आपदा नहीं यह हुक्मरानों का एस्टीमेट प्रबंध है
प्रदीप थलवाल
जब से धरती अस्तित्व में आयी, साल दर साल हिमालय के पर्यावरण में मानसून को बरसाने को
मजबूर किया है। देश के बाकी हिस्सों में जहां हलक तक बूंद-बूंद के लिए तरशते हैं वहीं
हिमालय में पूरे साल हरियाली का मंजर होता है। जो बरसात तोहफे के रूप में पहाड़ों
को सरसब्ज करती है। वही बरसात बिजली बनाने के लिए, खेतों को सींचने के लिए पानी तो
देती है साथ ही, जो मिट्टी पहाड़ों से कटती है उसे रेत और पत्थर बना कर नदी के तटों में छोड
जाती है। हमारे आशियानों को बनाने के लिए। प्रकृति के इसी तोहफे का इंतजार बड़ी
बेसब्री से हो रहा था लेकिन हर साल कुदरत के इस तोहफे को हमें कहर कहना पड़ रहा है
और सरकारी लब्जों में ये प्राकृतिक आपदा है। सवाल है क्या सचमुच प्राकृतिक आपदा
आयी है या नौकरशाहों या राजनेताओं की पिछले छह दशकों से सोई हुई जमात में प्रकृति
के मार्ग में मानव जनित अवरोधक डाल कर स्वयं आपदा को न्यौता दिया है। बरसात हर साल
आती है, अगले
बरस भी आयेगी तो इसे प्राकृतिक आपदा कहा जाय या फिर सरकार जनित आपदा।
पिछले कुछ दिनों के दरमियान उत्तरकाशी से लेकर केदारघाटी के आसमान में
हाॅलीकप्टर भी मंडरा रहे हैं और जमीन पर लालबत्ती जडि़त गाडियां भी रंेग रही है।
जनता को इस बात का अहसास कराने लिए कि सरकार और सरकारी मशीनरी जागी हुई है। आपदा
का जायजा लेकर प्रबंध का स्टीमेंट बनाने के लिए, दूरभाष पर देश के प्रधानमंत्री
से लेकर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी बात हो रही है, दिल्ली से हजार करोड़ की बड़ी
खैरात भी लाई जा रही है। अन्य राज्य भी दिल खोलकर हमारी सरकार की आर्थिक मदद कर
रहे हैं। अपनी सरकार भी आपदा के आगे
मुश्तैद रहने का अभिनय कर रही है।
लेकिन इतिहास के पन्नों को जरा पलटिये तो ये नजारे नए नहीं हैं। बीते सालों
में भी आपदा आई, बीते साल भी दर्जनों मौत हुई, हजारों लोग बेघर हुए, दर्जनों बस्तियां जमींदोज हुई,
आसमान में
हाॅलिकाप्टर भी मंडराये, दून से लेकर दिल्ली तक के हुक्मरानों ने हवा और जमीन से
तबाही के मंजरों को देखा और करोड़ों रूपये के स्टीमेट तैयार कर खैरात भी उत्तराखंड
पहुंची, लेकिन
अफसोस कि उस खैरात से उत्तराखंड के जिन प्रभावितों को मरहम लगाना था, देहरादून से सफर तय करके
वो उनके उजडे आशियानों के पुनस्र्थापना की बजाय कहीं और ही जा पहुंची। आपदा के आगे
जागी हुई सरकार, जागे हुए मुख्यमंत्री और उनके साथी। आज जागे हैं अहसास अच्छा हो रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या विजय बहुगुणा,
आपदा प्रबंधन
मंत्री यशपाल आर्य, कैबिनेट मंत्रियों ने क्या जिंदगी में पहली बार बरसात को देखा है। मुख्यमंत्री
को उत्तराखंड की सियासत में आये हुए करीब दो दशक से भी अधिक समय हो गया है। भारी
भरकम महकमों के लिए कोपभवन तक जाने वाले आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य के सिंचाई
महकमे के लिए जो बरसात किसी वरदान से कम नहीं वहीं इस बारिश को समेटना उनके लिए
किसी अभिशाप से कम नहीं लेकिन आर्य ने ना वरदान सहेजने का प्रबंध किया और ना आपदा
से बचने का जुगाड़। प्रबंध के नाम सरकार द्वारा राहत उपलब्ध कराना तो दूर अब तक वह
मलबे के ढेरों में दबे लोगों को भी नहीं तलाश पायी है।
आपदा ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रखा हुआ है। जैसे जैसे दिन आगे बढ़ेंगे प्रबंध
को लेकर समाचार लिखे जायेंगे। लेकिन सवाल है कि हर साल आने वाली इस बरसात को हम कहर के बजाय वरदान बनाने की अगर
चिंता करते तो आपदा प्रबंधन मंत्रालय को सिर्फ बादल फटने से होने वाली हानि और पुल
बहने के अलावा बाकि किसी भी नुकसान का ना जायजा करना पड़ता और ना ही प्रबंध। आजादी
से लेकर आज तक नदी-घाटी बचाओ के नाम पर चल रही विभिन्न परियोजनाओं, पर्यावरण और जलचर
संरक्षण, विभिन्न
विकास प्राधिकरणों और धर्मस्व और साहसिक पर्यटन के नाम पर जितनी करोड़ो-करोड़ की
धनराशि आवंटित हुई है। उसमें से आधी भी अगर योजनाबद्ध तरीके से खर्च होती तो नदियों और घाटियों में
निर्मित बस्तियां व व्यवसायिक बाजारों को तटों से हटाकर कहीं और सुरक्षित स्थानों
पर विस्थापित किया जा सकता था, जिससे ना सिर्फ नदियों पर तटबंध और रमणीक पार्क व घाटों की
स्थापना होती वरन आधा प्रदूषण भी खुद खत्म हो जाता। लेकिन अफसोस सरकारी सरपरस्ती
में बदरी-केदार सहित गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक नदियों के तट कंकरीट के जंगलों
से लगातार पट रहे हैं। और हर साल प्रकृति के इस वरदान के सामने खड़े होकर हम स्वयं
आपदा को न्यौता दे रहे हैं।
आपदा के प्रबंध के लिए सरकार द्वारा जो स्टीमेट बनाया जाता है पीडि़तों को कभी
भी उसका लाभ नहीं मिल पाता। बेहतर होगा कि
सरकार पिछले वर्षों की लीक को तोड़कर नई लीक गढ़े और जो लोग आपदा का दंश झेल रहे
हैं उन्हें उनका हक दिलाये। केदारघाटी की इस आपदा से जागी हुई सरकार को जागृत तभी
माना जायेगा जब अगले बरस प्रकृति के इसी वरदान को हमें फिर से कहर लिखने के लिए
मजबूर ना होना पड़े।
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