Friday, November 23, 2012

खात्मे की ओर पहाड़ी राज्य का बुनियादी मकसद




उत्तराखंड का जिक्र आते ही मनोमस्तिष्क में एक पहाडी राज्य का खाका खींच जाता है। ऐसा राज्य जिसे कुदरत ने अपार सुंदरता दी, ऐसा राज्य जो नदियों के संगीत से हर रोज नहाता है। ऐसा राज्य जहां लोगों के चेहरों पर मसूमियत झलकती है। ऐसा राज्य जिसके अंदर देश भक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा है और देश के स्वाभिमान के लिए जिस प्रदेश के युवाओं ने अपनी जान की बाजी लगाई हो। वहीं काले-कूलेटे और नंग-धडंग पहाड़ों वाला प्रदेश अपने बाल्यकाल के बारह साल पूरा कर चुका है। लेकिन जिस मुकाम पर आज ये पहाड़ी प्रदेश है, वहां से राज्य बनने का बुनियादी मकसद गायब नजर आता है। यहां के लोग ऐसे पहाड़ी राज्य के लिए नहीं लड़े थे बल्कि पहाड़ी लोगों की नियति बदलने और मैदानी चश्मे से देखे जाने वाली सरकारी नीति के खिलाफ  आंदोलन लड़ा गया था। लेकिन बिडंबना देखिए कि राज्य गठन के बारह साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ उलटे इस प्रदेश में राज करने वाली राजनीतिक पार्टियों का फोकस पहाड़ के बजाय देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर पर रहा। विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाएं इन्हीं तीनों जनपदों में सिमट कर रह गई। पहाड़ से पलायन नहीं थम रहा है। बल्कि राज्य बनने के बाद पहाड़ से लोगों के पलायन करने का ग्राफ ज्यादा बढ़ा। हालत ये हैं कि कई गांव जन-विहीन हो चुके हैं। लेकिन किसी भी सरकार ने पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई। टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक में सबसे ज्यादा पलायन हुआ, इतना पलायन शायद ही आजाद भारत में कहीं हुआ हो, इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हुए पलायन के बावजूद भी राज्य सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रदेश के सीमान्त गांवों हो रहा पलायन भारी खतरे की ओर इशारा कर रहा है। प्रदेश की सीमाएं चीन और नेपाल से लगी होनेे से सीमावर्ती क्षेत्रों से पलायन सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है। पहाड़ी इलाकों और सीमावार्ती क्षेत्रों से हो रहा पलायन इंगित करता है कि हमारी सरकारों आर्थिक वहज पैदा करने में अक्षम रही है। जिससे पहाड़ का आदमी अपने गांव या कस्बे से पलायन करने को मजबूर है। पहाड़ों का विकास करने का दावा करने वाली यहां की अब तक की सरकारों ने प्रदेश के पहाड़ों को जोड़ने के लिए कोई काम नहीं किया। सूबे में सभी राष्ट्रीय राजमार्ग यूपी के जामने के हैं और से राजमार्ग मैदान को पहाड़ से जोड़ते है ना कि पहाड़ को पहाड़ से। आज तक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा कि वो पहाड़ी जिलों को आपास में जोड़े। सरकार के उदासीन रवैये से साफ होता है कि पहाड़ी राज्य की चिंता किसी को नहीं है। कोई पहाड़ के विकास के बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाता। जब तक सोच दिल्ली की रहेगी। तब तक इस राज्य में कुछ भी नहीं हो पायेगा। कृषि, बागवानी, पर्यटन के मामले में हम एक कदम आगे भी नहीं बढ़ पाये। सरकारें दावे तो खूब करती है कि लेकिन उस पर अमल कभी भी नहीं करती। सूबे की समूची नौकरशाही मैदानी सोच की है, सचिवालय में काम के नाम पर फाइले इधर-उधर जरूर होती है लेकिन बुनियादी चीजों पर कोई भी नौकरशाह फैसले नहीं लेता। राज्य के प्रति सोच रखने वाले चिंतक, विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और समाजिक कार्यकर्ताओं को कोई पूछता नहीं है। उनसे विकास योजनाओं को लेकर कोई राय ही नहीं लेता। शायद ये इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जो इस प्रदेश की विकास योजना तय कर रहे हैं उन्हें यहां के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भूगोल की समझ ही नहीं है। ऐसे में आप कैसे पहाड़ के विकास की सोच सकते हैं। जब नेता अनुभव हीन हो और नौकरशाह अपने सहूलियत के हिसाब से योजनाएं तय कर रहे हो तो इस राज्य का भविष्य क्या होगा, और आप समझ सकते हैं कि इस प्रदेश का बुनियादी मकसद क्यों खत्म होते जा रहे हैं।

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