Monday, October 22, 2012

क्या लोकतंत्र के पर्व का जश्न फीका होने लगा है?




टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जो मत प्रतिशत सामने आया है उससे हर कोई हैरान भी है और परेशान भी। क्योंकि इस संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव से तकरीबन 6-7 माह पहले प्रदेेश में विधानसभा चुनाव हुए थे और फिर सितारगंज में एक उपचुनाव भी हुआ था। जिसमें सूबे की जनता ने रिकॉर्ड वोटिंग की थी, लेकिन तकरीबन छह महिने के अंतराल बाद जो ये चुनाव हुआ है उसमें जनता ने खुलकर भागीदारी नही की। लोकतंत्र का चुनावी पर्व फीका रहा । इस चुनाव के प्रति जनता का मोह भंग क्यों हुआ ? यह बात राजनीतिक समीक्षकों को तो अखर ही रही है सियासी दलों को भी सोचने को मजबूर कर रही है कि आखिर चूक कहां पर हुई। राजनीतिक दलों के सत्ता स्वार्थ ने जनता को घरों में बिठाया या लोकतंत्र का चुनावी उत्सव धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खो रहा हो। वजह जो भी हो दुनिया के सबसे बडे़ और मजबूत लोकतंत्र में कम मतदान भविष्य के लिए एक खतरनाक आहट मानी जा सकती है।
बहरहाल टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में लगभग 43 पफीसदी मतदान हुआ। अगर जिलावार देखा जाय तो सबसे ज्यादा मतदान देहरादून जिले में हुआ, देहरादून जिले में 45.29 प्रतिशत मतदान हुआ, दूसरे नंबर पर उत्तरकाशी जिला रहा है जहंा 44 पफीसदी मतदाताओं ने अपने मताध्किार का प्रयोग किया। सबसे कम मतदान टिहरी जिले में हुआ। यहां सिपर्फ 36.19 प्रतिशत मतदान हुआ। तीनों जिलों के मतदान पर अगर नजर डालें तो उत्तरकाशी का प्रदर्शन बेहतर रहा। क्योंकि उत्तरकाशी जिले में आयी आपदा और जिले में धन की कटाई और मंडाई होने के बाद भी मतदाताओं थोड़ा बहुत उत्साह देखने को मिला। जबकि टिहरी के मतदाताओं ने लोकतंत्रा के इस पर्व का कोई महत्व नहीं दिया।
अगर तीनों जिलों की विधनसभा सीटों के हिसाब से मतदान की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा मतदान विकासनगर विधनसभा सीट पर हुआ यहां 52.43 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि दूसरे नंबर पर चकराता विधनसभा सीट रही। सहसपुर और गंगोत्राी क्रमशः तीसरे और चौथे क्रम पर रही। सबसे कम वोटिंग घनसाली और टिहरी विधनसभा क्षेत्रा पर हुई । यहां क्रमशः 29.88 और 33.87 मतदाताओं ने अपने वोट का प्रयोग किया।

टिहरी संसदीय सीट का भूगोल देखा जाय तो इस सीट का अध्किांश भाग पर्वतीय है, जबकि मैदानी इलाका कम ही है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रा की अपेक्षा मैदानी क्षेत्रा में मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। इस लिहाज से मैदानी क्षेत्रा में पर्वतीय इलाकों की अपेक्षा ज्यादा मतदान भी हुआ है। जो कि सीध्े तौर पर जीत और हार के लिए निर्णयक साबित हुआ। दूसरी ओर मैदानी विधनसभा क्षेत्रों में हुए मतप्रतिशत को देखे तो वो उत्तरकाशी जनपद की तीनों विधनसभा सीटों पर हुए मतदान की अपेक्षा कम हुआ है जबकि टिहरी की चारों विधनसभा क्षेत्रों में मतदान न्यूनतम रहा है। सवाल उठाता है कि पर्वतीय मतदाता ने वोट देने में क्यों कंजूसी दिखाई।

क्या इसकी वहज एक के बाद एक हो रहे चुनाव से लोग ऊब गये हैं? या पिफर पहाड़ के जनसरोकार के मुद्दे न उठाये जाने से जनता नाराज है। टिहरी उपचुनाव में हुए कम मतदान के पीछे जनप्रतिनिध्यिों का जनता के प्रति गैरजिम्मेदाराना रवैया भी एक कारण माना जा रहा है । जनता का मानना है कि जब वो किसी काम से अपने जनप्रतिनिध् िके पास जाती है तो जनप्रतिनिध् िया तो उसे टरका देता या पिफर उसके काम को ज्यादा अहमियत नहीं देता। जिससे मतदाता में नाराजगी है।
देखा गया है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशी मतदाता के घर तक वोट मांगने जरूर आता है लेकिन जीतने के बाद वो पूरे पांच साल तक उन्हें अपनी शक्ल तक नहीं दिखाता। जिस वक्त उन्हें अपने जनप्रतिनिध् िकी आवश्यकता होती है उस समय वो देहरादून अपने भविष्य की तिकड़म भिड़ाने के लिए जुगत भिड़ता है या पिफर दिल्ली दरबार में अपने सियासी वजूद को बचाने के लिए जी हजूरी पफरमा रहा होता है।
ऐसे में जनता के पास चुनाव ही एकमात्रा ऐसा हथियार है जिसके जरिए वो अपनी नाखुशी जाहिर कर सकता है। माना जा रहा है कि टिहरी उपचुनाव में कम मतदान भी इसी बात का प्रतीक है।
सबसे ज्यादा मतदाताओं की नाराजगी टिहरी जिले में दिखी। जहां सबसे कम मतदान हुआ। कम वोटिंग होने का कारण क्षेत्रा की उपेक्षा भी है। क्योंकि टिहरी झील से जो समस्या कम से कम प्रतापनगर और घनसाली विधनसभा क्षेत्रा के लिए उपजी है उसी का नतीजा है कि दोनों ही विधनसभा सीटों में वोट प्रतिशत कम रहा। यहां तक कि टिहरी विधनसभा क्षेत्रा में भी मतदान बहुत कम रहा। राजनीतिक दलों से नाता रखने वाले इस बात को भी स्वीकारते हैं कि मतदान होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण स्थानीय मुद्दों और स्थानीय लोगों को महत्व नहीं दिया जाना है। क्योंकि टिहरी उपचुनाव मे क्षेत्राीय मुद्दे किसी भी पार्टी ने नहीं उठाये बशर्ते यूकेडी पी के। दूसरी और प्रदेश की दो मुख्य राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन में भी दिल्ली दरबार का हुक्म माना। स्थानीय चेहरे को चुनावी समर में उतारना मुनासिब नहीं समझा। जिसका सीध असर मतदान पर पड़ा।

टिहरी संसदीय सीट पर कम मतदान का ये दूसरा अवसर है। इससे पहले राज्य गठन की मांग को लेकर प्रदेश भर में चुनाव बहिष्कार किया गया था। उस वक्त सूबे में बहुत कम मतदान हुआ था। हालांकि इस बार भी कई जगह चुनाव का बहिष्कार किया गया था।
लेकिन सवाल उठाता  है कि क्या चुनाव बहिष्कार से समस्या का हल हो जायेगा। इस प्रकार से चुनाव के प्रति लोगों में उदासीनता का भाव भरता जा रहा है, इससे स्पष्ट होता है कि भविष्य में चुनाव मात्रा रस्म अदायगी तक सीमित रह जायेगा। लोकतंत्रा के इस पर्व का जश्न पफीका न पड़े इसके लिए राजनीतिक दलों को अपने गिरेबान में झांकना होगा । वरना कहीं ऐसा न हो कि नौबत उस जगह पंहुच जाए जहां संविधान के इस महत्वपूर्ण अध्किार का महत्व ही खत्म हो जाए। बहरहाल टिहरी संसदीय सीट के उपचुनाव में हुए कम मतदान ने लोकतंत्रा के भविष्य पर एक सवालिया निशान लगा ही दिया है।

टिहरी संसदीय सीट पर खिला कमल



महारानी माला राज्य लक्ष्मी को टिहरी की बागडोर


टिहरी लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव का नतीजा सामने आ चुका है। जनादेश सत्तासीन कांग्रेस के बजाय भाजपा के पक्ष में रहा। आगामी लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल के तौर पर देखे जा रहे इस उपचुनाव में भाजपा ने बाजी मारी। पिछले कई चुनावों में हार का सामना कर रही भाजपा को टिहरी की जीत ने संजीवनी का काम किया। भाजपा प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी की जीत ने पार्टी कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं को जोश से लबरेज कर दिया । वहीं दूसरी ओर टिहरी संसदीय सीट पर मिली हार से कांग्रेस आहत हो गई। कांग्रेस के लिहाज से देखा जाए तो यह हार उसके लिए ऐतिहासिक हार बन गयी है। हार के कारणों की खोज में जुटी कांग्रेस मंथन करने को मजबूर है। हालांकि मझौले दर्जे के नेता बयानबाजी से भी बाज नहीं आ रहे हैं।
खैर भाजपा की परंपरागत सीट रही टिहरी में कांग्रेस हैट्रिक लागने के मूड में थी। यही कारण था कि कांग्रेस ने इस सीट पर अपने कई खांटी नेताओं को तरजीह ना देकर मुख्यमंत्री बहुगुणा के पुत्र को महत्व दिया। कांग्रेस टिहरी सीट को हर हाल में जीतना चाहती थी, ऐसे में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भरोसे में लेकर साकेत की जीत की गारंटी ली थी। इसके लिए सीएम बहुगुणा ने अपने स्तर से हर कोशिश की, यहां तक कि उन्होने चुनाव की कमान खुद संभाल कर पार्टी नेताओं को जीत के प्रति आश्वस्त भी किया। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों में खुद कांग्रेस के लिए वोट मांगे।
टिहरी संसदीय सीट में कांग्रेसियों के तूफानी हवाई दौरे, बूथ लेवल तक के चुनावी प्रबंधन से कांग्रेस की जीत पक्की मानी जा रही थी। जबकि इसके उलट भाजपा प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी ने सादगी से मैदानी क्षेत्रों में खुद प्रचार अभियान की बागडोर थामी थी। महारानी ने खुद जनता के बीच जाकर लोगों से वोट की अपील की। महारानी ने राजशाही वैभव को दूर रख अपने सौम्य स्वभाव से मतदाताओं का दिल जीता। उनकी सीधी साधी छवि को लेकर कांग्रेस ने चुनावी सभाओं में कई टिप्पणियां की लेकिन महारानी ने कांग्रेस की उन टिप्पणियों पर कभी भी पलटवार नहीं किया। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि उनकी इसी गंभीरता ने उन्हें जनता के बीच मजबूत किया और उनकी जीत प्रशस्त की। हालाकि यह भी माना जा रहा है धरेलू गैस सिलैंडर  से सब्सिडि वापस लेने का फैसला और  बेहिसाब बढ़ती महंगाई के जिस चाबुक से आम जनता की खाल उधड़ रही है उसी मंहगाई के चाबुक ने कांग्रेस को टिहरी सीट से भी बेदखल किया है।  ये बात दूसरी है कि  चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने मंहगाई और भ्रष्टाचार को कोई मुद्दा नहीं माना और विकास के नाम पर वोट मांगे।  बावजूद इसके मतदान करने वाली जनता ने कांग्रेस को नकार दिया।

किसेे कहां क्या मिला...
महारानी ने कांग्रेस के प्रत्याशी और मुख्यमंत्री विजय बहुगुण के बेटे साकेत बहुगुणा को 22,694 मतों से पटखनी दी। जबकि तीसरे और चौथे नंबर पर क्रमशाः उत्तराखंड रक्षा मोर्चा और उत्तराखंड क्रांति दल-पी रहे। इन दोनों क्षेत्रीय दल समेत अन्य दस प्रत्याशियों की जमानत तक भी नहीं बची। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बनी टिहरी संसदीय सीट पर देहरादून के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान कर बाजी पलट दी। इस उपचुनाव में तकरीबन 5,10,951 मतदाताओं ने वोट दिया। कुल मतदाताओं के सापेक्ष 43 फीसदी वोटिंग होने से कोई भी पार्टी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी, लेकिन आखिरकार नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा।
टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी में हुई मतगणना में पहले पहल कांग्रेस आगे नजर आ रही थी, चकराता विधानसभा सीट से लगभग दस हजार वोट की बढ़त से कांग्रेस की उम्मीद परवान चढ़ गई थी। लेकिन विकासनगर, सहसपुर, कैंट, राजपुर, रायपुर और मसूरी विधानसभा सीटों पर भाजपा के पक्ष में हुए मतदान ने बाजी पलट दी। इन सभी विधानसभा में भाजपा ने लगभग 35,210 की बढ़त बनाई। उधर उत्तरकाशी की पुरोला और गंगोत्री सीट में कांग्रेस भाजपा से आगे रही, जबकि यमुनोत्री सीट पर मतदाताओं ने भाजपा पर भरोसा जताया। टिहरी जिले की प्रतापनगर,और धनोल्टी विधानसभा क्षेत्र पर कांग्रेस आगे रही,। जबकि घनसाली और टिहरी विधानसभा सीट पर भाजपा का जादू चला। उपचुनाव में कांग्रेस के मुकाबले इक्कीस साबित हुई भाजपा की प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी को 2,45,835 वोट मिले जबकि कांग्रेस के प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को 2,23,141 वोट पड़े। दोनों के बीच जीत का अंदर 22,694 रहा। वहीं क्षेत्रीय दलों का हाल बहुत ही दयनीय रहा। अपने आपको प्रदेश की हितैषी बताने वाली उत्तराखंड क्रांति दल-पी इस उपचुनाव में चौथे नंबर पर रही उसे 6,939 मत मिले, जबकि तीसरे नंबर रहे उत्तराखंड रक्षा मोर्चा 7,466 मत बटोरने में कामयाब रहा।


प्रत्याशियों के बोल---

महारानी माला राज्य लक्ष्मी, नवनिर्वाचित सांसद, टिहरी

यह जीत टिहरी संसदीय क्षेत्र की जनता का आर्शीवाद है, हमारे परिवार ने अच्छे काम किये होंगे इसीलिए उन्होने मुझ पर भरोसा जताया। मैं उनका आभार करती हूं। महंगाई और भ्रष्टाचार सभी मुद्दे कांग्रेस के खिलाफ गये। मैं संसद में महंगाई का मद्दा उठाऊंगी। कांग्रेस के नेताओं द्वारा की गई टिप्पणी पर मैं कुछ नहीं कहूंगी। जनता समझदार है, वो सब जानती है।

साकेत बहुगुणा, प्रत्याशी कांग्रेस

जनता का आदेश सर्वोपरी, मतदाताओं से किये सभी वायदे पूरा करूंगा, दून के मतदाताओं की नाराजगी दूर करूंगा। हर हार में जीत छिपी होती है, जनता के बीच जाकर उनका काम करता रहूंगा। मेरा विश्वास है कि 2014 में हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे।

त्रिवेंद्र सिंह पंवार, प्रत्याशी, यूकेडी-पी
कांग्रेस के खिलाफ जनता में आक्रोश था, लिहाजा जनता ने उसे ही वोट दिया जो जीतने की स्थिति में था, मंत्री प्रीतम सिंह पंवार भी साथ नहीं आये, ऐसे में यूकेडी की हालत ज्यादा खराब हो गई। हार पर मंथन किया जायेगा।

कुंवर जपेंद्र, प्रत्याशी, उत्तराख्ंाड रक्षा मोर्चा

कांग्रेस की हार में उत्तराखंड रक्षा मोर्चा अहम रही, क्योंकि हमने जो मुद्दे उठाये उससे मैदानी इलाकों में कांग्रेस के खिलाफ मतदान हुआ। मूल निवास और अन्य मुद्दों पर हमने कांग्रेस को घेरा, जिसकी वहज से भाजपा जीतने में कामयाब रही।

क्या बोले नेता

टिहरी की जनता ने केंद्र सरकार की नीतियों और राज्य सरकार के छह महीने के कार्यकाल को खारिज किया है। महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की मुहर लग चुकी है। चुनावी नतीजों ने सरकार के अहंकार को खत्म किया है। ---- बी.सी. खंडूड़ी, पूर्व मुख्यमंत्री

जनता के गुस्से का फायदा भाजपा को मिला। जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। कांग्रेस में आपसी फूट का नतीजा भी इस चुनाव में देखने को मिला।---- भगत सिंह कोश्यारी, राज्य सभा संासद

प्रदेश में अराजकता का महौल है, भाजपा की तमाम कल्याणकारी योजनाओं में रूकावट पैदा की गई है। केंद्र और राज्य सरकार ने आम जनता के हकों को मारा है।.... डा. रमेश पोखरियाल निशंक

टिहरी और उत्तरकाशी जिले में कांग्रेस को बढ़त ने बता दिया है कि विकास के नाम पर पहाड़ के मतदाताओं ने कांग्रेस की सरकार पर भरोसा जताया है। आपदा पीड़ितों ने भी कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर सरकार के कामों पर मुहर लगाई।...... विजय बहुगुणा, मुख्यमंत्री

पार्टी जिसे प्रत्याशी घोषित करती है उसे जितना सभी की सामुहिक जिम्मेदारी होती है। अब बहानेबाजी से कोई काम नहीं चलेगा। टिहरी की हार से सबक लिया जायेगा और कांरणों को खंगाला जायेगा, ताकि भविष्य में पार्टी मजबूत होकर उभरे।..... यशपाल आर्य, प्रदेश अध्यक्ष, कांग्रेस।

पहाड़ में कांग्रेस की जीत हुई है। देहरादून के कुछ क्षेत्रों में रसोई गैस भारी पड़ा, विकासनगर, रायपुर, राजपुर में हार की समीक्षा की जायेगी। .... सुबोध उनियाल, विधायक नरेंद्र नगर।




Saturday, October 6, 2012

असमय बसंत का आना!


               
लगता है उत्तराखंड में बसंत ने आहट दे दी। तभी तो भ्रमरों का मद्म गुंजन सुनाई दे रहा है। भ्रमर ध्वनी टेलीवीजन रूपी फूलों के स्क्रीन से सुनाई पड़ रही हैं। कुछ भौंरे विरोधी गुंजन कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उत्तरांखड में मौल्यार आता दिख रहा है। देखिए न यह मौल्यार ऐसे वक्त आ रहा है जब टिहरी संसदीय सीट पर उपचुनाव का फल पक रहा है। अक्सर राजनीति के धरातल पर बसंत ऐसे ही मौकों पर आता है। क्योंकि ऐसे टाईम पर बसंती भौंरों का गुंजन कम होने के बाद भी ऊंचा सुनाई पड़ता है। वो इसलिए कि प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है, क्योंकि प्रकृति नहीं चाहती है कि भौंरों और फूलों में कोई बैर रहे। अपने जंगली प्रदेश के राजनीतिक धरातल पर बसंत के आने की प्रबल इच्छा है, इस बसंती बयार से कंटीली हो चुकी राजनीति फिर हरी-भरी होने के संकेत हैं। भगवाधारियों की आपसी जंग और धर्मनिरपेक्षियों की सुल्ताल बनने के टक्राहट से सियासी सल्तनत को कई गहरे जख्म दिये हैं, जिसका दर्द बसंती भौंरे केा अभास होता है। तभी तो हेमंत ऋतु में बसंत आने की चर्चा हो रही है। बसंत के अचानक और ऐसे समय आने के संकेत सियासी सामंतों को महज मजाक लग रहा है। लेकिन उनके माथे से लेकर पीठ पर पसीने की बंूदे हैं, उन्हें अंदर ही अंदर ये बात भी उन्हें खाये जा रही है कि कहीं प्रकृति रूठ गई और ऐसा सच हुआ तो फिर क्या होगा? लिहाजा बसंत को आने से रोके जाने के लिए राजनीतिक रसायन की विधा अपनानी होगी। ताकि बसंत आये नहीं बल्कि शांति से ‘संत’ ही रहे। जैसा अभी तक चल रहा है। राजनीति की स्वीकृत बगिया देहरादून में इन दिनों राजभौंरों की संख्या ना के बराबर है, ये इन दिनों टिहरी वाटिका में विचरण कर रहे हैं। क्योंकि इस वाटिका में अपना कब्जा जो जमाना है, यहां की हर डाल, शाख पर अपना वर्चास्व कायम जो रखना है। इस वाटिका पर किस झुंड का कब्जा होगा ये तो तेरह को पता चल जायेगा। लेकिन देहरादून से जो बसंती गुंजन जो सुनाई पड़ रहा है उससे एक वर्ग के भौंरों का चिंतित होना लाजमी है। इससे एक वर्ग की वर्चास्व की लड़ाई पर मानसिक तौर पर फर्क भी पड़ा है।
इस प्रकृति से वास्ता रखने और इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वालों का कहना है कि बसंत आने की खबर प्रदेश के अयन मंडल से होते हुए अचानक लोगों के घरों में दाखिल हुई, चुपचाप आई इस खबर की वास्तविकता का जब लोगों ने पता कि ये बात सौ आने सच निकली। हालांकि बसंत बयार आने की सुगबुगाहट पहले भी सुनाई देती रही लेकिन ये हल्की और परले दर्जे की थी। लेकिन अभी जो खबर अयनमंडल से लेकर अखबारी दुनियां में तैर रही है उसमें दम है। इस खबर में कई तरह के आरोप लगाये जा रहे हैं। इसमें जहर की बात भी सुनने को मिल रही है। आरोप लग रहे हैं कि इस जंगली प्रदेश का लोग भला नहीं चाहते हैं यही वहज है कि बसंत के पैरोकार को ठिकाने लगाये जाने की सुनियोजित योजना थी। लेकिन बसंत राज को जब इसकी भनक लगी तो तय हुआ कि अपना समय न होने के बाद भी बसंत लौट आयेगा। वाया एफआरआई के जंगलों से लौट आयेगा। नए भम्ररों का झुंड होगा पुराने भी भौंड से भौंड (स्वर से स्वर) मिलायेंगे और बसंती गीत गाकर फिर से जख्मी जंगली प्रदेश की जमीन पर मरहम लगायेंगे। खबर है कि इसके लिए दिल्ली एम्स के लिए पत्र व्यवहार हो रहा है, एम्स के वरिष्ठ शैल्य चिकित्सक की मुहर लगती है कि नहीं ये कहना मुश्किल है। लेकिन बसंत राज के जन्म दिन पर बड़ी बात जरूर निकल कर आयेगी। और बताया जायेगा कि क्यों असमय बसंत का आना तय हुआ। खैर हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल के शब्दों में .... अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलंेगे।


Thursday, October 4, 2012

इस चारागाह के चरवाहे



प्रदीप थलवाल

आजकल उत्तराखंड में अजीब किस्म की हलचल दिख रही है। आसमान से लेकर सड़क पर भागदौड़ बढ़ी हुई है। इस भाग-दौड़ का मुख्य बिंदु टिहरी बताया जा रहा है। जहां से चुनावी भूकंप के झटके उठ रहे हैं, और यही टिहरी किसी चारागाह से कम नजर नहीं आ रहा है। जिस प्रकार गोरू-भैंस और बकरियांे का चारागाह होता है, उसी प्रकार टिहरी और ये पहाड़ी मुल्क भी राजनेताओं का चारागाह साबित हो रहा है। जिस प्रकार समाज के हर वर्ग में श्रेणी पायी जाती है उसी प्रकार की श्रेणी राजनीतिक चारागाह में भी होती है। सबसे निचले स्तर पर कार्यकर्ता टाइप के चरवाहे होते हैं, फिर ब्लॉक, जिला स्तर के होते हैं, राज्य स्तर पर आते-आते हैं इनकी श्रेणी इतनी उच्च हो जाती है कि चरवाही के मायने ही बदल जाते हैं। क्योंकि ये चरवाहे वीआईपी श्रेणी में आते हैं और ये चरवाहे अपने आप को कुलीन समझने लगते हैं।

उत्तराखंड भी राजनीति के लिहाज से खासी उर्वरक और उपजाऊ है। यही वजह है कि यहां देश के कोने कोने और भांति-भांति किस्म के नेता अपनी नेतागिरी चमकाने आते हैं। उत्तराखंड का पिछले बारह साल का इतिहास टटोले तो प्रदेश में कई पैराशूट नेता ने यहां ना सिर्फ लैंडिंग की बल्कि यहां पर राजनीति का ककहरा सीखने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में भी चमके। कुछ नेता ऐसे भी थे जो उत्तराखंड को कतई भी पसंद नहीं करते थे लेकिन आखिरकार झक मार के यहां आये और खूब लूट-खसोट की। लेकिन इलाकाई नेता इस उपजाऊ जमीन पर ढंग से नहीं पनप पाये। हालांकि किसी तारे की तरह कुछ समय के लिए राजनीति के अयन मंडल में ये नेता जरूर टिमटिमाये, लेकिन इनकी टिमटिमाहट अब नहीं उतनी नहीं है। इसका कारण शायद इन इलाकाई राजनेताओं को राजनीतिक करने का शऊर नहीं था।

तमाम वजहों के चलते बाहरी चरवाहे उत्तराखंड जैसे नए-नवेले चारागाह में आये और जमकर सेंधमारी की, जिसका फायदा बाहरी लोगों को खूब मिला। विभिन्न संगठनों, दलों और ना जाने किन-किन जगाहों से आये ये लोग यहां के मठाधीश तक बन बैठे। यही वजह है कि प्रदेश में होने वाले हर चुनाव में इनको देखा जा सकता है। इतना ही नहीं इन लोगों की संख्या में कमी की बजाय हर चुनाव में तेजी देखने को मिल रही है। जिससे प्रदेश का मूल नेता हाशिये पर सरकता जा रहा है। हाल ही का उदाहरण देखिए, टिहरी में लोकसभा उपचुनाव होने जा रहा है। इस संसदीय सीट पर दोबारा इतिहास दोहराया गया। तमाम दलों ने स्थानीय लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनने के बजाय बाहरी लोगों को तरजीह दी। कांग्रेस, भाजपा से लेकर उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने बाहरी लोगों को चुनाव में उतारा, हां एक मात्र यूकेडी पी ने स्थानीय निवासी पर जरूर दांव खेला है।

कांग्रेस ने जहां साकेत बहुगुणा पर दांव खेला, वहीं भाजपा ने टिहरी राजपरिवार की महारानी राजलक्ष्मी शाह पर भरोसा जताया है, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने कुंवर जपेंद्र सिंह को चुनावी मैदान में उतारा है। गौर से अगर आंकलन किया जाये तो इन तीन राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार किस लिहाज से यहां के मूल निवासी है। हालांकि भाजपा उम्मीदवार राजघराने की बहु होने के नाते मूल निवासी के दायरे में फिट बैठ सकती है लेकिन वो भी विदेशी मूल की है। लेकिन कांग्रेस और उरमा के प्रत्याशी यहां के मूल निवासी नहीं है।

ऐसे में राजनीति के इस चारागाह में बाहरी और नये-नवेले चरवाहे पर लोग-बाग भी टिप्पणी कर रहे हैं। लोगों का यहां तक कहना है कि यहां के लोगों ने जिस प्रदेश का सपना देखा था वो महज सपना रह गया है, और ये प्रदेश सिर्फ राजनेताओं के लिए किसी चारागाह बनकर रह गया है। इतना ही नहीं लोगों का कहना है कि इस प्रदेश का दुर्भाग्य देखिए कि बाहरी लोग ना जाने कैसी-कैसी पार्टियों के यहां आकर अपनी पैठ बनाते हैं। इन दिनों प्रदेश में भारतीय बल्द पार्टी के नेता की आने की बात भी कह रहे हैं, जो कांग्रेस के हाथ के सहारे अपनी नैया पार लगाने जुगत में है।

लेकिन सवाल ये है कि इस चारगाह के चरवाहे क्या बहारी होंगे, या फिर कभी यहां के लोगे भी इतने मजबूत होंगे कि वो खुद ही चरवाह की भूमिका निभा सके। खैर महान जर्मन कवि ने कभी लिखा था कि ...और चरवाहे से नाराज भेड़ों ने कसाई को मौका दे दिया, उन्होने जनवाद के खिलाफ मत दिया क्योंकि वह जानवादी थे।