भाजपा की साख भी दांव पर
प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड में निकाय चुनाव का शंखनाद हो चुका हैए एक बार फिर प्रदेश की शहरी जनता भाग्यविधाता की भूमिका में है। लोकतंत्र के सियासी घाटों पर घातए प्रतिघात और भितरघात का खेल शुरू हो चुका है। टिकटों के बंटवारे को लेकर राजनीतिक पार्टियों में खेमेबंदी हो रही हैए कौनसा खेमा टिकट वितरण में हावी होगा कहना मुश्किल है क्योंकि दांव.पेंच आखिरी दौर तक अजमाये जायेंगे। प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के लिए निकाय चुनाव सबसे अहम होंगे इसकी असल वजह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का रास्त यहीं से तय होगा लिहाजा दोनों ही पार्टियों के लिए यह चुनाव किसी लिटमस टेस्ट से कमतर नहीं होगा।
ठीक एक साल पहले राज्य में विधानसभा चुनाव हुएए प्रदेश की जनता ने खंडित जनादेश देकर साबित कर दिया था कि उसे ना तो भाजपा से मोह है और ना कांग्रेस सेए खैर क्षेत्रीय और अन्य दलों को जनता ने सोचने को मजबूर कर दिया था। विधानसभा चुनाव में 32 सीट पाने वाली कांग्रेस सरकार बनाने में भले ही सफल रही लेकिन टिहरी संसदीय सीट पर हुए उप चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस के हौसले पस्त कर डाले। तो दूसरी ओर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से मात्र एक सीट से पिछड़ने वाली भाजपा सितारगंज उपचुनाव से हताश हुई लेकिन टिहरी के नतीजों ने बीजेपी को संभलने का मौका दिया। यानी गौर से अगर जाने और समझे तो दोनों पार्टियों की स्थिति कमोबेश एक सी है और निकाय चुनाव में जो भी पार्टी संगठित होकर मैदान में उतरेगी जीत का सेहरा उसी के सर पर सजेगा।
संगठित और अनुशासन की जहां तक बात की जायए दोनों ही मुख्य पार्टियों में इसका आभाव नजर आता है। पहले कांग्रेस की बात करें तो पार्टी के अंदर साल भर से कोहराम मचा हुआ हैए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा इस कोलाहल को समाप्त करने में नाकामयाब साबित हुए हैं। पार्टी के अंदर कई क्षत्रप लालबत्ती की लालसा पाले हुए हैंए जबकि सीएम लालबत्ती का वितरण करने से डरे हुए हैं उनका यह डर चुनावी नतीजों को लेकर है। लिहाजा विजय बहुगुणा अच्छे वक्त के इंतजार में हैंए लेकिन पार्टी के अंदर सब्र का बांध टूटता जा रहा है जिससे सरकार की भी किरकिरी हो रही है। पार्टी के अंदर मचे घमासान को देखते हुए बड़े नेता अपने हित साधने में जुटे हैंए यही वो नेता हैं जो कार्यकताओं को अनुशासन की नसीहत देते हैं और खुद अनुशासन की गरिमा को लांघते हैं। जिससे बूथ लेवल पर काम करने वाला कार्यकर्ता अपने आप को उपेक्षित महसूस करता है। खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा मंचों से बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं के सम्मान की बात तो करते हैं लेकिन वह सालभर में कार्यकर्ताओं के बीच अपनी सीधी पहुंच नहीं बना पाये। जिससे कार्यकर्ताओं का उनके प्रति मोहभंग हो चुका है और इसका असर निकाय चुनाव में दिखाई पड़ेगा।
भाजपा का हाल भी यही हैए अपने आप को संगठित और अनुशासित कहने वाली भाजपा में भी अशांति के बादल घिरे हुए हैं। पार्टी के अंदर तीन गुट सीधे आमने.सामने हैं। इन तीनों गुटों का कार्यकर्ताओं पर अपना प्रभाव है। लेकिन एक.दूसरे के बीच वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा के चलते कार्यकर्ता हाशिए पर है। हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष चुनाव के दौरान पार्टी के अंदर उपजी नाराजगी सार्वजनिक होने से साफ हो चुका है कि कि भाजपा भी भाग्य भरोसे बैठी है। पार्टी में अंदरूनी गुटबाजी चरम पर होने से इसकी छाया निकाय चुनाव पर जरूर पड़ेगी।
उत्तराखंड में होने जा रहे निकाय चुनाव में भाजपा और कांग्रेस ही दो मुख्य पार्टियां है लेकिन दोनों के हालत एक.दूसरे से जुदा नहीं है। इन हालातों को दोनों पार्टियों के सर्वेसर्वा बखूबी जानते भी है और समझते भी है। इस कारणवश कांग्रेस निकाय चुनाव को पीछे सरकाना चाहती थी लेकिन वह अपने मनसूबे में सफल नहीं हो पायी। अदालत की चैखट पर पहंुचे इस मामले से सरकार की फजीहत तो हुई लेकिन निकाय चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस ने आरक्षण का हथियार अपने मन मुताबिक इस्तेमाल किया लेकिन यहां भी उसे पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। दरअसल इस पूरे प्रकरण में मुख्यमंत्री के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह खड़े किया जा रहे हैंए नाराज कार्यकर्ताओं का कहना है कि सीएम अपने चाण.बाणों की कठपुतली बने हुए हैं। जो फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
सरकार द्वारा अपनाये गये आरक्षण के फार्मूले से कांग्रेस के अंदर भारी नाराजगी देखी जा रही है जबकि भाजपा का कहना है कि कांग्रेस ने जो हथकंडा अपनाया उससे उसे नुकसान ही होगा फायदा नहीं। अदालत की फटकार के बाद सरकार ने निकायों का जो आरक्षण तय किया उससे कांग्रेस सरकार पर सवाल उठने लगे हैं सबसे पहले सरकार ने 2001 की जनगणना के आधार पर आरक्षण क्यों तय किया जबकि सरकार को चाहिए था कि वो 2011 की जनगणना के मुताबिक आरक्षण निर्धारित करे। नई जनगणना के आधार पर कई सीटें आरक्षण से बाहर होनी थी अन्य सीटों को आरक्षण मिलना था लेकिन सरकार ने अपने चहेतों की खातिर 2001 की जनगणना को आरक्षण का आधार बनाया। गढ़वाल और कुमाऊं दोनों मंडलों में नगर पालिका की 14.14 सीटें हैं। सरकार की करामात देखिए कि कुमाऊं की 14 में से 10 सीट आरक्षित कर डाली और 4 सामान्य रखी जबकि इसके उलट गढ़वाल की 14 में 4 सीटों पर आरक्षण तय किया और 10 सामान्य रखी। गौर करने वाली बात यह है कि पिछली सरकार ने विगत निकाय चुनाव में दोनों मंडलों की आठ.आठ सीटें सामान्य थी।
उदाहरण के तौर पर अगर टिहरी नगर पालिका को देखें तो यह सीट कई सालों से सामान्य रही है। जबकि इस बार यह सीट आरक्षण के दायरे में थी लेकिन अपने चहेते को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों को तक पर रखा गया। ऐसा ही खेल अन्य सीटों पर खेला गया। जिसमें मसूरीए श्रीनगर जैसी पालिकाएं भी हैं। आखिरकार सरकार ने आरक्षण में जो मनमानी की है उसे जनता भी समझ रही हैए जिस जीत के लिए बहुगुणा एंड कंपनी ने आरक्षण में जो खेल खेला वह कितना असर कारक होगा यह तो अभी भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन इतना तो साफ हो चुका है कि आरक्षण के विरोध में प्रदेश में माहौल बन रहा है जोकि कांग्रेस के लिए घातक साबित होगा। सरकार का कहना है कि निकायों का आरक्षण निमयमावली के तहत हुआ है जबकि विपक्ष का कहना है कि आरक्षण में एकरूपता नहीं है और आरक्षण में जमकर खेल हुआ है।
निकाय चुनाव को लेकर प्रदेश के पूरे परिदृश्य को देखें तो जनता सरकार की चालबाजियां भी जानती है और विपक्ष की खामोशी को भी भली.भांति समझ रही है। जनता यह भी जानती है कि निकाय चुनाव दोनों मुख्य पार्टी भाजपा और कांग्रेस के लिए अहम है लिहाजा वह भी अपने फैसले से एक बार फिर राजनीति के चाणक्यों को चैंकाना चाहेगी। ताकि हालात राजनीतिक पार्टियों के बजाय आम जनता के पक्ष में हो। इस बात को ना तो सत्ताधारी दल समझ रहा है और ना ही विपक्ष। जबकि अन्य दल सिर्फ चुनावी पम्पलेटों तक सिमटने की हैसियत रखते हैं।
खैरए निकाय चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस के अंदर एक.दूसरे को पटकनी देने की होड़ सी लगी हुई हैए लेकिन सत्तासीन कांग्रेस जिस प्रकार फैसले ले रही वह उसे नुकसान पहुंचाने में सहयक साबित होंगे। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के आंखों में इस वक्त सिर्फ जीत के ख्वाबों में गोते लगा रहे हैं उन्हें यह नहीं मालूम कि ख्वाब हमेशा अधूरे रह जाते हैं खासकर कि तब जब विपक्ष अपनी तैयारियों के साथ चुनावी रण में उतर रहा है और वह सिर्फ सपनीली नारंगी सेनाओं को लेकर जंग जीतने का सपना बुन रहे हैं। लिहाजा उन्हें भी समझना होगा कि आरक्षण के बंटवारे से जो विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं उससे सबक लिया जाय और चुनावी मैदान में जिताऊ प्रत्याशी उतारा जाय ना कि सिफारिशी सिपाही पर दांव खेला जाय। वरना आगमी लोक सभा चुनाव भी सर पर खड़ा है और इसी निकाय चुनाव से लोक सभा चुनाव का रास्ता निकलता है लिहाजा बहुगुणा के लिए यह चुनाव लिटमस टेस्ट सरीखा हैए जिससे पार पाना विजय के लिए चुनौति है।
(यह लेख विज़न 2020 पत्रिका में प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment