Monday, October 22, 2012

क्या लोकतंत्र के पर्व का जश्न फीका होने लगा है?




टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जो मत प्रतिशत सामने आया है उससे हर कोई हैरान भी है और परेशान भी। क्योंकि इस संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव से तकरीबन 6-7 माह पहले प्रदेेश में विधानसभा चुनाव हुए थे और फिर सितारगंज में एक उपचुनाव भी हुआ था। जिसमें सूबे की जनता ने रिकॉर्ड वोटिंग की थी, लेकिन तकरीबन छह महिने के अंतराल बाद जो ये चुनाव हुआ है उसमें जनता ने खुलकर भागीदारी नही की। लोकतंत्र का चुनावी पर्व फीका रहा । इस चुनाव के प्रति जनता का मोह भंग क्यों हुआ ? यह बात राजनीतिक समीक्षकों को तो अखर ही रही है सियासी दलों को भी सोचने को मजबूर कर रही है कि आखिर चूक कहां पर हुई। राजनीतिक दलों के सत्ता स्वार्थ ने जनता को घरों में बिठाया या लोकतंत्र का चुनावी उत्सव धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खो रहा हो। वजह जो भी हो दुनिया के सबसे बडे़ और मजबूत लोकतंत्र में कम मतदान भविष्य के लिए एक खतरनाक आहट मानी जा सकती है।
बहरहाल टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में लगभग 43 पफीसदी मतदान हुआ। अगर जिलावार देखा जाय तो सबसे ज्यादा मतदान देहरादून जिले में हुआ, देहरादून जिले में 45.29 प्रतिशत मतदान हुआ, दूसरे नंबर पर उत्तरकाशी जिला रहा है जहंा 44 पफीसदी मतदाताओं ने अपने मताध्किार का प्रयोग किया। सबसे कम मतदान टिहरी जिले में हुआ। यहां सिपर्फ 36.19 प्रतिशत मतदान हुआ। तीनों जिलों के मतदान पर अगर नजर डालें तो उत्तरकाशी का प्रदर्शन बेहतर रहा। क्योंकि उत्तरकाशी जिले में आयी आपदा और जिले में धन की कटाई और मंडाई होने के बाद भी मतदाताओं थोड़ा बहुत उत्साह देखने को मिला। जबकि टिहरी के मतदाताओं ने लोकतंत्रा के इस पर्व का कोई महत्व नहीं दिया।
अगर तीनों जिलों की विधनसभा सीटों के हिसाब से मतदान की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा मतदान विकासनगर विधनसभा सीट पर हुआ यहां 52.43 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि दूसरे नंबर पर चकराता विधनसभा सीट रही। सहसपुर और गंगोत्राी क्रमशः तीसरे और चौथे क्रम पर रही। सबसे कम वोटिंग घनसाली और टिहरी विधनसभा क्षेत्रा पर हुई । यहां क्रमशः 29.88 और 33.87 मतदाताओं ने अपने वोट का प्रयोग किया।

टिहरी संसदीय सीट का भूगोल देखा जाय तो इस सीट का अध्किांश भाग पर्वतीय है, जबकि मैदानी इलाका कम ही है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रा की अपेक्षा मैदानी क्षेत्रा में मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। इस लिहाज से मैदानी क्षेत्रा में पर्वतीय इलाकों की अपेक्षा ज्यादा मतदान भी हुआ है। जो कि सीध्े तौर पर जीत और हार के लिए निर्णयक साबित हुआ। दूसरी ओर मैदानी विधनसभा क्षेत्रों में हुए मतप्रतिशत को देखे तो वो उत्तरकाशी जनपद की तीनों विधनसभा सीटों पर हुए मतदान की अपेक्षा कम हुआ है जबकि टिहरी की चारों विधनसभा क्षेत्रों में मतदान न्यूनतम रहा है। सवाल उठाता है कि पर्वतीय मतदाता ने वोट देने में क्यों कंजूसी दिखाई।

क्या इसकी वहज एक के बाद एक हो रहे चुनाव से लोग ऊब गये हैं? या पिफर पहाड़ के जनसरोकार के मुद्दे न उठाये जाने से जनता नाराज है। टिहरी उपचुनाव में हुए कम मतदान के पीछे जनप्रतिनिध्यिों का जनता के प्रति गैरजिम्मेदाराना रवैया भी एक कारण माना जा रहा है । जनता का मानना है कि जब वो किसी काम से अपने जनप्रतिनिध् िके पास जाती है तो जनप्रतिनिध् िया तो उसे टरका देता या पिफर उसके काम को ज्यादा अहमियत नहीं देता। जिससे मतदाता में नाराजगी है।
देखा गया है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशी मतदाता के घर तक वोट मांगने जरूर आता है लेकिन जीतने के बाद वो पूरे पांच साल तक उन्हें अपनी शक्ल तक नहीं दिखाता। जिस वक्त उन्हें अपने जनप्रतिनिध् िकी आवश्यकता होती है उस समय वो देहरादून अपने भविष्य की तिकड़म भिड़ाने के लिए जुगत भिड़ता है या पिफर दिल्ली दरबार में अपने सियासी वजूद को बचाने के लिए जी हजूरी पफरमा रहा होता है।
ऐसे में जनता के पास चुनाव ही एकमात्रा ऐसा हथियार है जिसके जरिए वो अपनी नाखुशी जाहिर कर सकता है। माना जा रहा है कि टिहरी उपचुनाव में कम मतदान भी इसी बात का प्रतीक है।
सबसे ज्यादा मतदाताओं की नाराजगी टिहरी जिले में दिखी। जहां सबसे कम मतदान हुआ। कम वोटिंग होने का कारण क्षेत्रा की उपेक्षा भी है। क्योंकि टिहरी झील से जो समस्या कम से कम प्रतापनगर और घनसाली विधनसभा क्षेत्रा के लिए उपजी है उसी का नतीजा है कि दोनों ही विधनसभा सीटों में वोट प्रतिशत कम रहा। यहां तक कि टिहरी विधनसभा क्षेत्रा में भी मतदान बहुत कम रहा। राजनीतिक दलों से नाता रखने वाले इस बात को भी स्वीकारते हैं कि मतदान होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण स्थानीय मुद्दों और स्थानीय लोगों को महत्व नहीं दिया जाना है। क्योंकि टिहरी उपचुनाव मे क्षेत्राीय मुद्दे किसी भी पार्टी ने नहीं उठाये बशर्ते यूकेडी पी के। दूसरी और प्रदेश की दो मुख्य राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन में भी दिल्ली दरबार का हुक्म माना। स्थानीय चेहरे को चुनावी समर में उतारना मुनासिब नहीं समझा। जिसका सीध असर मतदान पर पड़ा।

टिहरी संसदीय सीट पर कम मतदान का ये दूसरा अवसर है। इससे पहले राज्य गठन की मांग को लेकर प्रदेश भर में चुनाव बहिष्कार किया गया था। उस वक्त सूबे में बहुत कम मतदान हुआ था। हालांकि इस बार भी कई जगह चुनाव का बहिष्कार किया गया था।
लेकिन सवाल उठाता  है कि क्या चुनाव बहिष्कार से समस्या का हल हो जायेगा। इस प्रकार से चुनाव के प्रति लोगों में उदासीनता का भाव भरता जा रहा है, इससे स्पष्ट होता है कि भविष्य में चुनाव मात्रा रस्म अदायगी तक सीमित रह जायेगा। लोकतंत्रा के इस पर्व का जश्न पफीका न पड़े इसके लिए राजनीतिक दलों को अपने गिरेबान में झांकना होगा । वरना कहीं ऐसा न हो कि नौबत उस जगह पंहुच जाए जहां संविधान के इस महत्वपूर्ण अध्किार का महत्व ही खत्म हो जाए। बहरहाल टिहरी संसदीय सीट के उपचुनाव में हुए कम मतदान ने लोकतंत्रा के भविष्य पर एक सवालिया निशान लगा ही दिया है।

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