Saturday, June 23, 2012

अहा ! जिंदगी



                         
ऑफिस से निकला था कि सहसा याद आया, इस बार की आह जिंदगी नहीं खरीदी। पहले उत्सुकता बनी रहती थी, अहा जिंदगी खरीदूंगा। 20 तारीख के बाद से ही अहा जिंदगी खरीदने की सोचे रहता था। कई दफा इस चक्कर से बुक स्टोर तक चला जाता था। और बुक स्टोर वाले से अहा जिंदगी मांगता.. तो वह अभी नहीं आयी कह कर मना कर देता था। बोलता की कि समय से पहले भला कोई पत्र-पत्रिका बाजार में आती है। ये बात में खूब जानता और समझता भी था, लेकिन ना जाने क्यों मैं अहा जिंदगी खरीदने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाता था, जिसके पीछे कई कारण थे, उनमें से एक कारण साफ था कि इसका मैं नियमित पाठक था और इसकी सामाग्री मुझे बेहद ही पसंद आती थी, दूसरा कारण कुछ ऐसा नही था लेकिन कोई दूसरा भी इसे बड़ी आत्मीयता से पढ़ता था, जो मुझे अच्छा लगता था, कि चलो कोई ऐसी चीज तो है जिसे कोई पसंद करता हो, क्योंकि साथ के जो लोग थे उनमें कोई ऐसा नहीं था जो पढ़ने में दिलचस्पी दिखाता।
बुक स्टोर वाले से जब मैंने मैग्जीन मांगी तो वो बोला भैया अभी नहीं आयी और मुस्करा कर कल-परसों तक आने का भरोसा दिया। लेकिन मुझे तो जल्दी खरीदने की धुन सवार थी, और इससे ज्यादा मतलब मुझे ना था। मेरी पसंदीदा चीज जब मुझे नहीं मिलती तो मेरी उत्सुकता उसके प्रति और बढ़ जाती है, खैर इस बुक स्टोर पर नहीं मिली तो क्या ये दिलासा देकर मैं ये सोचने लगा कि शहर में और भी तो बड़े बुक स्टोर हैं जहां ये किताब सबसे पहले आती है। लिहाजा आज का मोह त्याग मैंने कल सुबह बुक वर्ड जाने की सोची।
अगले दिन ऑफिस जा रहा था तो जिस रास्ते से रोज जाता था उस रास्ते से ना जाकर दूसरा रास्ता अखतियार किया, जिस रास्ते से मुझे किताब मिलने की सौ फीसदी उम्मीद थी। घर से जल्दी निकला.... सीधे बुक वर्ड पहुंचा जहां सच में किताबों का संसार है, नीले, पीले, लाल और रंगीन गत्तों वाली ढेरों किताबे थी, प्रेम चंद से लेकर उत्तराख्ंाड के प्रेमचंद विद्यासागर नौटियाल का भैंस का कटिया और युमना के बागी बेटे उपन्यास भी आंखों के सामने नाच रहा था, दोनों ही उपन्यास मेरे पसंदीदा उपन्यास हैं, उनका भीम अकेला उपन्यास मैने उनके घर की अलमारी में देखा था तो बुक वर्ड में उसे देखने की चाहत भी उमड़ पडी। बुक वर्ड की एक-एक किताब देख मेरा मन नाच उठने लगा। लेकिन मुझे तो अपनी पसंदीदा मैगजीन खरीदनी थी, किताबों केा उलट-पुलट रहा था कि कहीं दुबक रखी हो, कुछ हाथ नहीं लगा अभी तक शायद मैग्जीन पब्लिस होकर नहीं आयी। स्वप्न तुम सच हो मन में बुदबुदा रहा था, पर कहां सपने सच होते हैं। हार मान कर मैं ऑफिस की ओर चल दिया क्योंकि यहां भी तो लेट हो रहा था।
ठंड के दिन लद गये थे पसीने के दिन शुरू होने वाले थे, अप्रैल के तपते महीने मैगजीन को लेकर ऐसी उत्सुकता ना थी। इसका का कारण भी जायज था। तब रूमानी मेघ उमड़े हुए थे एक आशा थी कि कालीदास और हिमवंत कवि चंदकुवंर बर्त्वाल की कविताओं के ये हिमालयी मेघ उस उसर जमीन को तर कर देंगे जहां प्रेम की कपोल कली खिल रही थी। हर कली की तरह इसे भी फूल बनना था, लेकिन बगीचे के माली की बेरूखी के चलते ये कली फूूल बनने से पहले मुरझा गई। प्रकृति के प्रांगण में शायद ऐसा कम होता होगा लेकिन मानव के मायाजाल में तो ये अक्सर होता रहता है, फर्क सिर्फ इतना है कि मानव लालची होता है और प्रकृति के पास ऐसा तत्त्व नहीं होता। ऐसे में कली का फूल बनना अब उतना ही कठिन हो गया, जितना की जेठ के महिने में आसमान से पानी बरसना। क्योंकि संभावना दोनों में जिंदा है।
इस बार अहा जिंदगी खरीदने का ख्याल देर में आया। एक दिन ऑफिस से घर जा रहा था कि जब रास्ते में बुक स्टोर दिखा तो इस बार का अंक पढ़ने की चाहत हुई। कि क्या पता कि इस बार क्या होगा। कुछ नई चीज पढ़ने को मिले। अंधेरे को चीरती हुई बाइक की लाइटे अब ऐसे एरिया में प्रवेश कर चुकी थी जहां स्ट्रीट लाइटंे मानों अपना प्रकाश बिखेर कर मेरे विचारों का स्वागत कर रही हो। और उसकी रोशनी में असंख्य कीट खुशी का स्नान कर रहे हो। इसी बीच मेरे मन में भीषण द्वंद चल रहा था कि इस बार दो खरीदूं या एक। द्वंद का स्तर इतना बढ़ गया था कि सर दर्द करने लगा।
एक या दो खरीदने की गुत्थमगुत्था चल रही थी। सोच रहा था कि एक तो खरीदनी है पर दूसरी क्यों? जब इसे पढ़ने वाले बटोही (रहागीर) ने राह दूसरी पकड़ दी। ये सोचते-सोचते मेरे घर की दूरी कम होती जा रही थी, मैं इसी द्वंद से जूझता जा रहा था और घर की दूरी कम होती जा रही थी। इसी बीच बाइक रूकी और मेरे साथ वाले ने मुझे उतरने को कहा, मैं बाइक से इस तरह उतरा कि जैसे मासूम बच्चे को गोदी से पटक दिया गया हो, मेरे साथी ने मेरे से विदा ली और अपने घर की ओर निकल गया। मैं भी अपने घर की ओर निकला लेकिन किताब खरीदने का द्वंद अभी भी मन में चल रहा था। मैं पैदल मार्च कर रहा था, फिर सोचा कि क्यों ना अभी बुक स्टोर चला जाऊं और कितबा खरीद लूं। अपनी जिद्द के मुताबिक मैंने घर जाने का विचार त्यागा और उल्टे पांव बुक स्टोर की ओर चल पड़ा। जिद्दी और अक्कड़पन मुझे विरासत में मिला, राजपूताना खून जो रगों में दौड़ता है। जिद के आगे भले ही कुछ देर मेरा विनम्र स्वभाव आ जाता है लेकिन दिल में इसकी कसक दोगुनी हो जाती है।
खैर बुक स्टोर पर पहुंचा तो वहां लाइट ना थी, बिजली का यूं चला जाना मुझे अच्छा नहीं लगा । पुरा इलाका बिना लाइट के भूतिया लग रहा था खास कर वो बुक स्टोर जहां में अहा जिंदगी खरीदने गया था। गुप अंधेरा होने के चलते मैं मैगजीन कैसे देखता, राह में ये सोचे जा रहा था। बुक स्टोर पर दस्तक देते ही, दुकानवाला मुझे पहचान गया था। मुझे देखते ही वह सहसा बोल उठा, भाई जी आपकी अहा जिंदगी आ गई है। मानो वो मेरी राह ताक रहा था। इस बार उसने मेरे लेट आने का कारण पूछा, लेकिन मैं मुस्करा दिया। शायद अंधेरे में उसे मेरी मुस्कान ना दिखी वरना वो भी मुस्करा देता। मेरे चेहरे पर रंगत गायब थी और मेरी फीकी मुस्कान को दुकानदार अंधेरे में महसूस नहीं कर पाया। उसे क्या पता कि मैगजीन के लिए हमेशा उत्सुक रहने वाला इस बार क्यों उदास है। उत्सुकता, उमंग और चंचलता मानों कहीं दूर गांव की मुंडेर पर बैठी हो, उसकी जगह निरासा, हताशा और उदासी का गहना धारण कर दिया हो और उम्मीदों की नाव हिचकोले खा कर किनारा तलाश रही हो।
इसी बीच बुक स्टोर पर काम करने वाले लड़के ने झट से दो मैगजीने निकाली और मेरे हाथ में थमा दी। उसके काम में अद्भुत वेग था, प्रकाश की गति मानों उसे विरासत में मिली हो। जैसे कोई शिकारी अपने शिकार पर घात लगाये बैठा हो और मौका देखकर उस पर झपट पड़ा हो। जैसे बगुला मछली को ताक कर उसे अपनी चोंच से पकड़ देता हैं। ऐसा ही अद्भुत आवेश उस बालक में था। एकाएक मेरे हाथों में किताब आते ही मैं कन्फ्यूज सा हो गया। एक खरीदूं या दो, अजीब स्थिति में था। साहस बटोर कर मैने दुकान वाले को एक ही मैगजीन खरीदने को कहा, मन तो मेरा दो खरीदने को कर रहा था, लेकिन किसके लिए प्रश्न दानव की तरह मेरे सर पर प्रहार कर रहा था। कि तभी एडिसन के अविष्कार से निकली रोशनी से पूरा इलाका जगमग हो उठा। वो अंधेरे में भूतिया सी लग रही दुकान भी सजीव हो उठी और वहां रखी सैकड़ों किताबे हंसती प्रतीत हो रही थी।
बल्बों से निकलता तेज प्रकाश मानों धरती को भी चीरने पर उतावला हो। कि इसी बीच सभी खुश हुए और लाइट आने की खुशी मना रहे थे क्योंकि सभी का पसीने से बुरा हाल था। मेरे चेहरे पर वही मायूसी पसरी हुई थी, लटका हुआ चेहरा दुकानदार को अच्छा ना लगा और वो बोला कि आज थके हुए नजर आ रहे हो।  मैंने भी कोई जवाब नहीं दिया और ना कोई जवाब सूझ रहा था लिहाजा दुकानदार को नोट थमा दिया। बड़ा नोट देख कर उसने कहा कि इस बार एह ही मैगजीन खरीद रहे हो। इधर में ख्यालों में खोया हुआ था दुकानदार के सवाल ने मेरे मन के पटल को खटखटाया। उस वक्त में पिछले महीने की यादों में खोया हुआ था, वो इसलिए कि पिछली बार की मैगजीन उस बटोही (रहागीर) ने नहीं बांची, क्योंकि पहले ही मैगजीन खरीदी जा चुकी थी। सोच रहा था कि इस मैगजीन को पढ़ने वाला तो संग है ही नहीं, किताब खरीदूंगा भी तो दूंगा कैसे, क्योंकि अब तो उन्होने नाता ही तोड़ दिया है।
खैर जो भी हो, बटोही ने भले ही अपना दूसरा रास्ता अख्तियार कर लिया हो, लेकिन कम समय की इस मुलाकात में किताब की अहमियत मुझे और उस बटोही को हमेशा याद रहेगी।

सूब रहे जलóोत्र


उत्तराखंड, कुदरत ने भले इस पहाड़ी प्रदेश को खूब... खूबसूरती दी हो, लेकिन प्रकृति की नेमत से भरपूर, इस पहाड़ी प्रदेश में इन दिनों हाहाकार मचा हुआ है। बिडंबना देखिए कि नदियों के प्रदेश में ही, पानी के लिए लोग तरस रहे हैं। ये हाल उस सूबे के है, जो दूसरे प्रदेशों को पानी तो देता है, लेकिन उसके पहाड़ों के हलक सूखे हुए हैं। ये वहीं पहाड़ हैं जो ऊपर से चाहे कितने सख्त और रुखे क्यों न लगते हों, लेकिन सबसे ज्यादा पानी उन्ही के पास रहा है। भले ही नंग-धड़ंग ये काले कलूटे पहाड़ अपनी छाती पर पेड़ तो दूर नाजुक-नरम घास को भी जड़ें जमाने की इजाजत नहीं देते हो, लेकिन उनके भीतर भी पानी के असंख्य सोते छलछलाते रहे हैं। हजारों-हजार झरनों, चश्मों के संगीत से गंूजने वाला गंगा और यमुना का ये मायका अब जल अभाव से अछूता नहीं रहा। नदियों के प्रदेश के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। सूबे में पेयजल किल्लत बढ़ती जा रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सूबे के साठ फीसदी जल स्रोतों में लगातार जल रिसाव कम होता जा रहा है। जबकि पचास के आसपास सोते दम तोड़ चुके हैं। सूबे में जल स्रोतों के  सूखने की रफ्तार तेज हो चुकी है। जिसका असर साफ देखने को मिल रहा है। प्रदेश में जलापूर्ति की जिम्मेदारी जल संस्थान के पास है। और मौजूदा समय में ये विभाग पांच हजार तीन  सौ छियालीस  ग्रामीण और तिरेसठ शहरी पेयजल परियोजनाओं का संचालन कर रहा है। लेकिन बिडंबना देखिए कि इन परियोजनाओं में से 113 से आंशिक जलापूर्ति की जा रही है, जबकि 47 परियोजनाएं दम तोड़ चुकी हैं। बंद होने वाली परियोजना की वजह पेयजल स्रोतों का सूखना है। इन परियोजनाओं मंे 312 पंप आधारित परियोजना भी हैं। जिनमें से पौड़ी, चंबा और कुमाऊं में कुल मिलाकर चार परियोजनाएं ठप पड़ चुकी है। जिससे जलापूर्ति करना पेयजल महकमे के लिए चुनौती बना हुआ है। जलस्रोतों के सूखने के दोषी सीधे तौर हम खुद हैं। हमारी ही गलतियों की वजह से आज पहाड़ का आंचल सूखा हुआ है। जिसकी वहज से आज इस प्रदेश के समाज को पानी के लिए रतजगा करना पड़ रहा है। हालात ये है कि पानी के लिए लोग आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। आम तौर पर पहाड़ी समाज को लड़ाई-झगड़े से दूर रहने वाला और शांतिप्रिय माना जाता है, लेकिन पानी के संकट से इसका मिजाज बदल रहा है। पहाड़ में संयम टूट रहा है, लोग चिड़चिड़े और परले दर्जे के स्वार्थी होते जा रहे हैं। पानी के लिए  फूट रहे सर और गाली-गलौच के बीच कतई भी नहीं लगता कि ये उस पहाड़ में हो रहा है, जिसकी भलमनसाहत का कायल सात संमदर पार से आया अंग्रेज एटकिंशन भी रहा, जिसने 19 वीं सदी में लिखे अपने ‘‘एटकिशन गजेटियर’’ में यहां के लोगों की सज्जनता की शान में कसीदे पढ़े थे। लेकिन वही पहाड़ आज पानी के लिए खंड-खंड होकर बिखर रहा है। सूबे के गहने कहे जाने वाले जंगल भी आग की भेंट चढ़ रहे हैं, बांज, बुरांश के हरे जंगल मिटते जा रहे हैं, जिसका असर सीधे तौर पर जलस्रोत पर पड़ रहा है, प्रदेश के ऐसे हालातों में रहीम याद आते हैं, उन्होने बहुत पहले चेता दिया था कि बिना पानी के सब सूना है। गजब देखिए....रहीम की काव्य रचना की पंक्तियों को हम संदर्भ सहित व्याख्या करने में लगे रहे, और ना जाने कब पानी हमारे आस-पास से सिधार गया।

संकट में बुग्याल




मखमली-अनछुई हरियाली वादियाँ, जहां स्वर्ग की अनुभूति का अहसास होता है, संुदर, मनमोहक पहाड़ियां, पेड़ पौधों के बीच किलकारियाँ भरते-अठखेलियाँ करते वन्य जीव, पक्षियों के चहकने की सुरीली आवाज, बर्फ की लंबी पसरी हुई चादर, जिस पर सूरज का प्रकाश पड़ते ही चांदी जैसे चमक उठती है। ऐसा अहसास देवभूमि के उन बुग्यालों से गयाब हो रहा है, जिन पर कुदरत ने अपनी नेमत खूब बरपी। प्राकृतिक खजाने से भरपूर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में मखमली मैदान, अब अपनी खूबसूरती खो रहे हैं। हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल और प्रकृति प्रेमी कवि सुमित्रानंदन पंत और ना जाने कितने कवियों की कविताओं में जिन बुग्यालों के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन मिलता है। वही बुग्याल धीरे-धीरे अपने खात्मे की ओर है। अगर यही स्थिति रही तो उत्तराखंड के पहाड़ों की गोद में पसरे ये हरे-भरे मैदान... किस्सों, कहानियांे, कविताओं और महज इंटरनेट की फोटो गैलरियों में पढ़े और देखे जायेंगे। विडंबना देखिए कि जिस प्रदेश में स्वीट्जरलैंड से भी ज्यादा खूबसूरती है, उसी प्रदेश की सरकार अपने यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से अनजान है। वन संपदा का धनी प्रदेश होने के बावजूद राज्य सरकार इसका दोहन करने में आज भी असमर्थ है। नतीजतन कुछ धन्नासेठ पहाड़ की खूबसूरती को अपना धंधा बना कर, यहां के बुग्यालों का अवैध दोहन करने लगे हैं। हालांकि कुछ जागरूक लोगों ने सरकार और शासन से बुग्यालों के संरक्षण के लिए ठोस पहल की मांग की है। लेकिन अभी राज्य सरकार इस ओर कोई कदम उठाती नहीं दिख रही है।
उत्तरकाशी, टिहरी, बागेश्वर, नैनीताल, पिथौरागढ़ और चमोली में मौजूद मखमली घास के मैदान संकट में है। विश्व प्रसिद्ध आली और बेदनी बुग्याल की बात करें तो, एशिया महाद्वीप के सबसे बड़े क्षेत्रफल में फैले इन बुग्यालों में बेवजह और आप्रत्याशित तौर पर अवैध दोहन किया जा रहा है। लेकिन इसकी खबर राज्य सरकार को होने के बावजूद उन लोगों पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही है, जो इसे अपना धंधा बनाये हुए हैं। हालांकि राज्य सरकार ने साल 2007 में बुग्यालों को प्राकृतिक धरोहर मानते हुए इनके संरक्षण की बात कही। लेकिन तब से आज तक इनके संरक्षण के लिए कोई नीति नहीं बनाई गई और राज्य सरकार की एक नेक योजना महज फइलों तक सिमट कर रह गई। जागरूक लोगों का कहना है कि जिन बुग्यालों पर प्रथम अधिकार वन्य जीवों का है, वही वन्य जीव अब यहां ढूंढे नहीं मिलते।
साल 2013 में इन्हीं बुग्यालों से होते हुए नंदाराज जात यात्रा भी गुजरेगी, ऐसे में अगर इनके संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया जायेगा, तो ये धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे। लोगों का कहना है कि नंदा देवी राजजात मार्ग के बीच में पड़ने वाले बुग्यालों के आस-पास पानी के स्त्रोत सूख गये हैं। अकेले बेदनी बुग्याल में तेरह जल स्त्रोंत सूख गये हैं। लोगों का कहना है कि इसका कारण इन इलाकों में मानवीय दखल और अवैध खनन का होना है। अगर इन पर शीघ्र प्रतिबंध नहीं लगाया गया तो ये हरे-भरे बुग्याल मरूस्थल में नजर आयेंगे।
हिमवंत कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने बसंत आगमन पर बुग्याल और यहां के पहाड़ों के सौंदर्य पर लिखा था कि अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे, दिशा-दिशा से अब सौरभ से धूमिल मेघ उठेंगे। जिस पहाड़ के सौंदर्य पर कवियों ने अपने शब्दरचना की, उसी पहाड़ की वादियों में खिलने वाले रंग-बिरंगे फूलों की मदहोश करती खुशबू, दूर तक फैली मुलायम हरी घास की चादर, दरख्तों के पीछे से दिखने वाला हिम शिखरों का संसार, सुरमई शाम में ठंडी हवाओं के झोंके और ओस की फुहारें गयाब हो रही है। अगर रही स्थिति तो आने वाले समय में पहाड़ की गोदी में फैला मखमली घास का मैदान किसी मरूस्थल में बदलते देर नहीं लगेगी। और हमारी कुल मूर्खता का गुणनफल इस सौदर्य के खत्मे का जिम्मेदार होगा। लिहाजा अभी भी वक्त है, प्रकृति के इस अनमोल खजाने के संरक्षण के लिए पहल करनी जरूरी है।

भीम अकेला नहीं!


उत्तराखंड की राजनीति में आया भूचाल आखिककार थम गया है। भाजपा की उधड़ी हुई सांसे अब सामान्य हो चुकी है, लेकिन डर अभी भी बरकरार है, भाजपा का ये डर किरण की करतूत से उपजा था, मंडल के कांग्रेस का दामन थामन से भाजपा के कमंडल में जो सुनामी आयी थी, उस सुनामी में कुछेक विधायकों के बहने के आसार थे। हुआ भी कुछ ऐसा ही, टिहरी के घनसाली में खिला भाजपा का फूल भीमलाल आर्य के कांग्रेस में चले जाने से मुरझाने वाला था, लेकिन ऐन वक्त पर भाजपा के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने भीमलाल को उठाकर, देहरादून में पार्टी नेताओं के सामने पेश किया। टिहरी से देहरादून की दूरी तय करते करते भीमलाल ने भी अपने सुर बदले और अपने आपको पार्टी का अनुशासित सिपाही बताया। टिहरी और दून की दूरी के बीच ऐसा क्या हुआ कि भीमलाल ने पूरे ड्रामे का ठीकरा मीडिया के सर फोड़ा। लेकिन भीमलाल ने ये बात नहीं बताई कि पिछले सात दिनों से वो कहां लापता थे। खैर ये बात भीमलाल कैसे स्वीकारते कि वो भी कांग्रेस का दामन थामने वाले थे। जिस प्रकार की खबर सामने आ रही थी उससे साफ हो चला था कि भीमलाल आर्य कांग्रेस की शरण में जाने वाले थे, इतना ही नहीं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल और नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने भी भीमलाल की घर आने की आस छोड़ दी थी, लेकिन इसके बाद भाजपा के दो बिग बी ने मोर्चा संभाला और स्थिति को काबू में कर भीमलाल आर्य की घर वापसी कराने में कामयाबी पायी। घनसाली विधायक के घर वापसी के पीछे बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं का सक्रिय होना और परिवार सहित क्षेत्रिय जनता का मुखर होना भी है। भले ही भीमलाल आर्य ने साफ कर दिया हो कि वो कांग्रेस में नहीं जाने वाले हैं, लेकिन भाजपा के विधायक के द्वारा रचे ड्रामे से पार्टी भविष्य के लिए सर्तक हो चुकी है। किरण मंडल के कांग्रेस में जाने से भयभीत भाजपा किसी भी कीमत पर अपना विधायक नहीं खोना चाहती। लिहाजा भाजपा ने कुछ दिन पहले उन विधायकों से भी मीडिया में सफाई दिलवाई कि उनके नाम को यूं ही मीडिया में घसीटा जा रहा है। पुरोला विधायक मालचंद और लैंसडाउन विधायक दिलीप रावत के बयान के बाद भले ही भाजपा ने थोड़ी राहत महसूस की हो लेकिन राजनीति के चौसर पर खेल में कब बाजी हाथ से निकल जाये इस बात को भाजपा नेता अच्छी तरह जानते भी है और समझते भी है। लिहाजा ऐसे विधायकों से नजर फेरने से वो धोखे में भी नहीं रहना चाहती। उधर कांग्रेस को मिशन भीमलाल आर्य में भले ही झटका लगा हो लेकिन कांग्रेस भी अपने मिशन को यू ही आधे पर नहीं छोड़ना चाहियेगी, भीमलाल नहीं तो कोई और के मकसद से कांग्रेस मिशन में जुटेगी। क्योंकि भाजपा में भीम अकेला नहीं हैं।