उत्तराखंड की आने वाली पीढ़ी जब इतिहास के पन्नों को पलटेगी, तो उन्हें शायद ही यकीन नहीं होगा कि, उत्तराखंड एक जनांदोलन की कोख से पैदा हुआ राज्य है। ऐसा आंदोलन आजाद भारत के इतिहास में शायद ही कभी हुआ होगा, जिसका अपना कोई ना नेता था और ना ही नेतृत्व। इस जनांदोलन में हर कोई शामिल था और हर किसी का एक ही मकसद था ‘अपना राज्य हो, अपना राज हो’। यही वजह थी कि सपनों के प्रदेश को साकार करने के लिए इस आंदोलन में लुका-छिपी का खेल खेलने वाले बच्चे थे, तो कांपती हुई काया में जवानी का जोश लिए बुजुर्ग, घर-आंगन की जिम्मेदारी संभालने वाली महिलाएं थी, तो नौकरी की खातिर अपने समाज से दूर परदेश गया युवा, यहां तक की सरकार के मुलाजिम होने के बाद भी पहाड़ के सैकड़ों बेटों ने अपने फौलादी हौंसला दिखाकर नौकरी की परवाह किये बिना आंदोलन में शामिल हुए और पहाड़ की आवाज को बुलंद किया। माटी का मान और अपनों के सम्मान के लिए भड़की एक चिंगारी ने कब जनांदोलन का रूप लिया किसी को भी पता नहीं चला।
ये वो दौर था, जब दुनियां नई सदी की शुरूआत में नई संभावनएं तलाशने में व्यस्त थी, लेकिन तब उत्तराखंड का पहाड़ी समाज अपने हक-हकूकों के लिए छटपटा रहा था, और यही छटपटाहट उत्तराखंड राज्य आंदोलन की क्रांति का बीज साबित हुआ। जल, जंगल, जमीन और जवान के बुनियाद मुद्दे को लेकर लड़े गये इस आंदोलन का नेतृत्व किसी एक के हाथ में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद भी राज्य अंादोलन के नाम पर अपने घरों तक सीमित लोगों ने मुंडेरों को लांघ कर सड़कों पर आवाज बुलंद की। तब धार से लेकर गाड़, गली-मोहल्लों और सड़कों से लेकर सर्पीली पगडंडियों हर जगह आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो जैसे नारे सुनाई पड़ते थे। गजब देखिए कि राज्य आंदोलन के दौरान कई संगठनों ने जरूर भागदारी निभाई, जिनकी एक ही आवाज पर लोग अपना काम छोड़ आंदोलन में शामिल होते थे, लेकिन अफसोस कि आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें चौराहे पर खड़ी है। जबकि राज्य की मौजूदा हालात में उन ताकतों को एक ही मंच पर खड़ा न होने की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। हालात ये हैं कि जिन मुट्ठियों ने राज्य के सरोकारों के लिए एक जुट होकर हवा में लहराना था आज वो बिखरी हुई उंगलियां बन गई हैं। उत्तराखंड आंदोलन की ये ताकतें बैचेन हैं, उन्हें अफसोस है कि कभी अलग राज्य को लेकर वो एक आवाज पर एकजुट हो जाया करती थी लेकिन आज मूल मुद्दों से भटक जाने की बेचैनी उन्हें सताये जा रही है।
राज्य गठन के बाद उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें बिखरी पड़ी हैं। राज्य आंदोलन में भागीदार संगठनों और पर्टियों के इस बिखराव का कारण कुछ संगठनों का मकसद सिर्फ उत्तराखंड राज्य का निर्माण था, राज्य मिला और उनका उत्तरदायित्व खत्म हो गया। लेकिन जिस राज्य के स्वरूप की कल्पना की गई थी जिसके लिए लड़ाई लड़ी गई थी, वह सपना आज भी अधूरा है। जो आज तक स्थाई राजधानी का चयन नहीं कर पाये, वो इस प्रदेश का क्या विकास करेंगे। लिहाजा आंदोलन की ताकतों को एकजुट होना चाहिए।
- कमला पंत, अध्यक्ष, उत्तराखंड महिला मंच
निजी स्वार्थ और नफा-नुकसान की सोच की वहज से आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतों चौराहे पर है। जिसकी वहज से उन लोगों ने फायदा उठाया जो राज्य आंादोलन के धुर विरोधी थे। राज्य तो बना लेकिन राज्य आंदोलनकारियों का क्या मिला। जिन लोगों को कुर्सी मिली, उन्होंने अपने पीछे के उन लोगों को भुला डाला जो नमक-रोटी खा कर आंदोलन में साथ खड़े थे। जिससे आंदोलनकारियों को गहरी चोट पहुंची है।
- सुशीला ध्यानी, अध्यक्ष, कौशल्या डबराल वाहिनी
उत्तराखंड आंदोलन दो विचारधाराओं ने लड़ा। एक विचारधारा वो थी जो आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो वाले थे, दूसरी विचारधारा के लोग वो थे जो राज्य कैसे चलेगा, कैसी नीति होगी को लेकर आंदोलन लड़ रहे थे। क्योंकि यहां के लोगों ने नए उत्तराखंड से नये भारत के निर्माण का सपना बुना था। उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें कमजोर पड़ी है। राजनेताओं ने जैसे चाहा अपना फायदा उठाया कोई बोलने वाला नहीं है, ऐसे में प्रदेश में सामाजिक, राजनीतिक और व्यवस्था परिवर्तन की सख्त जरूरत है। क्योंकि समस्या का समाधान वही कर सकता है जिसकी समस्या है, और इसके लिए नई ताकत का खड़ा होना जरूरी है।
-पी सी तिवारी, अध्यक्ष उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी
उत्तराखंड राज्य के हालत देख अफसोस होता है, जहां तक बात राज्य आंदोलन की ताकतों की है, कोई भी एक मंच पर नहीं है। राज्य आंदोलन को सब भूल गये। राष्ट्रीय दलों ने दिग्भ्रमित कर दिया है। कुछ लोग अपने रास्ते भटक गये। ये लोग अपनी मातृ-शक्ति का अपना भूल गये। एक दल से कई धड़े बन गये। जिससे हमारी मूल भावना कमजोर पड़ गई। अगर सपनों के उत्तराखंड को पाना है तो अपने अहम को त्यागना होगा और क्षेत्रीय ताकत को मजबूत करना होगा।
- ए.पी. जुयाल, केंद्रीय कार्यकारी अध्यक्ष, यूकेडी पी
प्रस्तुति- प्रदीप थलवाल
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