Monday, March 14, 2011

दया-मृत्यु का फैसला जायज या नाजायज



निर्णय के अनुसार, असाध्य रोग से पीड़ित मरणासन्न मरीज के करीबी रिश्तेदार, अभिभावक या पति/पत्नी या मरीज का मित्र, मरीज के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाने का फैसला ले सकता है, लेकिन उसे इसके लिए संबंधित उच्च न्यायालय से इसकी इजाजत लेनी होगी। उच्च न्यायालय की कम से कम दो सदस्य खंडपीठ ऐसे मामलों की सुनवाई करेगी तथा उच्च न्यायालय के निर्णय का आधार होगा। एक तीन सदस्यीय मेडिकल कोर्ट, जिसमें एक न्यूरोलॉजिस्ट होगा, दूसरा मनोचिकित्सक तथा तीसरा फिजीशियन। बोर्ड की रिपोर्ट के बाद ही उच्च न्यायालय पैसिव यूथनेशिया के बारे में अथवा निर्णय दे सकेगा। सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ के न्यायाधीश माननीय मार्कण्डेय काटजू तथा ज्ञानसुधा मिश्रा ने दया-मृ त्यु के बारे में अपना फैसला भी दे दिया तथा दया-मृत्यु के बारे में फैसला लेने की व्यापक एवं विस्तृत वैधानिक प्रक्रिया भी निर्धारित कर दी है। निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय समाज के गिरते नैतिक मूल्यों, व्यापक भ्रष्टाचार एवं जमीन-जायदाद व संपत्ति के लिए पैसिव यूथनेशिया के संभावित दुरुपयोग पर भी अपनी चिंता इस निर्णय में उजागर कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं लिख दिया है कि देश में फैले भ्रष्टाचार के कारण हो सकता है कि डॉक्टर भी लालचवश किसी मरीज को यूथनेशिया दिये जाने के पक्ष में निर्णय दे सकते हैं। ऐसी किसी भी परिस्थिति को रोकने के सुप्रीम कोर्ट ने काफी प्रबंध किये हैं लेकिन क्या यूथनेशिया का दुरुपयोग कोर्ट रोक पाएगा। यह अपने आपमें बड़ा प्रश्न है। सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय माननीय खंडपीठ ने उक्त निर्णय से पहले अनेक पक्षों के बारे में विस्तृत गहन अध्ययन किया है लेकिन कोर्ट ने एक पक्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज किया है और वह हैिहंदू धर्म व आस्था/हिंदू धर्म में आत्महत्या करना अथवा आत्महत्या का प्रयास भी करना घोर निदंनीय अपराध माना गया है। कुछ ऐसी ही व्यवस्था मुस्लिम धर्म की है। अब प्रश्न है कि जब दया-मृत्यु की इजाजत भारतीय धर्म, परंपरा तथा भारतीय कानून नहीं देता, तो सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय किस आधार पर ‘कानून के दायरे में’
गिना जा सकता है? इस संबंध में कोई भी तर्क दे सकता है कि संविधान के अनुच्छेद-141 में यह प्रावधान है कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया कोई भी आदेश पूरे देश में लागू होने के लिए बाध्य है और वह देश का कानून माना जाएगा। जहां तक अनुच्छेद-141 की बात है, तो इस बारे में कोई न तो यह कह सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को व्यापक दिशा-निर्देश देने का अधिकार नहीं है और न ही कोई सुप्रीम कोर्ट के अधिकार पर कोई प्रश्न चिन्ह लगा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण एवं वैधानिक प्रश्न है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ कोई ऐसा निर्णय या आदेश दे सकती है, जो पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा निर्धारित कानून के विपरीत हो? जाहिर है इसका नकारात्मक ही होगा। प्रश्न है कि जब सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ या विस्तृत खंडपीठ ने ज्ञान कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (1996), सुप्रीम कोर्ट के दो मामले 648 नामक मामले में स्पष्ट रूप से कह दिया था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को जीने के अधिकार के अंतर्गत ‘मृत्यु का अधिकार’ नहीं आता है, तो फिर पांच सदस्यीय खंडपीठ से अपेक्षाकृत छोटी-दो सदस्यीय खंडपीठ किसी नागरिक को ‘पैसिव यूथनेसिया’ के नाम पर ‘मृत्यु का अधिकार’ कैसे दे सकता है? सच है कि विक्रम देव सिंह तोमर बनाम स्टेट ऑफ बिहार- 1988 (सप्लीमेंट) एस. सी. सी. 734 नामक केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्रदत्त जीने का अधिकार के अंतर्गत मानवीय सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी आता है। पी. रथीनम बनाम केन्द्र सरकार (1994) 3 एस.सी.सी.-384 नामक केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘जीने का
अधिकार’ का तात्पर्य सिर्फ जीवित रहना ही नहीं है, बल्कि अच्छे स्वास्थ्य के साथ जीवित रहना भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तमाम शंकाएं दूर करते हुए ज्ञान कौर मामले में साफ कह दिया था कि सम्मान के साथ मृत्यु का अधिकार, का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि किसी व्यक्ति को अप्राकृतिक रूप से मृ त्यु पाने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि अनुच्छेद-21 के अंतर्गत जीने के अधिकार के तहत किसी व्यक्ति की प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक आयु को घटाने या खत्म करने का अधिकार नहीं आता है। प्रश्न उठता है कि जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ मृत्यु के अधिकार को देने से इनकार करती है, तो क्या दो जजों की खंडपीठ दया- मृत्यु को वैधानिक मानते हुए इस बारे में व्यापक दिशा-निर्देश जारी कर सकती
है। हमारी राय में वैधानिक दृष्टि से उचित यही होगा कि अरुणा शानबाग के दो जजों के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को कम से कम पांच जजों की या उससे बड़ी सात जजों की संवैधानिक खंडपीठ को व्यापक वैधानिक व्याख्या के लिए रैफर किया जाना चाहिए। उपरोक्त वैधानिक विषमता के अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय भारतीय समाज के नैतिक परंपरा के अनुरूप नहीं माना जा सकता। भारतीय समाज का आधार सहानुभूति एवं बड़ों का सत्कार है। पश्चिमी समाज की तरह हम अपने बुजुगरे को वृद्धाश्रम में नहीं भेजते हैं। यदि भारतीय समाज यूथनेशिया जैसी व्यवस्था को अपनाना शुरू कर देगा तो भारतीय समाज का मूलभूत आधार ही विखंडित हो जाएगा। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हमारे समाज को वाकई पै सिव यूथने शिया जैसी अनुमति की आवश्यकता है। जिस देश में 40-50 करोड़ लोग निरक्षर व ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, क्या वास्तव में यूथनेशिया उनकी आवश्यकता है? हम 21वीं सदी में हैं और आज विकसित देशों में से सिर्फ कुछ गिने-चुने देश ही हैं, जहां यूथनेशिया को वैधानिक दर्जा हासिल है। नीदरलैंड्स ने 2002 में पृथक अधिनियम बनाकर यूथनेशिया व डॉक्टरों के सहयोग से की जाने वाली हत्या को वैधानिक करार दिया है, लेकिन स्विट्जरलैंड में वैधानिक स्थिति थोड़ी अलग है। यहां पर यूथनेशिया तो गैरकानूनी है, यदि कोई मरीज स्वयं जहर वाला इंजेक्शन लगाकर आत्महत्या कर लें, तो यह अपराध की श्रे णी में नहीं आता। नीदरलैंड्स के बाद दूसरा देश बेल्जियम है, जहां पर यूथनेशिया को वैध ठहराया गया है। लेकिन ब्रिटेन, स्पेन, आस्ट्रिया, इटली, जर्मनी व फ्रांस आदि यूरोपीय देशों में यूथनेशिया और चिकित्सकीय सहयोग से आत्महत्या अपराध की श्रेणी में आता है। अमेरिका में सिर्फ तीन राज्यों- ऑरेगॉन, वाशिंगटन तथा मोंटाना में चिकित्सकीय सहयोग से आत्महत्या करना वैधानिक है, लेकिन यहां पर भी यूथनेशिया को वैध नहीं माना गया है। कनाडा में भी यूथनेशिया व चिकित्सकीय सहयोग से आत्महत्या आपराधिक श्रेणी में आता है। जाहिर है, भारत जैसे विकासशील देश को यू्थनेशिया नहीं, चिकित्सा सुविधा की आवश्यकता है। जब विश्व के सैकड़ों दे शों को यूथनेशिया जैसी किसी व्यवस्था की कोई आवश्यकता आज तक महसूस नहीं हुई है, तो फिर हमें क्यों इसकी जरूरत है। हमारे यहां कानून का दुरुपयोग कोई नयी बात नहीं है। जब चंद रुपये की लालच में पुलिस फर्जी मुठभेड़, अफीम, चरस, दहेज आदि के फर्जी मुकदमे रच सकती है, तो यूथनेशिया के दुरुपयोग की संभावना हमारे समाज में काफी ज्यादा है। (लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं )
सबसे महत्वपूर्ण एवं कानूनी सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ कोई ऐसा निर्णय या आदेश दे सकती है, जो पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा निर्धारित कानून के विपरीत हो?
अंगदान का अर्थ है कि व्यक्ति अपने जीवनकाल के दौरान प्रतिज्ञा करे कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शरीर के अंग मर रहे रोगियों की सहायता व उन्हें नया जीवन प्रदान क रने के लिए इस्तेमाल में लाये जा सकते हैं। मानव अंग अधिनियम-1994 के अनुसार केवल करीबी रक्त संबंधी (भाई, बहन, माता-पिता, बच्चे एवं करीबी संबंधी) ही प्रत्यारोपण के लिए दान कर सकता है। जीवित दानकर्ता केवल कुछ अंग दान कर सकता है, एक गुर्दा (क्योंकि एक गुर्दा शारीरिक कार्यकलापों के लिए पर्याप्त है), यकृत का कुछ भाग (दान किया गया कुछ भाग कुछ समय बाद दोबारा उत्पन्न हो जाएगा) दान कि या जा सकता है।
मृत्यु के बाद सभी अंग-दान किये जा सकते हैं-
हृदय, फेफड़े, यकृत, अग्नाशय, गुर्दे, आंखें, हृदय वाल्व, त्वचा, अस्थियां, अस्थि-मज्जा, संयोजी ऊतक, मध्य कान, रक्त वाहिकाएं अंग व ऊतक मुख्य रूप से दान किए जा सकते हैं।
अंग-दान कब होना चाहिए : दानकर्ता की दिमागी मृत्यु के 24 घंटे के भीतर स्वस्थ अंग दानकर्ता से पाने वाले में प्रत्यारोपित कर देने चाहिए।
दानकर्ता कौन हो सकता है : कोई भी व्यक्ति आयु, जाति एवं लिंग को ध्यान में न रखते हुए अंग और ऊतक दान कर सकता है। 18 वर्ष की आयु से कम होने पर माता-पिता या कानूनी अभिभावक की सहमति आवश्यक है। मृत्यु के समय दान के लिए चिकित्सा सुविधा निर्धारित की जाती है।
किन रोगों का उपचार संभव: हृदय-हृदय के प्रत्यारोपण से। फेफड़े-अंतस्थ फेफड़ा रोग, वृक्क-वृक्कपात, यकृत-यकृत कोमा और पात, आग्न्याशय-मधुमेह, नेत्रहीनता, हृदय वाल्व-कपाटिकी रोग, त्वचा-दग्ध रोगी।
मानव अंगों को बेचना : मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम-1994 के अंतर्गत मानव अंगों और ऊतकों को बेचने पर प्रतिबंध है। अंग बेचने व खरीदने वाले को जुर्माना या जेल हो सकती है। अंग पुनस्र्थापन बैंकिंग संस्था, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का उद्देश्य अंगदान को प्रोत्साहित करना, मानव अंगों का सही और समान वितरण एवं इन अंगों का श्रेष्ठ उपयोग करना है। ओरबो की चीफ डॉ. आरती विज कहती हैं , प्रत्यारोपण के इच्छुक मृत प्राय अस्वस्थ रोगियों की प्रतीक्षा सूची, दानकर्ता का पंजीकरण, अंग-प्राप्तकर्ता का दानकर्ता से मिलान, अंग-प्राप्ति से लेकर प्रत्यारोपण तक तालमेल बिठाकर कार्य करना, सभी संबंधित अस्पतालों, संगठनों और व्यक्तियों में सूचना का प्रसार करना, जागरूकता का जबरदस्त प्रसार करना, अंगदान और प्रत्यारोपण कार्यकलापों को प्रोत्साहित करना होता है।
Sabhar- SAHARA

Monday, March 7, 2011

नारी सशक्तिकरण की सच्चाई

आज की नारी में भले ही आगे बढ़ने की छटपटाहट हो और जीवन और समाज के हर क्षेत्र में कुछ नया कर दिखाने का सपना हो, साथ ही आधी दुनिया में नया सवेरा लाने और ऐसी सशक्त इबारत लिखने का माद्दा हो, जो महिला को अबला न रहकर सबला बना देती हो। भारत की पराधीनता की बेडियां कट जाने के बाद नारी ने भले ही अपने भविष्य के लिए जोरदार अभियान चालया हो और कई मोर्चो पर उसने प्रमाणित भी किया हो लेकिन इसके बावजूद भी महिलाएं कहीं न कहीं दोराहे पर खड़ी दिखाई देती है। महिलाओं के अधिकारों के लिए गठित महिला आयोग महज नाम के रह गये हैं। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस सौ साल का हो गया हो लेकिन आज भी महिलाओं का सर्वांगिण विकास का दावा अधूरा है। मार्च 2010 की कैग की रिपोर्ट पर नजर डाले तो देश में महिलाओं की स्थिति दयानीय है। कैग ने अपनी रिपोर्ट में साफ किया कि देश में बनाया गया राष्ट्रीय महिला आयोग पूरी तरह से भ्रष्ट है। कैग के अनुसार साल 2008-09 में आयोग के पास लगभग बारह हजार आठ सौ उन्नींस शिकायतें आयी। जिसमें से सिर्फ सात हजार पांच सौ नौ शिकायतों पर ही गौर किया गया। जबकि कार्रवाई मात्र एक हजार सत्तर पर की गई। इन आंकड़ों पर अगर गौर किया जाय तो साफ होता है कि देश में महिलाओं का सशक्तिकरण कम उनका उत्पीड़न ज्यादा हो रहा है। जबकि महिलाओं के अधिकारों की बात करते वाले आयोग महज नाम के रह गये है। बिडंबना देखिए कि देशभर के जेलों में बंद महिलाओं की दशा का जायज़ा पिछले चार सालों से नहीं लिया गया है। जो कि महिला आयोग के कार्य शैली और मानवीय सोच पर प्रश्न चिन्ह खडा कर देता है। उत्तराखंड की स्थिति भी इससे कोई जुदा नहीं है। जिस राज्य को बनाने में महिलाओं ने अपनी इज्जत तक दांव पर लगा दी थी उसी राज्य में महिलाआंे का उत्पीड़न का ग्राफ हर रोज कुलाछे भर रहा है। प्रदेश में महिलाओं के अधिकारों के लिए गठित आयोग काम का न धाम सिर्फ नाम का रहा गया है। नौ अक्टूबर 2003 को प्रदेश में राज्य महिला आयोग अस्तित्व में आया। तब से लेकर अब तक आयोग को 4641 शिकायतें मिली। जिसमें साल 2003-04 में आयोग के पास 40 शिकायतें मिली, तो साल 2004-2005 में 128 तो साल 2005-06 में 457। महिला उत्पीड़न मामला साल 2006-07 में बढ़कर 566 हुआ। तो साल 2007-08 में यह संख्या 747 तक जा पहुंचा। 2008-09 में उत्पीड़न का ग्राफ में ईजाफा हुआ और यह संख्या 913 हुई। वहीं 01 अप्रैल 2009 से 31 मार्च 2010 तक आयोग के पास 737 महिला उत्पीड़न के मामले आये। जबकि इस साल यह आंकड़ा 1053 तक जा पहुचा। साल दर साल बढ़ते आंकडे़ बताते हैं, कि प्रदेश में महिलओं की स्थिति अच्छी नहीं हैं। राज्य ने एक दशक का सफर तय कर दिया लेकिन इस सूबे में अभी तक महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक भी नीति नहीं हैं। लिहाजा प्रदेश में महिलाओं का विकास चाहिए तो इसके लिए एक अदद स्वस्थ नीति बनानी होगी साथ ही हर क्षेत्र में महिलाओं की भागदारी भी तय होनी चाहिए। इतना ही नहीं महिलाओं के हकों के लिए गठित महिला आयोग को भी अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर होना होगा। तभी जाकर इस प्रदेश की महिलाओं का सम्मान होगा और उनका विकास होगा। 

Friday, March 4, 2011

मै जिंदा हूं हुजूर

मै जिंदा हूं हुजूर...... ये गुहार उस बुजुर्ग की है, जो समाज कल्याण विभाग की धूल चढ़ी फाइलों में स्वर्ग पहुंचा दिया गया है। मामला उत्तरकाशी जिले हैं, जहां सत्तर वर्षीय मुताडू लाल समाज कल्याण विभाग की नजरों में स्वर्गसिधार गया है। जिसके चलते विभाग ने दो साल पहले सरकार द्वार मिलने वाली तमाम पेंशन बंद कर दी। इसकी शिकायत मुताडू लाल ने अपने स्तर से विभाग से की लेकिन किसी भी अधिकारी ने इस बुजुर्ग की एक नहीं सुनी। बिडंबना देखिए अपने जिंदा रहने सबूत इससे ज्यादा क्या होगा कि वो अधिकारी के सामने खड़ा हो लेकिन अधिकारी हैं कि अपने विभाग के कर्मचारियों की उस सत्यापन रिपोर्ट पर भरोसा कर रहे हैं जो शायद घर में खुद तैयार की है। सरकारी काम काज के तौर तरीके देखिए आपको भी खुद हौरानी होगी। लेकिन इन अधिकारियों को नहीं जो किसी भी आदमी को जब चाहें स्वर्ग पहुचा दें और जब चाहे वापस धरती पर बुले लें। ऐसा नहीं है कि मुताडूू लाल ने इसकी जानकारी जिला के आला अधिकारियों न दी हो लेकिन इसके बाद भी अधिकारी मुताडू लाल की रूकी पेंशन नहीं दिला पाये। इतना ही नहीं मुताडू लाल ने इसकी शिकायत जनप्रतिनिधियों से भी लेकिन मामला ढाक के तीन पात रहा। भला हो गांव के पूर्व प्रधान का जिसने इस पीड़ित की पीड़ा समझी।
जुलाई 2009 के बाद पेंशन न मिलने परेशान मुताडू लाल ने इसकी शिकायत की। कई शिवरों में अपनी अर्जी दी। लेकिन कहीं से भी मदद नहीं मिली। इस बात की खबर मीडिया को लगी तो मीडिया ने समाज कल्याण अधिकारी से इसकी जानकारी ली। मीडिया की मौजूदगी में जब विभागीय कारनामों का पता चला तो कर्मचारियों के होश गुम हो गये। आनन-फानन में जिला समाज कल्याण अधिकारी ने पेंशन जारी करने आदेश दिये। साथ ही ग्राम विकास अधिकारी को दोबारा सत्यापन करने का फरमान सुनाया। ऐसा नहीं है कि सरकारी काम-काज में ये पहली बार हुआ हो इससे पहले भी कई लोगों को समाज कल्याण विभाग ने मृत घोषित किया। लेकिन बिडंबना देखिए कि विभाग ने इससे कोई सबक नहीं लिया। लिहाजा समाज कल्याण विभाग की कार्य प्रणाली पर सवाल उठना लाजमी है।

Tuesday, March 1, 2011

गढ़ों की गड़बडाई गणित!


(वीरू भड़ों कु देश बावन गढ़ों कु देश) लोक गायक नरेद्र सिंह नेगी के इस गीत में गढ़वाल साम्राज्य और यहां के वीर और उनकी वीरता का जिक्र है। इस गीत के माध्यम से भारत संघ में विलय हुए टिहरी रियासत के उन गढ़ों का भी जिक्र है। जिन पर गढ़वाल नरेश का शासन रहा। गढ़वाल साम्राज्य में गढ़ों का खासा महत्व रहा। बावन गढ़ों में समिटे गढ़वाल साम्राज्य के हर गढ़ का अपना वैभव और इतिहास रहा है। इन गढ़ों में लोई गढ़, बडियार गढ़, लोदन, भरदार गढ़,तोप गढ़, चौंडा़गढ़, चांदपुर गढ़, फत्यांणां, बधांण, कुंजडी, भरपूर गढ़, क्वीली गढ़, मौल्या, रैका गढ़, उप्पू गढ़, कंडारा, लोहाब, संगेला, माब, बगरी, रंवाई गढ़, नाळा, जौंट गढ़, मुंगरा, हिन्दाव गढ़, कांडा, उमटा, खैरा, तिड़िया, हैरासू, कोट, साबली, नवासू, वनगढ़, चौंदकोट, गुजडू, मासूर गढ़, रामीबदलपुर गढ़, उल्खा गढ़, लंगोर गढ़, अजमेर, नयाल, खिमसारी, सुम्याळ, देवलगढ़, रानी गढ़ संकरी, कोली, भुवनासिर, गुरू गढ़, बांगर, दसोली गढ़, है। लेकिन हाल ही में गढ़वाल रियासत के गढ़ों की संख्या पर नयी बहस छिड गई है। 1823 के सर्वे जर्नल पर निगाह डाले तो गढ़वाल रियासत में 52 नहीं बल्कि 55 गढ़ मिलते हैं। इतिहास में गहरी रूचि रखने वाले मसूरी के गोपाल भारद्वाज ने दावा किया कि इंग्लैंड के जर्नल्स ऑफ रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी से मिले तत्कालीन दस्तावेज में गढ़वाल साम्राज्य के अधीन पचपन गढ़ थे न कि बावन गढ़। इतिहासकार गोपाल भारद्वाज का कहना है कि 1817 में भारत के तत्कालीन सर्वेयर जनरल एचएल हर्बर्ट और जनरल जौन अंथोनी होजसंस ने सिरमौर-गढ़वाल की पैदल यात्रा की थी। इनका मकसद गंगा यमुना के उद्गम स्थल को ढूंढना था। उनके सर्वे बताते हैं कि जब वो लोग यात्रा पर निकले तेा उन्हें तीन गढ़ों से होते हुए गंगा के मायके पहुचे। इतिहासकार बताते हैं कि जर्नल में एचएल हर्बट और जौन अंथोनी हेजसंस ने लिखा कि वो 24 मार्च 1817 को कालसी से चले और 24 हजार पांच सौ ग्यारह कदम चलने पर आमला नदी से एक खाई नजर आयी। खाई से छह हजार कदम पर दो मंजिला बैराटगढ़ की तेवार नजर आयी। आपको बता दें कि तेवार उस दौरान गढ़पतियों का महल हुआ करता था। जो कि समुद्र तल से 6508 फुट की ऊचाई पर है। इसी किले को गोरखा सेना ने कर्नल कारपेंटर की अंग्रेजी सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया था।इतना ही नहीं इतिहासकार बताते हैं कि बैराटगढ़ से चलकर ये दोनों सर्वेयर दूसरी जगह पहुंचे जिसे उन्होने अपने नक्शे में बस्तील गढ बताया। जो कि हिमाचल और जौनसार की सीमा के पास और देहरादून जिले में पड़ता है। तीसरे गढ़ मसूरी में बताया गया। जिसका दुधली गढ़ के नाम से जिक्र है। इतिहास कार गोपाल भारद्वाज का कहना है कि इन गढ़ों की अभी तक किसी के पास जानकारी नहीं थी। हालांकि उन्होंन ये भी बताया कि पुरातत्व विभाग बैराटगढ़ को गढ़ के रूप में लगभग अपनी स्वीकृति देता है। इतिहासकार गोपाल भारद्वाज के पास मौजूद ब्रिटिशकालीन तथ्यों ने टिहरी रियासत के इतिहास को दोबारा समझने और जानने के लिए मजबूर तो कर दिया साथ गढ़ों की संख्या पर एक नई बहस भी छेड दी है। गढ़वाल साम्राज्य के अधीन अभी तक 52 गढ़ बताये जाते थे लेकिन तीन और गढ़ों के तथ्य मिलने से गढ़ों के इस गीत के बोल बदल तो सकते हैं लेकिन गढ़वाल के तीन हजार साल पुराने इतिहास की जानकारी हासिल करना आसान काम नहीं होगा।