ऑफिस से निकला था कि सहसा याद आया, इस बार की आह जिंदगी नहीं खरीदी। पहले उत्सुकता बनी रहती थी, अहा जिंदगी खरीदूंगा। 20 तारीख के बाद से ही अहा जिंदगी खरीदने की सोचे रहता था। कई दफा इस चक्कर से बुक स्टोर तक चला जाता था। और बुक स्टोर वाले से अहा जिंदगी मांगता.. तो वह अभी नहीं आयी कह कर मना कर देता था। बोलता की कि समय से पहले भला कोई पत्र-पत्रिका बाजार में आती है। ये बात में खूब जानता और समझता भी था, लेकिन ना जाने क्यों मैं अहा जिंदगी खरीदने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाता था, जिसके पीछे कई कारण थे, उनमें से एक कारण साफ था कि इसका मैं नियमित पाठक था और इसकी सामाग्री मुझे बेहद ही पसंद आती थी, दूसरा कारण कुछ ऐसा नही था लेकिन कोई दूसरा भी इसे बड़ी आत्मीयता से पढ़ता था, जो मुझे अच्छा लगता था, कि चलो कोई ऐसी चीज तो है जिसे कोई पसंद करता हो, क्योंकि साथ के जो लोग थे उनमें कोई ऐसा नहीं था जो पढ़ने में दिलचस्पी दिखाता।
बुक स्टोर वाले से जब मैंने मैग्जीन मांगी तो वो बोला भैया अभी नहीं आयी और मुस्करा कर कल-परसों तक आने का भरोसा दिया। लेकिन मुझे तो जल्दी खरीदने की धुन सवार थी, और इससे ज्यादा मतलब मुझे ना था। मेरी पसंदीदा चीज जब मुझे नहीं मिलती तो मेरी उत्सुकता उसके प्रति और बढ़ जाती है, खैर इस बुक स्टोर पर नहीं मिली तो क्या ये दिलासा देकर मैं ये सोचने लगा कि शहर में और भी तो बड़े बुक स्टोर हैं जहां ये किताब सबसे पहले आती है। लिहाजा आज का मोह त्याग मैंने कल सुबह बुक वर्ड जाने की सोची।
अगले दिन ऑफिस जा रहा था तो जिस रास्ते से रोज जाता था उस रास्ते से ना जाकर दूसरा रास्ता अखतियार किया, जिस रास्ते से मुझे किताब मिलने की सौ फीसदी उम्मीद थी। घर से जल्दी निकला.... सीधे बुक वर्ड पहुंचा जहां सच में किताबों का संसार है, नीले, पीले, लाल और रंगीन गत्तों वाली ढेरों किताबे थी, प्रेम चंद से लेकर उत्तराख्ंाड के प्रेमचंद विद्यासागर नौटियाल का भैंस का कटिया और युमना के बागी बेटे उपन्यास भी आंखों के सामने नाच रहा था, दोनों ही उपन्यास मेरे पसंदीदा उपन्यास हैं, उनका भीम अकेला उपन्यास मैने उनके घर की अलमारी में देखा था तो बुक वर्ड में उसे देखने की चाहत भी उमड़ पडी। बुक वर्ड की एक-एक किताब देख मेरा मन नाच उठने लगा। लेकिन मुझे तो अपनी पसंदीदा मैगजीन खरीदनी थी, किताबों केा उलट-पुलट रहा था कि कहीं दुबक रखी हो, कुछ हाथ नहीं लगा अभी तक शायद मैग्जीन पब्लिस होकर नहीं आयी। स्वप्न तुम सच हो मन में बुदबुदा रहा था, पर कहां सपने सच होते हैं। हार मान कर मैं ऑफिस की ओर चल दिया क्योंकि यहां भी तो लेट हो रहा था।
ठंड के दिन लद गये थे पसीने के दिन शुरू होने वाले थे, अप्रैल के तपते महीने मैगजीन को लेकर ऐसी उत्सुकता ना थी। इसका का कारण भी जायज था। तब रूमानी मेघ उमड़े हुए थे एक आशा थी कि कालीदास और हिमवंत कवि चंदकुवंर बर्त्वाल की कविताओं के ये हिमालयी मेघ उस उसर जमीन को तर कर देंगे जहां प्रेम की कपोल कली खिल रही थी। हर कली की तरह इसे भी फूल बनना था, लेकिन बगीचे के माली की बेरूखी के चलते ये कली फूूल बनने से पहले मुरझा गई। प्रकृति के प्रांगण में शायद ऐसा कम होता होगा लेकिन मानव के मायाजाल में तो ये अक्सर होता रहता है, फर्क सिर्फ इतना है कि मानव लालची होता है और प्रकृति के पास ऐसा तत्त्व नहीं होता। ऐसे में कली का फूल बनना अब उतना ही कठिन हो गया, जितना की जेठ के महिने में आसमान से पानी बरसना। क्योंकि संभावना दोनों में जिंदा है।
इस बार अहा जिंदगी खरीदने का ख्याल देर में आया। एक दिन ऑफिस से घर जा रहा था कि जब रास्ते में बुक स्टोर दिखा तो इस बार का अंक पढ़ने की चाहत हुई। कि क्या पता कि इस बार क्या होगा। कुछ नई चीज पढ़ने को मिले। अंधेरे को चीरती हुई बाइक की लाइटे अब ऐसे एरिया में प्रवेश कर चुकी थी जहां स्ट्रीट लाइटंे मानों अपना प्रकाश बिखेर कर मेरे विचारों का स्वागत कर रही हो। और उसकी रोशनी में असंख्य कीट खुशी का स्नान कर रहे हो। इसी बीच मेरे मन में भीषण द्वंद चल रहा था कि इस बार दो खरीदूं या एक। द्वंद का स्तर इतना बढ़ गया था कि सर दर्द करने लगा।
एक या दो खरीदने की गुत्थमगुत्था चल रही थी। सोच रहा था कि एक तो खरीदनी है पर दूसरी क्यों? जब इसे पढ़ने वाले बटोही (रहागीर) ने राह दूसरी पकड़ दी। ये सोचते-सोचते मेरे घर की दूरी कम होती जा रही थी, मैं इसी द्वंद से जूझता जा रहा था और घर की दूरी कम होती जा रही थी। इसी बीच बाइक रूकी और मेरे साथ वाले ने मुझे उतरने को कहा, मैं बाइक से इस तरह उतरा कि जैसे मासूम बच्चे को गोदी से पटक दिया गया हो, मेरे साथी ने मेरे से विदा ली और अपने घर की ओर निकल गया। मैं भी अपने घर की ओर निकला लेकिन किताब खरीदने का द्वंद अभी भी मन में चल रहा था। मैं पैदल मार्च कर रहा था, फिर सोचा कि क्यों ना अभी बुक स्टोर चला जाऊं और कितबा खरीद लूं। अपनी जिद्द के मुताबिक मैंने घर जाने का विचार त्यागा और उल्टे पांव बुक स्टोर की ओर चल पड़ा। जिद्दी और अक्कड़पन मुझे विरासत में मिला, राजपूताना खून जो रगों में दौड़ता है। जिद के आगे भले ही कुछ देर मेरा विनम्र स्वभाव आ जाता है लेकिन दिल में इसकी कसक दोगुनी हो जाती है।
खैर बुक स्टोर पर पहुंचा तो वहां लाइट ना थी, बिजली का यूं चला जाना मुझे अच्छा नहीं लगा । पुरा इलाका बिना लाइट के भूतिया लग रहा था खास कर वो बुक स्टोर जहां में अहा जिंदगी खरीदने गया था। गुप अंधेरा होने के चलते मैं मैगजीन कैसे देखता, राह में ये सोचे जा रहा था। बुक स्टोर पर दस्तक देते ही, दुकानवाला मुझे पहचान गया था। मुझे देखते ही वह सहसा बोल उठा, भाई जी आपकी अहा जिंदगी आ गई है। मानो वो मेरी राह ताक रहा था। इस बार उसने मेरे लेट आने का कारण पूछा, लेकिन मैं मुस्करा दिया। शायद अंधेरे में उसे मेरी मुस्कान ना दिखी वरना वो भी मुस्करा देता। मेरे चेहरे पर रंगत गायब थी और मेरी फीकी मुस्कान को दुकानदार अंधेरे में महसूस नहीं कर पाया। उसे क्या पता कि मैगजीन के लिए हमेशा उत्सुक रहने वाला इस बार क्यों उदास है। उत्सुकता, उमंग और चंचलता मानों कहीं दूर गांव की मुंडेर पर बैठी हो, उसकी जगह निरासा, हताशा और उदासी का गहना धारण कर दिया हो और उम्मीदों की नाव हिचकोले खा कर किनारा तलाश रही हो।
इसी बीच बुक स्टोर पर काम करने वाले लड़के ने झट से दो मैगजीने निकाली और मेरे हाथ में थमा दी। उसके काम में अद्भुत वेग था, प्रकाश की गति मानों उसे विरासत में मिली हो। जैसे कोई शिकारी अपने शिकार पर घात लगाये बैठा हो और मौका देखकर उस पर झपट पड़ा हो। जैसे बगुला मछली को ताक कर उसे अपनी चोंच से पकड़ देता हैं। ऐसा ही अद्भुत आवेश उस बालक में था। एकाएक मेरे हाथों में किताब आते ही मैं कन्फ्यूज सा हो गया। एक खरीदूं या दो, अजीब स्थिति में था। साहस बटोर कर मैने दुकान वाले को एक ही मैगजीन खरीदने को कहा, मन तो मेरा दो खरीदने को कर रहा था, लेकिन किसके लिए प्रश्न दानव की तरह मेरे सर पर प्रहार कर रहा था। कि तभी एडिसन के अविष्कार से निकली रोशनी से पूरा इलाका जगमग हो उठा। वो अंधेरे में भूतिया सी लग रही दुकान भी सजीव हो उठी और वहां रखी सैकड़ों किताबे हंसती प्रतीत हो रही थी।
बल्बों से निकलता तेज प्रकाश मानों धरती को भी चीरने पर उतावला हो। कि इसी बीच सभी खुश हुए और लाइट आने की खुशी मना रहे थे क्योंकि सभी का पसीने से बुरा हाल था। मेरे चेहरे पर वही मायूसी पसरी हुई थी, लटका हुआ चेहरा दुकानदार को अच्छा ना लगा और वो बोला कि आज थके हुए नजर आ रहे हो। मैंने भी कोई जवाब नहीं दिया और ना कोई जवाब सूझ रहा था लिहाजा दुकानदार को नोट थमा दिया। बड़ा नोट देख कर उसने कहा कि इस बार एह ही मैगजीन खरीद रहे हो। इधर में ख्यालों में खोया हुआ था दुकानदार के सवाल ने मेरे मन के पटल को खटखटाया। उस वक्त में पिछले महीने की यादों में खोया हुआ था, वो इसलिए कि पिछली बार की मैगजीन उस बटोही (रहागीर) ने नहीं बांची, क्योंकि पहले ही मैगजीन खरीदी जा चुकी थी। सोच रहा था कि इस मैगजीन को पढ़ने वाला तो संग है ही नहीं, किताब खरीदूंगा भी तो दूंगा कैसे, क्योंकि अब तो उन्होने नाता ही तोड़ दिया है।
खैर जो भी हो, बटोही ने भले ही अपना दूसरा रास्ता अख्तियार कर लिया हो, लेकिन कम समय की इस मुलाकात में किताब की अहमियत मुझे और उस बटोही को हमेशा याद रहेगी।