Monday, August 26, 2013

घायल है हिमालय बेफिक्र नौकरशाह




भारत में आए सबसे बड़े जल प्रलय के 40 दिन बाद बचाव कार्य अपने अंतिम दौर में है तो राहत कार्य जारी हैं। सरकार मृतकों आश्रितों और आपदा प्रभावित परिवारों को आर्थिक सहायता बांटने में जुटी हुई है मगर वह भी कहां ठीक से हो पा रहा है। लेकिन इन सब के बावजूद आपदा से तबाह हुए क्षेत्रों में सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने पर सरकार का ध्यान नहीं है। केदारघाटी, अलकनंदा घाटी और उत्तरकाशी जिले में आज भी लगभग सब कुछ वैसा ही है जैसा जल प्रलय के दौरान था। सड़क मार्ग अभी भी ध्वस्त हैं तो आपदा प्रभावित लोग आज तक टैंटों और सरकारी भवनों में रहने को मजबूर हैं। कुछेक छोटे कर्मचारियों को अपवाद मान लें तो प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाह या तो राजधानी में ही बैठकों में व्यस्त हैं या फिर हवाई सर्वेक्षण कर लीपापोती में जुटें हैं। नूतन सवेराने आपदा ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया तो पाया कि सरकार और नौकरशाही की लापरवाही से आपदा प्रभावितों के साथ-साथ समूचा पहाड़ घायल है।

सड़कों का संकट

उत्तराखंड की सबसे बड़ी आपदा को 40 दिन बीत चुके हैं लेकिन मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी घाटी के सैकड़ों गांव इस भयंकर त्रासदी से उभर नहीं पाये हैं। हालात इतने गंभीर है कि इन गांवों को जोड़ने वाली तकरीबन 5 हजार किलोमीटर की सड़कें बुरी तरह से ध्वस्त हैं। सड़कों के क्षतिग्रस्त होने से पहाड़ की लगभग 16.4 फीसदी आबादी दाना-पानी से लेकर कपड़े-लत्ते के लिए मुहाल हो गई है। प्रदेश की भौगोलिक बीहड़ता और सरकार के नकारेपन से पहाड़ का कभी ना झुकने वाला हौसला हर रोज टूट रहा है।

उत्तराखंड सरकार की नीतियों के चलते हिमालय की तलहटी में बसे 500 से ज्यादा गांवों का संपर्क आपदा के 40 दिन बाद भी कटा हुआ है। आवागमन की दिक्कतों से जूझ रहे इन गांवों की स्थिति इतनी विकट है कि पैदल रास्ते भी चलने लायक नहीं है। खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी इस बात को स्वीकारते हैं कि सूबे की 5 हजार किलोमीटर सड़कें भू-स्खलन और नदी के कटाव से तबाह हो चुकी है, जबकि राज्य के लगभग 200 पुल उफनती नदियों के भेंट चढ़ गये हैं। बहुगुणा यह भी बताने से नहीं चूकते कि राज्य के 4,300 गांवों में विद्युत और पेयजल आपूर्ति से लेकर संचार माध्यम ठप हैं।
उत्तरकाशी जिले में यमुना और भागीरथी घाटी के 135 गांव अलग-थलग पड़े हैं, इन गांवों को जोड़ने वाली 23 लिंक रोड़ बंद होने से तकरीबन 30 हजार की आबादी प्रभावित है। रूद्रप्रयाग जिले के हालात भी इससे कम नहीं है। जखोली, ऊखीमठ और अगस्तमुनि ब्लाॅक में मोटर मार्ग ध्वस्त होने से सैकड़ों गांवों का संपर्क टूट चुका है। अगस्तमुनि ब्लाॅक की लाइफ लाइन कहे जाने वाले गुप्तकाशी-मयाली मार्ग पर भी जगह-जगह भू-स्खलन का खतरा बना हुआ है। मंदाकिनी में आई भीषण बाढ़ से अगस्तमुनि और विजयनगर को जोड़ने वाला हाईवे तबाह हो चुका है। जबकि तिलवाड़ा के पास नदी की प्रचंड लहरों ने केदारनाथ हाईवे का लगभग एक किलोमीटर हिस्सा नेस्तनाबूद कर दिया जिससे इलाके में यातायात व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गई है। इतना ही नहीं जिले के तीनों ब्लाॅकों को जोड़ने वाले 26 पुल भी आपदा की भेंट चढ़ चुके हैं। लेकिन विड़ंबना देखिए कि सड़क मार्गों से कट चुके गांवों को जोड़ने के लिए अभी तक किसी भी प्रकार की कोई वैकल्पिक व्यवस्था स्थानीय प्रशासन नहीं कर पाया है।
चमोली जिले में भी 40 दिन बाद हालात सामान्य नहीं हो पाये हैं। जिले में लगभग 53 संपर्क मार्ग अब भी बंद पड़े हैं। जिससे सीधे तौर पर 84 गांव प्रभावित हुए हैं। बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग भी जगह-जगह भू-स्खलन और नदी के कटाव से बाधित है। अकेले गोविंदघाट से लेकर लामबगड़ तक राजमार्ग 4 जगाहांे पर भू-स्खलन की चपेट में हैं। जिन्हें खुलने में अभी काफी वक्त लगेगा। इससे पहले लोक निर्माण विभाग ने दावा किया कि वह आपदा से छतिग्रस्त सड़कों को जुलाई महीने तक खोल देगा, लेकिन असल सच्चाई यह है कि प्रदेश का लोक निर्माण विभाग इन दिनों मोर्चे से गायब है। जुलाई महीना खत्म होने वाला है और सैकड़ों सड़कों का खुलना भी मुमकिन नहीं है। राज्य के चारों धामों को जोड़ने वाली 647 किलोमीटर नेशनल हाईवे को भी भारी नुकसान पहुंचा है। राज्य सरकार ने इसे जल्द तैयार करने का दावा किया था लेकिन सरकार का यह दावा भी हवाई नजर आता है माना जा रहा है कि इसे बनाने में अभी साल भर का समय लग सकता है। प्रदेश में स़ड़कों के सुस्त निर्माण से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सूबे की सरकार लोगों के प्रति कितनी फिक्रमंद है। राज्य के ये हालात तब है जब खुद मुख्यमंत्री भी चीजों से वाकिफ हंै। ऐसे में साफ जाहिर होता है कि सूबे में नौकरशाही ने सरकार को बौना साबित कर दिया है।

राहत नहीं पहुंचा पाई सरकार
राज्य में आपदा प्रभावित क्षेत्रों के हालात गंभीर बने हुए हैं। आपदा में सब कुछ लुटा देने वाले कई गांव अब भुखमरी की कगार पर है। आलम यह है कि पीडि़त परिवार तक राहत सामग्री नहीं पहुंच रही है। आपदा पीडि़तों का कहना है कि अगर सरकार उनकी मदद कर रही है तो फिर उनके हिस्से की मदद आखिर जा कहां रही है।

राज्य में आई भीशण आपदा के बाद समूचे देश से प्रदेश की मदद के लिए हाथ आगे बढ़े। हर राज्य की ओर से सूबे को राहत सामग्री भेजी गई। लेकिन प्रदेश के भ्रश्ट अफसरो की हिलाहवाली और सरकार के कुप्रबंधन के चलते राहत सामग्री या तो डंप हो रही है या फिर सरकारी कब्जे में सड़ रही है। जगह-जगह से भेजी गई राहत का सरकार के पास कोई रिकाॅर्ड नहीं है। हालांकि सरकार का दावा है कि जो भी सहायता आपदा पीडि़तों के लिए आई है उसे प्रभावितों को बांटा जा रहा है। लेकिन अगर सच्चाई से पर्दा उठाया जाय तो अधिकांश राहत उन लोगों के घरों में पहुंच रही है जो आपदा पीडि़त नहीं है।
हरिद्वार से लेकर देहरादून और आपदा प्रभावित जिलों के कई कस्बों में कुछ लोग राहत सामग्री को ठिकाने लगाने में तुले हैं। जबकि जरूरतमंद किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि सरकार भी इस बात से वाकिफ है लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी सरकार इस ओर कोई कदम उठाने से बच रही है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि हर रोज राशन से भरे सैकड़ों ट्रक बदरीनाथ और केदारनाथ हाईवे पर देखे जा सकते हैं। राहत सामग्री से लदे ट्रक कहां जा रहे हैं और उनकी राशन किसे बांटी जा रही है इस बात की जानकारी किसी को भी नहीं है। स्थानीय प्रशासन भी इस बात से बेखबर है कि उसके यहां आने वाले ट्रकों की संख्या कितनी है और उसके पास कितनी राहत पहुंच पाई है। इतना ही नहीं प्रशासन के पास प्रभावित गांवों के बारे में कोई जानकारी नहीं है गांव वालों का कहना है कि कई गांवों में अभी तक पटवारी नहीं पहुंच पाया है, ये लोग बताते हैं कि उनका गांव सड़क से सटे होने पर भी पटवारी एक महीने बाद वहां पहुंचा। ऐसे में सरकार की राहत बांटने की बात कुछ अटपटी लगती है।
सरकार और प्रशासन देहरादून में बैठकर भले ही कुछ भी बयान दें लेकिन आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री की बदइंतजामी को लेकर पहाड़ के लोगों में भारी आक्रोश व्याप्त है। केदारनाथ के मुख्य पड़ाव गौरीकुंड से सटे गौरी गांव के जगदीश प्रसाद गोस्वामी बताते हैं कि उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। राहत सामग्री के बारे में पूछने पर गोस्वामी कहते हैं कि हेलीकाॅप्टर द्वारा गांव में राशन जरूर पहुंचाई गई थी लेकिन राशन जरूरतमंदों की बजाय कुछ लोगों तक सिमट कर रह गई। गौरीकुंड के आस-पास के गांवों के भी यही हाल है, कहने को तो सरकार द्वारा हेलीकाप्टर से रसद सामग्री बांटी जा रही है लेकिन यह रसद किसे और कितनी बंट रही है इसकी जानकारी किसी को नहीं है। एक स्थानीय बुजुर्ग कहते है कि जितनी राहत सामग्री उत्तराखंड पहुंची है अगर उसका तरीके से वितरण हो तो प्रभावित लोगों का गुजारा साल भर तक चल सकता है लेकिन सरकार की अकर्मण्यता के चलते ऐसा होना संभव नहीं है।
सरकारी तंत्र का कुप्रबंधन पाण्डुकेश्वर में भी देखने को मिला। जहां सरकारी मदद के लिए पाण्डुकेश्वर के आस-पास के गांवों को बुलाया गया था। लेकिन आपदा के मारे ग्रामीणों की आस उस वक्त टूटी जब उन्हें बैरंग वापस लौटना पड़ा। पाण्डुकेश्वर से 5 किलोमीटर दूर अपने गांव से राहत सामग्री के लिए पहुंची जयंती देवी कहती हैं कि उनके साथ बुरा बर्ताव हो रहा है। वह कहती है कि राहत सामग्री के लिए उन्हें पाण्डुकेश्वर बुलाया गया लेकिन इतनी दूर पैदल आने के बाद भी उन्हें राहत सामग्री नहीं मिली। जयंती देवी कहती है कि ऐसी आफत में प्रशासन उनके साथ भद्दा मजाक कर रहा है। सरकार के कुप्रबंधन का एक और उदाहरण गुप्तकाशी से कुछेक किलोमीटर दूर जौला-पाटियूं में दिखा। पाटियूं की ग्राम प्रधान कुंवरी देवी बताती है कि उनका गांव सड़क से सटा है लेकिन आपदा के इतने दिन बीतने के बाद भी उन्हें राहत के नाम पर एक भी फूटी कौड़ी नसीब नहीं हुई। इसे विडंबना नहीं और क्या कहेंगे जहां एक ओर राज्य को बहारी प्रदेशों से भारी तादाद में राहत सामग्री मिल रही है लेकिन प्रदेश सरकार है कि वह राहत को प्रभावितों तक पहुंचाने में नाकामयाब है।

मददगार एनजीओ
अगर एनजीओ नहीं होते तो हम भूखे मर जाते, आज हमारे पास खाने के लिए राशन और पहनने के लिए कपड़े हैं। यह सब एनजीओ की देन हैं, इन लोगों का कर्ज हम कभी नहीं चुका सकतेयह कहना है माहेश्वरी देवी का। चमोली जिले के जोशीमठ से 19 किलोमीटर दूर बसा घाट गांव। 16 जून को अलकनंदा के प्रलय ने इस गांव को भी तबाह कर डाला। स्थानीय लोगों का कहना है कि एनजीओ वालों की मदद से वह आज जिंदा हैं। घाट के ग्रामीणों का कहना है कि उनके गांव में सरकार द्वारा कोई मदद नहीं पहुंची है। वह कहते हैं कि आपदा को आये इतने दिन गुजर चुके हैं लेकिन अभी तक एक पटवारी के अलावा वहां कोई नहीं पहुंचा है।

यह हाल सिर्फ घाट गांव के नहीं है बल्कि समूचे पहाड़ों में सरकार की ओर से कोई भी अधिकारी पीडि़तों तक नहीं पहुंच पाया है। जबकि इसके उलट आपदा प्रभावित गांवों तक कई एनजीओ पहुंचे है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शासन-प्रशासन सिर्फ सड़कों तक सिमट कर रह गया है। जबकि आपदा से सबसे ज्यादा पीडि़त सड़कों से दूर हैं। सेव द चिल्ड्रनसंस्था के अविनाश कुमार कहते हैं कि हमारी संस्था पहले आपदा प्रभावित क्षेत्रों का मुआयना करती है और लोगों की आवश्यकता के बारे में जानकारी जुटाती हैं। जिसके बाद हम लोग उस गांव में जाकर राहत सामग्री वितरित करते हैं। वह कहते हैं इस दौरान उन्हें कई सारी विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है।
सेव द चिल्ड्रन के अलावा धाद’, ‘आंचल चैरिटेबल ट्रस्ट’, ‘उत्तरांचल भातृमंडल’, ‘ए.टी.इंडिया’ ‘नव ज्योति डेवलपमेंट सोसइटी’, ‘अखिल गढ़वाल सभाजैसे कई एनजीओ ने पहाड़ों पर मोर्चा खोल रखा है। ए.टी. इंडिया एनजीओ से जुड़ी यशोदा सेमवाल कहती है कि उनके द्वारा आपदा प्रभावित क्षेत्रों को अगल-अलग सेक्टर में बांटा गया है। वह बताती हैं कि रूद्रप्रयाग जिले में 10 सेक्टर है जिसमें कालीमठ घाटी, केदार घाटी, मनसूना, आकाश कामनी, अगस्तमुनि, मयाली, चंदन गंगा, मोहनखाल, तिलवाड़ा और गिमतोली वैली शामिल हैं। यशोदा बताती है कि उनका एनजीओ खाद्य सामग्री के अलावा पीडि़तों के खाते भी बैंकों में खोल रहे हैं ताकि सरकार से मिलने वाली राहत राशि सीधे उनको मिल सके।
सरकार भले ही बड़े-बड़े दावे कर रही हो लेकिन पहाड़ों में एनजीओ से बेहतर काम प्रशासन नहीं कर पाया है। एनजीओ द्वारा धरातल पर किये जा रहे काम से स्थानीय लोगों को सीधे लाभ पहुंच रहा है। जानकारों की माने तो अगर एनजीओ द्वारा पहाड़ों में मदद नहीं पहुंचाई जाती तो आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस त्रासदी के आंकड़े और भी भयावह हो सकते थे। इन लोगों का कहना है कि राज्य सरकार महज खानापूर्ति के लिए हेलीकाॅप्टरों का उपयोग कर रही है, जो काम इलाकों में एनजीओ द्वारा अब तक किया गया वहां तक पहुंचने में सरकार को महीनों लग जायेंगे। राज्य हित में सरकार को चाहिए कि वह एनजीओ के साथ तालमेल बिठा कर लोगों तक राहत पहुंचाये।
बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं
यूं तो राज्य में स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं पहले से ही बदहाल है, लेकिन इस आपदा ने पहाड़ों में स्वास्थ्य और शिक्षा की असल हकीकत सबके समाने रखी है। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा का इतना बुरा हाल है कि कुछ अस्पतालों में एक भी डाक्टर नहीं हैं। ऐसे में बीमार और घायल लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। स्थानीय लोगों की मानें तो बरसात के दिनों उन्हें और भी मुसीबत उठानी पड़ती है, वे लोग बताते हैं कि अस्पतालों में डाक्टर न होने के कारण उन्हें छोटी सी बीमारी के ईलाज के लिए श्रीनगर जाना पड़ता है।

अगस्तमुनि ब्लाॅक के जौल-पाटियूं ग्राम सभा के लोग बताते हैं कि उनके यहां स्थिति भारी नाजुक हैं ये लोग कहते हैं कि अगर इलाके में कोई बीमार होता है तो उसे देखने वाला यहां कोई डाक्टर नहीं है। लिहाजा उन्हें खर्चा करके ऋषिकेश और देहरादून जाना पड़ता है। दूसरी ओर स्कूलों का भी यही आलम हैं, कहीं स्कूल हैं तो टीचर नहीं, जहां टीचर हैं भी तो वहां स्कूल भू-स्खलन की जद में आ चुके हंै। पांडुकेश्वर की महिलाएं बताती है कि वह अपने बच्चों के भविष्य को लेकर खासी चिंतित हैं, वे कहती हैं कि गोविंदघाट और पांडुकेश्वर के पास सड़क टूटने से उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इतना ही नहीं आपदा के चलते स्कूलों की दीवारंे जर्जर हालत में है ऐसे में उन्हें हर समय डर सताये रहता है कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाय। स्कूलों का यही हाल रूद्रप्रयाग जिले में भी हैं, भीषण त्रासदी के चलते कई स्कूल तबाही की भेंट चढ़ चुके हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जो स्कूल बचे भी है वह खतरे की जद में हंै, ऐसे में बच्चों को स्कूल भेजना खतरे से खाली नहीं हैं। और कहीं स्कूल की हालत तो सही है लेकिन भारी बारिश और भूस्खलन के चलते सड़के जगह-जगह क्षतिग्रस्त है जिससे बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। वह कहते हैं कि सड़कें क्षतिग्रस्त होने से स्कूल में टीचर भी नहीं आ पाते जिस वजह से बच्चों को घर वापस लौटना पड़ता है।

यात्रा बंद रोजगार ठप
जून के महीने उत्तराखंड में आई भीशण तबाही चार धाम यात्रा भी खटाई में पड़ गई है। चार धाम यात्रा के ठप पड़ने से लोगों के रोजगार पर भारी असर पड़ा है। बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री धामों में यात्रियों को पहुंचाने वाले पोर्टरो, घोड़ा मालिकों और डंडी-कंडी वालों का व्यवसाय इस साल चैपट हो चुका है। इतना ही नहीं यात्रा रूट पर पड़ने वाले सैकड़ों ढ़ाबे, होटल और लाॅज इन दिनों सूने पड़े हैं। जोशीमठ में एक होटल संचालक बताते हैं इस साल उन्हें भारी नुकसान पहुंचा है। वह बताते हैं कि हर साल यात्रा के दौरान उनका होटल बुक रहता था। जिसके लिए लोग एडवांस बुकिंग कर लेते थे, इस बार भी उनके होटल में सैकड़ों बुकिंग थी लेकिन चार धाम यात्रा ठप पड़ने से उन्हें लोगों के पैसे वापस देने पड़ रहे हैं। उत्तराखंड में यह हाल मात्र एक होटल का नहीं है बल्कि सैकड़ों होटल मालिक इस आपदा से संकट में हैं।
चार धाम यात्रा के पीछे अपना गुजर-बसर करने वाले डंडी-कंडी वालों को इस बार सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा। दरअसल इन लोगों का मुख्य रोजगार धामों में यात्रियों को पहुंचाना है। लेकिन इस बार केदारप्रलय के बाद चार धाम यात्रा लगभग बंद हो चुकी है। जिसके चलते ये लोग अब पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं। ऐसे ही हालात घोड़ा स्वामियों की भी है। केदारनाथ और हेमकुंड साहिब में अधिकांश यात्री घोड़ों से पहुंचते हैं, अलकनंदा और केदारघाटी में अधिकांश लोग घोडे़-खच्चरों पर आश्रित हैं इसके अलावा उनके पास रोजगार का कोई और साधन नहीं है। ये लोग बताते हैं कि इस बार यात्रा में भारी भीड़ थी जिससे उन्हें अच्छे पैसे कमाने की काफी उम्मीद थी लेकिन 16 जून को आई बाढ़ ने उनके उम्मीदों पर पानी फेर दिया। केदारघाटी में घोड़ा-खच्चर वालों का कहना है कि बाढ़ में उनके कई खच्चर बह गये हैं लेकिन सरकार की ओर से उन्हें अभी तक कोई मदद नहीं मिल पाई है।
यात्रा पड़ावों पर बसे कस्बों की रौनक इस बार गायब हो चुकी है। यात्रा ठप पड़ने से बाजार सुने पड़े हैं। जोशीमठ में कपड़ों की दुकान चलाने वाले राजेश कहते हैं कि वह हरियाणा के रहने वाले हैं और पिछले कई सालों से यहां कपड़ों की दुकान चला रहे हैं। राजेश बताते हैं इस साल कुदरत ने उनके व्यापार को भी भारी नुकसान पहुंचाया। वह कहते हैं कि यात्रा बंद होने से वह भारी घाटे में है। पहाड़ में हर साल आपदा को देखते हुए वह कहते हैं अब पहाड़ में बिजनेस करना बहुत कठिन है वह बताते हैं कि वो अब हमेशा के लिए पहाड़ छोड़ देंगे और शहरों में कहीं काम तलाशेंगे। पहाड़ों में कुदरत की मार झेलने वाले कई राजेश हैं जो रोजगार के खातिर अब पहाड़ों की जगह शहरों में जाना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि चार धाम यात्रा ही उनकी आजीविका का एक मात्रा जरिया था जो अब खत्म हो चुका है। लिहाजा उन्हें भी अब शहरों में कहीं नौकरी ढूंढनी पडे़गी।
राज्य सरकार भले ही सितंबर में तीन धामों में यात्रा शुरू करने का दावा कर रही हो, लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि इस साल यात्रा होनी संभव नहीं हैं। इस बात को स्थानीय व्यापारी भी दबी जुबान में स्वीकारते हैं, इन लोगों की सरकार से मांग है कि वह चार धाम मार्गों को जल्दी बहाल करें।

आपदा की इस घड़ी में जब सरकार को पीडि़तों के बीच होना चाहिए था तब न जाने सरकार कहां थी। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में सेना ने सराहनीय कार्य किया है। यदि के सेना के जवान जी-जान से बचाव कार्यों में नहीं जुटते तो बहुत भारी नुकसान हो सकता था। सीमा सड़क संगठन ने भी इस दौरान अच्छा काम किया है। उत्तराखंड सरकार को सेना और बीआरओ की मदद करनी चाहिए थी। लेकिन सरकार बीआरओं को आवश्यक धन उपलब्ध नहीं करा पाई। सरकार मंे शामिल नेता और नौकरशाह हवाई सर्वेक्षण तक ही सीमित रहे। राज्य में आई इस आपदा को चेतावनी समझते हुए भविष्य में पूरी तैयारी होनी चाहिए।
- बी.सी.खंडूड़ी, पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराख्ंड

उत्तराखंड सरकार ने आपदा के दौरान राहत और बचाव कार्यों पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। मुख्यमंत्री जी के अलावा सभी मंत्रियों और विधायकों ने जिम्मेदारी से काम किया। सरकार ने काबिल अफसरों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों में तैनात कर पीडि़तों को जल्द से जल्द राहत उपलब्ध कराई। यह बहुत बड़ी जल प्रलय थी। इसके बावजूद सरकार ने सेना के साथ मिलकर व्यापक स्तर पर बचाव कार्यों को अंजाम दिया। इसी संयुक्त प्रयास का नतीजा रहा कि लाखों लोगों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों से बाहर निकाल कर सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाया। राहत कार्य अब भी चरम सीमा पर है। सरकार का प्रयास है कि अंतिम पीडि़त तक राहत सामग्री पहुंच सके। आपदा की इस घड़ी में भाजपा के नेता जिस तरह से बयानबाजी कर रहे हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण हैं। यह पीडि़तों के जख्मों पर मदद का मरहम लगाने का समय है।
- सुबोध उनियाल, विधायक, कांग्रेस

उत्तराखंड में आपदा से बड़ा नुकसान हुआ है। पूरे देश के लोग इस आपदा से प्रभावित हुए हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इसे हिमालयी सुनामी कहा है। मैं स्वयं आपदाग्रस्त क्षेत्रों से लौटा हूं। सरकार के प्रयास नाकाफी हैं। इसलिए जरूरी है कि इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाय।


- त्रिवेंद्र सिंह पंवार, अध्यक्ष, उत्तराखंड क्रांति दल

हम युद्ध स्तर पर बंद सड़कों को खोलने में जुटें हैं। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती मौसम बना हुआ है। भारी बारिश से दोबारा सड़कों पर मलबा आ रहा है। शासन और प्रशासन की मदद न मिलने से हमें खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यदि हमें स्थानीय प्रशासन सहयोग करे तो हम सड़कों को यातायात के लिए खोल देंगे। हालांकि अभी तक हम हर रोज औसतन 20 मेजर लैंडस्लाइड हटा रहे हैं।
- मेजर राहुल श्रीवास्तव, बीआरओ

कहर किसका प्राकृतिक या सरकारी..?





आपदा नहीं यह हुक्मरानों का एस्टीमेट प्रबंध है
प्रदीप थलवाल

जब से धरती अस्तित्व में आयी, साल दर साल हिमालय के पर्यावरण में मानसून को बरसाने को मजबूर किया है। देश के बाकी हिस्सों में जहां हलक तक बूंद-बूंद के लिए तरशते हैं वहीं हिमालय में पूरे साल हरियाली का मंजर होता है। जो बरसात तोहफे के रूप में पहाड़ों को सरसब्ज करती है। वही बरसात बिजली बनाने के लिए, खेतों को सींचने के लिए पानी तो देती है साथ ही, जो मिट्टी पहाड़ों से कटती है उसे रेत और पत्थर बना कर नदी के तटों में छोड जाती है। हमारे आशियानों को बनाने के लिए। प्रकृति के इसी तोहफे का इंतजार बड़ी बेसब्री से हो रहा था लेकिन हर साल कुदरत के इस तोहफे को हमें कहर कहना पड़ रहा है और सरकारी लब्जों में ये प्राकृतिक आपदा है। सवाल है क्या सचमुच प्राकृतिक आपदा आयी है या नौकरशाहों या राजनेताओं की पिछले छह दशकों से सोई हुई जमात में प्रकृति के मार्ग में मानव जनित अवरोधक डाल कर स्वयं आपदा को न्यौता दिया है। बरसात हर साल आती है, अगले बरस भी आयेगी तो इसे प्राकृतिक आपदा कहा जाय या फिर सरकार जनित आपदा।
पिछले कुछ दिनों के दरमियान उत्तरकाशी से लेकर केदारघाटी के आसमान में हाॅलीकप्टर भी मंडरा रहे हैं और जमीन पर लालबत्ती जडि़त गाडियां भी रंेग रही है। जनता को इस बात का अहसास कराने लिए कि सरकार और सरकारी मशीनरी जागी हुई है। आपदा का जायजा लेकर प्रबंध का स्टीमेंट बनाने के लिए, दूरभाष पर देश के प्रधानमंत्री से लेकर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी बात हो रही है, दिल्ली से हजार करोड़ की बड़ी खैरात भी लाई जा रही है। अन्य राज्य भी दिल खोलकर हमारी सरकार की आर्थिक मदद कर रहे हैं। अपनी सरकार भी  आपदा के आगे मुश्तैद रहने का अभिनय कर रही है।
लेकिन इतिहास के पन्नों को जरा पलटिये तो ये नजारे नए नहीं हैं। बीते सालों में भी आपदा आई, बीते साल भी दर्जनों मौत हुई, हजारों लोग बेघर हुए, दर्जनों बस्तियां जमींदोज हुई, आसमान में हाॅलिकाप्टर भी मंडराये, दून से लेकर दिल्ली तक के हुक्मरानों ने हवा और जमीन से तबाही के मंजरों को देखा और करोड़ों रूपये के स्टीमेट तैयार कर खैरात भी उत्तराखंड पहुंची, लेकिन अफसोस कि उस खैरात से उत्तराखंड के जिन प्रभावितों को मरहम लगाना था, देहरादून से सफर तय करके वो उनके उजडे आशियानों के पुनस्र्थापना की बजाय कहीं और ही जा पहुंची। आपदा के आगे जागी हुई सरकार, जागे हुए मुख्यमंत्री और उनके साथी। आज जागे हैं अहसास अच्छा हो  रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या विजय बहुगुणा, आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य, कैबिनेट मंत्रियों ने क्या जिंदगी में पहली बार बरसात को देखा है। मुख्यमंत्री को उत्तराखंड की सियासत में आये हुए करीब दो दशक से भी अधिक समय हो गया है। भारी भरकम महकमों के लिए कोपभवन तक जाने वाले आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य के सिंचाई महकमे के लिए जो बरसात किसी वरदान से कम नहीं वहीं इस बारिश को समेटना उनके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं लेकिन आर्य ने ना वरदान सहेजने का प्रबंध किया और ना आपदा से बचने का जुगाड़। प्रबंध के नाम सरकार द्वारा राहत उपलब्ध कराना तो दूर अब तक वह मलबे के ढेरों में दबे लोगों को भी नहीं तलाश पायी है। 
आपदा ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रखा हुआ है। जैसे जैसे दिन आगे बढ़ेंगे प्रबंध को लेकर समाचार लिखे जायेंगे। लेकिन सवाल है कि हर साल आने वाली  इस बरसात को हम कहर के बजाय वरदान बनाने की अगर चिंता करते तो आपदा प्रबंधन मंत्रालय को सिर्फ बादल फटने से होने वाली हानि और पुल बहने के अलावा बाकि किसी भी नुकसान का ना जायजा करना पड़ता और ना ही प्रबंध। आजादी से लेकर आज तक नदी-घाटी बचाओ के नाम पर चल रही विभिन्न परियोजनाओं, पर्यावरण और जलचर संरक्षण, विभिन्न विकास प्राधिकरणों और धर्मस्व और साहसिक पर्यटन के नाम पर जितनी करोड़ो-करोड़ की धनराशि आवंटित हुई है। उसमें से आधी भी अगर योजनाबद्ध  तरीके से खर्च होती तो नदियों और घाटियों में निर्मित बस्तियां व व्यवसायिक बाजारों को तटों से हटाकर कहीं और सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित किया जा सकता था, जिससे ना सिर्फ नदियों पर तटबंध और रमणीक पार्क व घाटों की स्थापना होती वरन आधा प्रदूषण भी खुद खत्म हो जाता। लेकिन अफसोस सरकारी सरपरस्ती में बदरी-केदार सहित गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक नदियों के तट कंकरीट के जंगलों से लगातार पट रहे हैं। और हर साल प्रकृति के इस वरदान के सामने खड़े होकर हम स्वयं आपदा को न्यौता दे रहे हैं।
आपदा के प्रबंध के लिए सरकार द्वारा जो स्टीमेट बनाया जाता है पीडि़तों को कभी भी  उसका लाभ नहीं मिल पाता। बेहतर होगा कि सरकार पिछले वर्षों की लीक को तोड़कर नई लीक गढ़े और जो लोग आपदा का दंश झेल रहे हैं उन्हें उनका हक दिलाये। केदारघाटी की इस आपदा से जागी हुई सरकार को जागृत तभी माना जायेगा जब अगले बरस प्रकृति के इसी वरदान को हमें फिर से कहर लिखने के लिए मजबूर ना होना पड़े।


ईको सेंसिटिव जोनः यह संवेदनशील मसला है



                     
गौमुख से उत्तरकाशी तक के 100 किलोमीटर का इलाका ईको संेसिटिवजोन घोषित कर दिया गया है। तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए केंद्र सरकार ने ईको सेंसिटिवजोन को लेकर 21 अप्रैल को गज नोटिफिकेशन जारी कर दिया है। इससे पूर्व 07 जनवरी 2013 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी पत्र में पूरे देश के 650 राष्ट्रीय पार्को व सेन्चुरी से लगे 10 किमी क्षेत्र को ईको सेन्सटिव जोन घोषित किये जाने के सन्दर्भ में सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को निर्देषित किया गया है। इसमें प्रत्येक राज्य को 15 फरवरी 2013 तक नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्रों को इको सेन्सेटिव जोनघोषित किये जाने का प्रस्ताव मंत्रालय को भेजे जाने की बात कही गयी थी। लेकिन प्रस्ताव नहीं मिलने पर वन्य जीव संरक्षण रणनीति-2002 के तहत अधिसूचित एवं 2011 के दिशा निर्देश लागू माने जायेंगें। यानी कि नेश्नल पार्को एवं वन्य जीव अभ्यारण्यों से लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित माना जाएगा। उधर उत्तराखंड में गोमुख से उत्तरकाशी तक केंद्र सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन के तहत भागीरथी नदी के जल संभरण क्षेत्र का 4179.59 वर्ग किलोमीटर इलाका परिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र के अंतर्गत होगा और इस पूरे इलाके में अब किसी भी तरह की गतिविधियां प्रतिबंधित हो जायेगी।
केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन के बाद उत्तरकाशी में ईकोसंेसटिव को लेकर हल्ला मच गया है। हालांकि गौमुख के इस डरावने मंजर से पर्यावरण मंत्रालय की चिंता लाजमी है। जो गोमुख कभी बर्फ की दुशाला ओढ़कर भगीरथी के प्रवाह मे इजाफा करता था आज वह गौमुख डरावनी चट्टान बन कर गया है। कही से नहीं लगता कि कभी गोमुख बर्फीला ग्लेशियर रहा होगा। बहरहाल उत्तरकाशी मे ईको संेसंटिवजोन का मसला पर्यावरण के मुद्दो की हदों को पार कर सियासी मसला बन गया है। दरअसल उत्तरकाशी से गौमुख तक जिले के 88 गांवों पर पारिस्थितकीय संवेदनशीलता की आंच आ रही है। केंद सरकार के इस कदम के बाद इलाके में क्या होगा! बेशक आम आदमी की अपनी समझ अपने अंदाज में इसका मतलब न समझ पा रही हो। लेकिन सियासी कुनबा केंद्र के इस फैसले को अपने अंदाज में समझ रहा है और समझाने की कोशिश भी कर रहा है। पर्यावरण का मुद्दा भगवान विश्वनाथ की धरती पर सियासी मुद्दा बन कर रह गया है।
भाजपा के पूर्व विधायक गोपाल रावत का आरोप है कि कांगे्रस सरकार ने उत्तरकाशी से लेकर गोमुख तक जनता को गुमराह किया है। गंगोत्री से विधायक विजयपाल सजवाण केंद्र सरकार के फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि क्षेत्र में विकास के साथ कोई समझौता नही होगा और वह स्थानीय हितों के साथ हैं। सजवाण कहते हैं कि ईको संेसटिवजोन अगर विकास में रोडे़ अटकाता दिखाई देगा तो वे इसे काला कानून करार देंगे। सजवाण यह भी कहते हैं कि ये मासला अचानक एक दिन मंे पैदा नही हुआ। जब ईको संेसटिवजोन की कवायद शुरू हुइ थी तब सूबे मे भाजपा की सरकार थी और उस वक्त के निजाम ग्रीन बोनस की वकालत कर रहे थे। जबकि भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री रहे डा. रमेश पोखरियाल निशंक बताते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से बैठक कर इसका विरोध किया था। पूर्व मुख्यमंत्री पोखरियाल सवाल उठाते हैं कि इतने बड़े क्षेत्र को अति संवेदनशील करने पर केंद्र सरकार क्या पूरे उत्तराखंड को खाली कराना चाहती है।
भागीरथी नदी के दोनों किनारों से लगे बड़े भू-भाग को केंद्र सरकार द्वारा इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने के बाद भारी विरोध को देखते हुए प्रदेश सरकार ने कैबिनेट बैठक बुलाई। जिसमें ईको संेसिटिव जोन का कैबिनेट ने भी विरोध किया। कैबिनेट बैठक में तय किया गया कि केंद्र सरकार को जनभावना से अवगत करा कर गजट नोटिफिकेशन में संसोधन के लिए पैरवी की जायेगी। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा कि ईको सेंसिटिव जोन के मसले पर प्रधानमंत्री, यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री और केंद्रीय वन मंत्री से बातचीत कर नोटिफिकेशन में संसोधन करने के प्रयास किये जायेंगे। हालांकि मुख्यमंत्री ने स्वीकारा कि पर्यावरण सुरक्षा और विकास दोनों जरूरी है, लिहाजा केंद्र को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जो कि बैलेंस रहे।
सियासी मसले के बीच कुछ लोग ऐसे भी है जो राज्य सरकार को कटघरे में खड़ाकर रहे है । उनका तर्क है कि अगर केंद्र ने 88 गांवों को दायरे मे लाने के लिए नोटिफिकेशन जारी किया है तो सूबे की सरकार भी इससे वाकिफ होगी। हालांकि ऐसे लोगों की राय हैै कि ये आबोहवा का मसला है सियासी मुद्दा नही। लिहाजा जन मुद्दे पर सियासत नही होनी चाहिए। गंगोत्री से उतरकाशी तक इको सेंसटिव जोन घोषित किये जाने के बाद से एक ओर जहां भाजपा ने इसका विरोध कर रही है वहीं धर्मनगरी हरिद्वार में संतों में काफी उत्साह है। मातृ सदन के स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते हैं कि मातृ सदन और संत इसे गंगा और उत्तराखंड के पर्यावरण के लिए उठाया गया कारगर कदम मानते है। वह कहते हैं कि संतो की यह भी राय है कि गंगोत्री की तर्ज पर केदारनाथ और बद्रीनाथ से अलकनंदा और मंदाकनी तक वाले क्षेत्र भी इको सेंसटिव जोन घोषित किया जाना चाहिए। ताकि उत्तराखंड के पर्यावरण को बचाया जा सके।
उत्तराखंड के भूगोल को अगर देखें तो प्रदेश में 65 फीसदी भूमि पर वन हैं और मात्र 13 फीसदी भूमि ही कृषि भूमि है। जबकि प्रदेश में 6 नेश्नल पार्क व 7 सेन्चुरी हैं, कृषि भूमि कम होने के कारण प्रदेश का ग्रामीण समाज जंगलों और वन भूमि पर निर्भर है। ऐसी दशा में ग्रामीणों को पशुओं के लिए घास चारा पत्तियों से लेकर जलावन लकड़ी और आवास बनाने के लिए ईमारती लकड़ी से लेकर पत्थरों के लिए जंगलों पर निर्भर है।
जानकारों का मानना है कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इको सेंसिटिव जोन घोषित किये जाने से पहले प्रदेश और केंद्र सरकार ने गोमुख से लेकर उत्तरकाशी की स्थिति, परिस्थिति और भौगोलिक परिस्थितियों सहित भू-बंदोबस्त का अध्ययन नहीं किया। इनका मानना है कि इको सेन्सटेटिव जोन बनाने से नेश्नल पार्कों और सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों का जीवन यापन असम्भव हो जायेगा। क्योंकि ऐसी दशा में ग्रामीण लोग ना तो पशुपालन ही कर पायेंगे और ना ही खेती या फिर अन्य कार्य कर पायेंगे।
ईको सेंसिटिव जोन को लेकर सोसल साइट नेटवर्क पर भी लंबी बहस छिड़ी है। फेसबुक पर वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा लिखते हैं कि अब प्रदेश में इको सेंसटिव जोन पर बवाल मचा है, मानो इससे नदियाँ थम जाएंगी, मकानों की छतें ढह जायेंगी, फलों से रस और फूलों से रंग गायब हो जाएगा। सच यह है कि गंगोत्री से उत्तरकाशी ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड का पूरा पर्वतीय क्षेत्र ही इको सेंसटिव यानी पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील है। बहुगुणा आगे लिखते हैं कि स्थानीय निवासियों के सिवा यहाँ की मिट्टी, रेत, बजरी, पत्थर, पानी और पेडों से छेड़ छाड़ का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए और स्थानीय लोगों को भी अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति पर निर्भर रहने का अधिकार है, न कि व्यापार करने का, लेकिन ठेकेदारों और उनके रक्षित नेताओं ने चीख पुकार मचाना शुरू कर दिया। राजीव नयन लिखते हैं कि इकोलोजी ही हिमालय की स्थायी इकोनोमी है मिट्टी, पानी, रेत, बजरी, चूना, लकडी, पत्थर और वनौषधियों के व्यापारिक दोहन पर पूर्ण रोक लगे।
प्रदेश में पारिस्थितिकी सन्तुलन लगतार असन्तुलित हो रहा है, पारिस्थितिकी सन्तुलन के पीछे सरकार की जनविरोधी नीतियां, खनन माफिया और वन माफिया सहित तस्कर जिम्मेदार है। जिन्होंने पहाड़ को तबाह किया है। केंद्र सरकार द्वारा ईको सेंसिटिव जोन की घोषणा का विरोध भी यही लोग कर रहे हैं और जनता को बरगला रहे हैं। खैर बात निकली है तो दूर तलक जरूर जाएगी लिहाजा प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह इस मसले पर दूरगामी सोच का परिचय दे।