उत्तराखंड का जिक्र आते ही मनोमस्तिष्क में एक पहाडी राज्य का खाका खींच जाता है। ऐसा राज्य जिसे कुदरत ने अपार सुंदरता दी, ऐसा राज्य जो नदियों के संगीत से हर रोज नहाता है। ऐसा राज्य जहां लोगों के चेहरों पर मसूमियत झलकती है। ऐसा राज्य जिसके अंदर देश भक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा है और देश के स्वाभिमान के लिए जिस प्रदेश के युवाओं ने अपनी जान की बाजी लगाई हो। वहीं काले-कूलेटे और नंग-धडंग पहाड़ों वाला प्रदेश अपने बाल्यकाल के बारह साल पूरा कर चुका है। लेकिन जिस मुकाम पर आज ये पहाड़ी प्रदेश है, वहां से राज्य बनने का बुनियादी मकसद गायब नजर आता है। यहां के लोग ऐसे पहाड़ी राज्य के लिए नहीं लड़े थे बल्कि पहाड़ी लोगों की नियति बदलने और मैदानी चश्मे से देखे जाने वाली सरकारी नीति के खिलाफ आंदोलन लड़ा गया था। लेकिन बिडंबना देखिए कि राज्य गठन के बारह साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ उलटे इस प्रदेश में राज करने वाली राजनीतिक पार्टियों का फोकस पहाड़ के बजाय देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर पर रहा। विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाएं इन्हीं तीनों जनपदों में सिमट कर रह गई। पहाड़ से पलायन नहीं थम रहा है। बल्कि राज्य बनने के बाद पहाड़ से लोगों के पलायन करने का ग्राफ ज्यादा बढ़ा। हालत ये हैं कि कई गांव जन-विहीन हो चुके हैं। लेकिन किसी भी सरकार ने पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई। टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक में सबसे ज्यादा पलायन हुआ, इतना पलायन शायद ही आजाद भारत में कहीं हुआ हो, इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हुए पलायन के बावजूद भी राज्य सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रदेश के सीमान्त गांवों हो रहा पलायन भारी खतरे की ओर इशारा कर रहा है। प्रदेश की सीमाएं चीन और नेपाल से लगी होनेे से सीमावर्ती क्षेत्रों से पलायन सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है। पहाड़ी इलाकों और सीमावार्ती क्षेत्रों से हो रहा पलायन इंगित करता है कि हमारी सरकारों आर्थिक वहज पैदा करने में अक्षम रही है। जिससे पहाड़ का आदमी अपने गांव या कस्बे से पलायन करने को मजबूर है। पहाड़ों का विकास करने का दावा करने वाली यहां की अब तक की सरकारों ने प्रदेश के पहाड़ों को जोड़ने के लिए कोई काम नहीं किया। सूबे में सभी राष्ट्रीय राजमार्ग यूपी के जामने के हैं और से राजमार्ग मैदान को पहाड़ से जोड़ते है ना कि पहाड़ को पहाड़ से। आज तक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा कि वो पहाड़ी जिलों को आपास में जोड़े। सरकार के उदासीन रवैये से साफ होता है कि पहाड़ी राज्य की चिंता किसी को नहीं है। कोई पहाड़ के विकास के बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाता। जब तक सोच दिल्ली की रहेगी। तब तक इस राज्य में कुछ भी नहीं हो पायेगा। कृषि, बागवानी, पर्यटन के मामले में हम एक कदम आगे भी नहीं बढ़ पाये। सरकारें दावे तो खूब करती है कि लेकिन उस पर अमल कभी भी नहीं करती। सूबे की समूची नौकरशाही मैदानी सोच की है, सचिवालय में काम के नाम पर फाइले इधर-उधर जरूर होती है लेकिन बुनियादी चीजों पर कोई भी नौकरशाह फैसले नहीं लेता। राज्य के प्रति सोच रखने वाले चिंतक, विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और समाजिक कार्यकर्ताओं को कोई पूछता नहीं है। उनसे विकास योजनाओं को लेकर कोई राय ही नहीं लेता। शायद ये इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जो इस प्रदेश की विकास योजना तय कर रहे हैं उन्हें यहां के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भूगोल की समझ ही नहीं है। ऐसे में आप कैसे पहाड़ के विकास की सोच सकते हैं। जब नेता अनुभव हीन हो और नौकरशाह अपने सहूलियत के हिसाब से योजनाएं तय कर रहे हो तो इस राज्य का भविष्य क्या होगा, और आप समझ सकते हैं कि इस प्रदेश का बुनियादी मकसद क्यों खत्म होते जा रहे हैं।
Friday, November 23, 2012
खात्मे की ओर पहाड़ी राज्य का बुनियादी मकसद
उत्तराखंड का जिक्र आते ही मनोमस्तिष्क में एक पहाडी राज्य का खाका खींच जाता है। ऐसा राज्य जिसे कुदरत ने अपार सुंदरता दी, ऐसा राज्य जो नदियों के संगीत से हर रोज नहाता है। ऐसा राज्य जहां लोगों के चेहरों पर मसूमियत झलकती है। ऐसा राज्य जिसके अंदर देश भक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा है और देश के स्वाभिमान के लिए जिस प्रदेश के युवाओं ने अपनी जान की बाजी लगाई हो। वहीं काले-कूलेटे और नंग-धडंग पहाड़ों वाला प्रदेश अपने बाल्यकाल के बारह साल पूरा कर चुका है। लेकिन जिस मुकाम पर आज ये पहाड़ी प्रदेश है, वहां से राज्य बनने का बुनियादी मकसद गायब नजर आता है। यहां के लोग ऐसे पहाड़ी राज्य के लिए नहीं लड़े थे बल्कि पहाड़ी लोगों की नियति बदलने और मैदानी चश्मे से देखे जाने वाली सरकारी नीति के खिलाफ आंदोलन लड़ा गया था। लेकिन बिडंबना देखिए कि राज्य गठन के बारह साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ उलटे इस प्रदेश में राज करने वाली राजनीतिक पार्टियों का फोकस पहाड़ के बजाय देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर पर रहा। विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाएं इन्हीं तीनों जनपदों में सिमट कर रह गई। पहाड़ से पलायन नहीं थम रहा है। बल्कि राज्य बनने के बाद पहाड़ से लोगों के पलायन करने का ग्राफ ज्यादा बढ़ा। हालत ये हैं कि कई गांव जन-विहीन हो चुके हैं। लेकिन किसी भी सरकार ने पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई। टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक में सबसे ज्यादा पलायन हुआ, इतना पलायन शायद ही आजाद भारत में कहीं हुआ हो, इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हुए पलायन के बावजूद भी राज्य सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रदेश के सीमान्त गांवों हो रहा पलायन भारी खतरे की ओर इशारा कर रहा है। प्रदेश की सीमाएं चीन और नेपाल से लगी होनेे से सीमावर्ती क्षेत्रों से पलायन सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है। पहाड़ी इलाकों और सीमावार्ती क्षेत्रों से हो रहा पलायन इंगित करता है कि हमारी सरकारों आर्थिक वहज पैदा करने में अक्षम रही है। जिससे पहाड़ का आदमी अपने गांव या कस्बे से पलायन करने को मजबूर है। पहाड़ों का विकास करने का दावा करने वाली यहां की अब तक की सरकारों ने प्रदेश के पहाड़ों को जोड़ने के लिए कोई काम नहीं किया। सूबे में सभी राष्ट्रीय राजमार्ग यूपी के जामने के हैं और से राजमार्ग मैदान को पहाड़ से जोड़ते है ना कि पहाड़ को पहाड़ से। आज तक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा कि वो पहाड़ी जिलों को आपास में जोड़े। सरकार के उदासीन रवैये से साफ होता है कि पहाड़ी राज्य की चिंता किसी को नहीं है। कोई पहाड़ के विकास के बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाता। जब तक सोच दिल्ली की रहेगी। तब तक इस राज्य में कुछ भी नहीं हो पायेगा। कृषि, बागवानी, पर्यटन के मामले में हम एक कदम आगे भी नहीं बढ़ पाये। सरकारें दावे तो खूब करती है कि लेकिन उस पर अमल कभी भी नहीं करती। सूबे की समूची नौकरशाही मैदानी सोच की है, सचिवालय में काम के नाम पर फाइले इधर-उधर जरूर होती है लेकिन बुनियादी चीजों पर कोई भी नौकरशाह फैसले नहीं लेता। राज्य के प्रति सोच रखने वाले चिंतक, विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और समाजिक कार्यकर्ताओं को कोई पूछता नहीं है। उनसे विकास योजनाओं को लेकर कोई राय ही नहीं लेता। शायद ये इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जो इस प्रदेश की विकास योजना तय कर रहे हैं उन्हें यहां के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भूगोल की समझ ही नहीं है। ऐसे में आप कैसे पहाड़ के विकास की सोच सकते हैं। जब नेता अनुभव हीन हो और नौकरशाह अपने सहूलियत के हिसाब से योजनाएं तय कर रहे हो तो इस राज्य का भविष्य क्या होगा, और आप समझ सकते हैं कि इस प्रदेश का बुनियादी मकसद क्यों खत्म होते जा रहे हैं।
उत्तराखंड को एक नए जनांदोलन की दरकार
9 नवंबर 2000, ये वो दिन था जिस दिन, उत्तराखंड के आसमान में उम्मीदों की पतंग तैर रही थी, रंग-बिरंगे सपनों से सजी ये पतंग आसमान की ऊंचाई को भेद रही थी। उत्तराखंड का समाज नए राज्य मिलने से इतना खुश था कि राज्य के प्रति उसकी उम्मीदों का ग्राफ भी दोगुना हो चला था। राज्य गठन की खबर पहाड़ों में रोडियो के माध्यम से सुनी गई थी, तो अगले दिन अपने उत्तराखंड का आकार और प्रकार अखबारों की चौखट के भीतर छपा हुआ पाया।
नए राज्य की अकुलाहट से समूचा उत्तराखंड नए उत्साह से लैस था। बच्चे, बूढ़ों से लेकर महिलाएं नए उत्तराखंड की कल्पानाओं का खाका आपस में बुन रही थी। युवाओं के सपनों का उत्तराखंड बेरोजगार मुक्त प्रदेश था, यही वजह थी कि उनके जेहन में कैद शिक्षित और सभ्य समाज बनने का सपना हिलोरे मार रहा था। पलायन की पीड़ा की मार झेल रहे गांव में नई रौनक और युवाओं की चहल-पहल का इंतजार बूढ़ी और धुंधली पड़ रही नजरांें ने करना शुरू कर दिया था।
प्रदेश की महिलाओं ने जिस उत्तराखंड के लिए लड़ाई लड़ी थी, आज वो भी अपने सपनों को पूरा होता देख रही थी, काम के बोझ से भी वो मुक्त होना चाहती थी, वो भी अपने समाज में हाशिये पर नहीं बल्कि मुख्यधारा में शामिल होना चाहती थी। उत्तराखंड के विकास के लिए उनके अंदर जो छटपटाहट थी, उसके साकार होने की उम्मीद नजर आने लगी थी।
लेकिन अफसोस कि नियति को शायद ये कभी मंजूर नहीं था, और ना ही उन लोगों ने राज्य के प्रति कोई ठोस सकारात्मक पहल की जो इस प्रदेश के भाग्य-विधाता बनाये गये। इस प्रदेश की किस्मत का फैसला तो उसी दिन तय हो चुका था, जब सूबे की अंतरिम सरकार और इस मुल्क के पहले मुखिया ने प्रदेश का पहला शासनादेश निकाला। इस शासनादेश में राज्य की जो नींव रखी गई, उससे इस प्रदेश की अवधारणा ही खत्म होती है। जबकि इसके उलट छत्तीसगढ़ ने अपने पहले शासनादेश में अपने मूल निवासियों की पैरवी की।
इसे बिडंबना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे कि वहां भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और यहां भी, लेकिन यहां के राजनेताओं ने जो शासनादेश जारी किया उसे पहाड़ी बुद्धिजीवी, चिंतक, सम्मान पा चुके आंदोलनकारी और गुमनामी के अंधेरे में खो चुका आंदोलनकारी तबका अंतरिम सरकार की अपरिपक्वता मानता है और राज्य में एक नए जनांदोलन की गुंजाइश देख रहा है।
इस माटी के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी प्रदेश की हालत को देखकर उदास हैं। उनकी उदासी से साफ झलकता है कि सपनों का प्रदेश अभी कोसों दूर है। नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि बारह साल किसी प्रदेश के लिए कम नहीं हेाता है। लेकिन बारह साल के सफर में जो तकलीफ जनता महसूस कर रही है, उससे उसके अंदर आक्रोश गहराता जा रहा है। जनता में पनप रहा असंतोष एक दिन जरूर जनांदोलन का रूप लेगा। हम अंधेरे में रहें ऐसा नहीं हो सकता। बारह साल का सफर बता रहा है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं। अगर हममें राज करने की सामर्थ्य नहीं है तो हमें गुलाम बना दिया जाय।
नेगी कहते हैं कि इतिहास हमेशा गवाह रहा है कि बिना छीने-झपटे अपना हक नहीं लिया जा सकता। लिहाजा उत्तराखंड में भी एक बडे़ जनांदोलन की खदबदाहट अभी से सुनाई देने लगी है। उत्तराखंड के भाग्य में तो हमेशा आंदोलन ही लिखा है, यहां हर छोटी-बड़ी मांग के लिए लोगों को अपने घर की दहलील लांघनी पड़ी, तब जाकर लोगों ने अपना हक पाया है। प्रदेश की वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए एक नए आंदोलन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसे में सरकार के नुमाइंदांे को भी अपनी सोच बदली होगी, स्थानीय लोगों की भावना का ख्याल रखना होगा। अगर नीति नियंताआंे ने प्रदेश के प्रति अपनी सोच नहीं बदली तो जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।
उत्तराखंड के बारे में जनकवि अतुल शर्मा कहते हैं कि बारह साल बाद मैं इस राज्य में एक और जनांदोलन की गुंजाइश देखता हूं। यहां सत्ता बदलती है, लेकिन व्यवस्था नहीं। 12 साल के दौरान महिलाओं की पीठ का बोझ कम नहीं हुआ। इस राज्य अब तक की सरकारें कोई ठोस नीति नहीं बना पायी। राज्य तो मिला लेकिन सपने आज भी सपने रह गये। इस पृथक राज्य की अवधारणा पांच ‘प’ को लेकर थी। पानी, पलायन, पर्यटन, पर्यावरण और पहचान। इन पांचों ‘प’ को लेकर पिछले बारह साल में क्या हुआ आप देख सकते हैं। व्यवस्था की नीति और नियत साफ न होना इसका कारण है। जो तकलीफ में है उनसे मिलकर नीतियां नहीं बन रही है। अभी गांव व्यवस्था की पकड़ से दूर हैं। इसीलिए ग्राम स्तर से व्यवस्था के खिलाफ जनाक्रोश भड़क रहा है। एक सुबह जरूरी आयेगी जब युवा समझेगा कि उसके हक-हकूकों पर डाका डाला जा रहा है। वो निश्चित विद्रोह करेगा, वो उठ खड़ा होगा अपने हक की खातिर और उसी दिन इस प्रदेश में एक दूसरे जनांदोलन का सूत्रपात होगा। तुम याद रखना-
एक दिन नई सुबह उगेगी यहां देखना, दर्द भरी रात भी कटेगी यहां देखना
चौराहे पर उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें
उत्तराखंड की आने वाली पीढ़ी जब इतिहास के पन्नों को पलटेगी, तो उन्हें शायद ही यकीन नहीं होगा कि, उत्तराखंड एक जनांदोलन की कोख से पैदा हुआ राज्य है। ऐसा आंदोलन आजाद भारत के इतिहास में शायद ही कभी हुआ होगा, जिसका अपना कोई ना नेता था और ना ही नेतृत्व। इस जनांदोलन में हर कोई शामिल था और हर किसी का एक ही मकसद था ‘अपना राज्य हो, अपना राज हो’। यही वजह थी कि सपनों के प्रदेश को साकार करने के लिए इस आंदोलन में लुका-छिपी का खेल खेलने वाले बच्चे थे, तो कांपती हुई काया में जवानी का जोश लिए बुजुर्ग, घर-आंगन की जिम्मेदारी संभालने वाली महिलाएं थी, तो नौकरी की खातिर अपने समाज से दूर परदेश गया युवा, यहां तक की सरकार के मुलाजिम होने के बाद भी पहाड़ के सैकड़ों बेटों ने अपने फौलादी हौंसला दिखाकर नौकरी की परवाह किये बिना आंदोलन में शामिल हुए और पहाड़ की आवाज को बुलंद किया। माटी का मान और अपनों के सम्मान के लिए भड़की एक चिंगारी ने कब जनांदोलन का रूप लिया किसी को भी पता नहीं चला।
ये वो दौर था, जब दुनियां नई सदी की शुरूआत में नई संभावनएं तलाशने में व्यस्त थी, लेकिन तब उत्तराखंड का पहाड़ी समाज अपने हक-हकूकों के लिए छटपटा रहा था, और यही छटपटाहट उत्तराखंड राज्य आंदोलन की क्रांति का बीज साबित हुआ। जल, जंगल, जमीन और जवान के बुनियाद मुद्दे को लेकर लड़े गये इस आंदोलन का नेतृत्व किसी एक के हाथ में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद भी राज्य अंादोलन के नाम पर अपने घरों तक सीमित लोगों ने मुंडेरों को लांघ कर सड़कों पर आवाज बुलंद की। तब धार से लेकर गाड़, गली-मोहल्लों और सड़कों से लेकर सर्पीली पगडंडियों हर जगह आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो जैसे नारे सुनाई पड़ते थे। गजब देखिए कि राज्य आंदोलन के दौरान कई संगठनों ने जरूर भागदारी निभाई, जिनकी एक ही आवाज पर लोग अपना काम छोड़ आंदोलन में शामिल होते थे, लेकिन अफसोस कि आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें चौराहे पर खड़ी है। जबकि राज्य की मौजूदा हालात में उन ताकतों को एक ही मंच पर खड़ा न होने की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। हालात ये हैं कि जिन मुट्ठियों ने राज्य के सरोकारों के लिए एक जुट होकर हवा में लहराना था आज वो बिखरी हुई उंगलियां बन गई हैं। उत्तराखंड आंदोलन की ये ताकतें बैचेन हैं, उन्हें अफसोस है कि कभी अलग राज्य को लेकर वो एक आवाज पर एकजुट हो जाया करती थी लेकिन आज मूल मुद्दों से भटक जाने की बेचैनी उन्हें सताये जा रही है।
राज्य गठन के बाद उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें बिखरी पड़ी हैं। राज्य आंदोलन में भागीदार संगठनों और पर्टियों के इस बिखराव का कारण कुछ संगठनों का मकसद सिर्फ उत्तराखंड राज्य का निर्माण था, राज्य मिला और उनका उत्तरदायित्व खत्म हो गया। लेकिन जिस राज्य के स्वरूप की कल्पना की गई थी जिसके लिए लड़ाई लड़ी गई थी, वह सपना आज भी अधूरा है। जो आज तक स्थाई राजधानी का चयन नहीं कर पाये, वो इस प्रदेश का क्या विकास करेंगे। लिहाजा आंदोलन की ताकतों को एकजुट होना चाहिए।
- कमला पंत, अध्यक्ष, उत्तराखंड महिला मंच
निजी स्वार्थ और नफा-नुकसान की सोच की वहज से आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतों चौराहे पर है। जिसकी वहज से उन लोगों ने फायदा उठाया जो राज्य आंादोलन के धुर विरोधी थे। राज्य तो बना लेकिन राज्य आंदोलनकारियों का क्या मिला। जिन लोगों को कुर्सी मिली, उन्होंने अपने पीछे के उन लोगों को भुला डाला जो नमक-रोटी खा कर आंदोलन में साथ खड़े थे। जिससे आंदोलनकारियों को गहरी चोट पहुंची है।
- सुशीला ध्यानी, अध्यक्ष, कौशल्या डबराल वाहिनी
उत्तराखंड आंदोलन दो विचारधाराओं ने लड़ा। एक विचारधारा वो थी जो आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो वाले थे, दूसरी विचारधारा के लोग वो थे जो राज्य कैसे चलेगा, कैसी नीति होगी को लेकर आंदोलन लड़ रहे थे। क्योंकि यहां के लोगों ने नए उत्तराखंड से नये भारत के निर्माण का सपना बुना था। उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें कमजोर पड़ी है। राजनेताओं ने जैसे चाहा अपना फायदा उठाया कोई बोलने वाला नहीं है, ऐसे में प्रदेश में सामाजिक, राजनीतिक और व्यवस्था परिवर्तन की सख्त जरूरत है। क्योंकि समस्या का समाधान वही कर सकता है जिसकी समस्या है, और इसके लिए नई ताकत का खड़ा होना जरूरी है।
-पी सी तिवारी, अध्यक्ष उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी
उत्तराखंड राज्य के हालत देख अफसोस होता है, जहां तक बात राज्य आंदोलन की ताकतों की है, कोई भी एक मंच पर नहीं है। राज्य आंदोलन को सब भूल गये। राष्ट्रीय दलों ने दिग्भ्रमित कर दिया है। कुछ लोग अपने रास्ते भटक गये। ये लोग अपनी मातृ-शक्ति का अपना भूल गये। एक दल से कई धड़े बन गये। जिससे हमारी मूल भावना कमजोर पड़ गई। अगर सपनों के उत्तराखंड को पाना है तो अपने अहम को त्यागना होगा और क्षेत्रीय ताकत को मजबूत करना होगा।
- ए.पी. जुयाल, केंद्रीय कार्यकारी अध्यक्ष, यूकेडी पी
प्रस्तुति- प्रदीप थलवाल
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