेतों की खातिर 2001 की जनगणना को आरक्षण का आधार बनाया। गढ़वाल और कुमाऊं दोनों मंडलों में नगर पालिका की 14.14 सीटें हैं। सरकार की करामात देखिए कि कुमाऊं की 14 में से 10 सीट आरक्षित कर डाली और 4 सामान्य रखी जबकि इसके उलट गढ़वाल की 14 में 4 सीटों पर आरक्षण तय किया और 10 सामान्य रखी। गौर करने वाली बात यह है कि पिछली सरकार ने विगत निकाय चुनाव में दोनों मंडलों की आठ.आठ सीटें सामान्य थी।
उदाहरण के तौर पर अगर टिहरी नगर पालिका को देखें तो यह सीट कई सालों से सामान्य रही है। जबकि इस बार यह सीट आरक्षण के दायरे में थी लेकिन अपने चहेते को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों को तक पर रखा गया। ऐसा ही खेल अन्य सीटों पर खेला गया। जिसमें मसूरीए श्रीनगर जैसी पालिकाएं भी हैं। आखिरकार सरकार ने आरक्षण में जो मनमानी की है उसे जनता भी समझ रही हैए जिस जीत के लिए बहुगुणा एंड कंपनी ने आरक्षण में जो खेल खेला वह कितना असर कारक होगा यह तो अभी भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन इतना तो साफ हो चुका है कि आरक्षण के विरोध में प्रदेश में माहौल बन रहा है जोकि कांग्रेस के लिए घातक साबित होगा। सरकार का कहना है कि निकायों का आरक्षण निमयमावली के तहत हुआ है जबकि विपक्ष का कहना है कि आरक्षण में एकरूपता नहीं है और आरक्षण में जमकर खेल हुआ है।
निकाय चुनाव को लेकर प्रदेश के पूरे परिदृश्य को देखें तो जनता सरकार की चालबाजियां भी जानती है और विपक्ष की खामोशी को भी भली.भांति समझ रही है। जनता यह भी जानती है कि निकाय चुनाव दोनों मुख्य पार्टी भाजपा और कांग्रेस के लिए अहम है लिहाजा वह भी अपने फैसले से एक बार फिर राजनीति के चाणक्यों को चैंकाना चाहेगी। ताकि हालात राजनीतिक पार्टियों के बजाय आम जनता के पक्ष में हो। इस बात को ना तो सत्ताधारी दल समझ रहा है और ना ही विपक्ष। जबकि अन्य दल सिर्फ चुनावी पम्पलेटों तक सिमटने की हैसियत रखते हैं।
खैरए निकाय चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस के अंदर एक.दूसरे को पटकनी देने की होड़ सी लगी हुई हैए लेकिन सत्तासीन कांग्रेस जिस प्रकार फैसले ले रही वह उसे नुकसान पहुंचाने में सहयक साबित होंगे। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के आंखों में इस वक्त सिर्फ जीत के ख्वाबों में गोते लगा रहे हैं उन्हें यह नहीं मालूम कि ख्वाब हमेशा अधूरे रह जाते हैं खासकर कि तब जब विपक्ष अपनी तैयारियों के साथ चुनावी रण में उतर रहा है और वह सिर्फ सपनीली नारंगी सेनाओं को लेकर जंग जीतने का सपना बुन रहे हैं। लिहाजा उन्हें भी समझना होगा कि आरक्षण के बंटवारे से जो विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं उससे सबक लिया जाय और चुनावी मैदान में जिताऊ प्रत्याशी उतारा जाय ना कि सिफारिशी सिपाही पर दांव खेला जाय। वरना आगमी लोक सभा चुनाव भी सर पर खड़ा है और इसी निकाय चुनाव से लोक सभा चुनाव का रास्ता निकलता है लिहाजा बहुगुणा के लिए यह चुनाव लिटमस टेस्ट सरीखा हैए जिससे पार पाना विजय के लिए चुनौति है।


(यह लेख विज़न 2020 पत्रिका में प्रकाशित)