Saturday, December 22, 2012

दरिंदगी के दाग से देवभूमि भी है दागदार


प्रदीप थलवाल

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए गैंगरेप से समूचा देश सदमे में है। इस घटना के बाद लोगों के बीच जो प्रतिक्रिया आ रही है उससे साफ जाहिर होता है कि देश गुस्से में भी है। गैंगरेप के खिलाफ दिल्ली से लेकर आर्थिक राजधानी मुंबई तक लोग सड़कांे पर निकले, हवा में उछल रहे हाथों में जो तख्तियां लहरा रही थी, उसमें लिखे संदेशों से स्पष्ट था कि महिलाओं पर हो रहे अत्यचार किसी भी सूरत में मंजूर नहीं, ऐसे लोगों को भारतीय दंड संहिता में सीधे सजा-ए-मौत की लोग मांग कर रहे हैं।
ऐसा ही नजारा उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी दिखा, जहां विभिन्न संस्थानों के छात्र-छात्राएं,  सामाजिक और राजनीतिक संगठन भी सड़कों पर उतरा। दिल्ली के गुनहगारों को सजा-ए-मौत के नारे राजधानी की फिजाओं में तैर रहे हैं। ये लोग दिल्ली में हुए गैंगरेप पर अपना गुस्सा बयां कर रहे थे, ये गुस्सा जाजय भी है, बिडंबना देखिए कि दिल्ली की हवा के रूख में सभी बहे लेकिन किसी ने भी उत्तराखंड में हुए उन जघन्य अपराधों और अपराधियों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई, जिन अपराधों ने देवभूमि के दामन पर भी दरिंदगी के दाग लगाये।
ऋषि-मुनियों की तपस्थली और देवताओं की इस भूमि को भी दरिंदों ने कई बार घिनौनी हरकत से ना सिर्फ खून से लतपथ किया बल्कि कई मासूमों की जिंदगी को तबाह और बर्बाद की। चुप और  खामोश रहने वाले पहाड़ों में भी महिलाएं महफूज नहीं हैं, तो मैदानी और शहरी इलाकों के हाल इससे कई गुना ज्यादा खराब हैं, जहां महिलाएं घर से बाहर निकलते ही अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित रहती है। ये हालात उस पहाड़ी मुल्क में है जहां कभी घरों में ताले तक नहीं लगाये जाते हैं, पिछले दो दशक में ऐसा क्या घट गया कि अब लोगों को अपनी सुरक्षा की चिंता ज्यादा सताने लगी है।
खैर दिल्ली में हुई इस घटना को लेकर समूचे देश में हो हल्ला मचा हुआ है। लेकिन उत्तराखंड की बात करें तो यहां हुए कई जघन्य अपराधों के खिलाफ जनता क्यों मुखर नहीं हुई। देहरादून में हुए अंशू हत्याकांड को लेकर क्यों चुप्पी  साधी हुई है, कुमाऊं में गीता खोलिया प्रकरण ठंडे बस्ते में समा गया है। हरिद्वार में कविता हत्याकांड का हश्र क्या हुआ आप सब जानते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कितनी अंशू, कितनी गीता और कितनी कविताएं हैवनियत की शिकार होंगी।
इन के परिवार वालों से जरा पूछिये कि उनकी आत्मा क्या कहती होगी, हर रोज पुलिस दफ्तर पर अपनी फरियाद लेकर पहुंच जाते हैं, लेकिन अपराधी आज भी कानून के शिकंजे से दूर हैं। आखिर न्याय की देवी की आंखों से काली पट्टी हटेगी और कब इन लोगों न्याय मिलेगा।
जरा सोचिए क्या यह अपराध देश की राजधानी में हुआ और इसलिए ये ज्यादा बड़ा है, देवभूमि उत्तराखंड के दामन पर जिन जघन्य अपराधों के छींटे पड़े  क्या वो इसलिए भुला दिये जायेंगे कि वो एक पहाड़ी राज्य में हुए। ऐसा नहीं चलेगा! देवभूमि में हुए जघन्य अपराधों को लेकर क्या कोई सड़कों पर उतरा, क्या प्रदेश की विधानसभा में किसी ने भी उन मासूमों के लिए आवाज उठाई, जिनकी आवाज हवस की खातिर हमेशा के लिए फ़ना हो गई। लिहाजा अगर देश की राजधानी में हुए गैंगरेप पर समूचा देश में उबाल आता है तो फिर इन मासूमों के परिजनों को न्याय दिलाने की खातिर उत्तराखंड के लोग सड़कों पर क्यों नहीं उतर सकते?

Wednesday, December 12, 2012

नींद में है साडा



245 बीघे की जगह सिपर्फ 45 बीघा जमीन पर दिखी अवैध् प्लाॅटिंग

प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड अलग प्रदेश क्या बना कि सूबे में एक नई किस्म की प्रजाति भी पैदा हुई। ये प्रजाति किसी रसायन या भौतिक प्रक्रिया से नहीं बल्कि सरकारी तंत्र की कमजोरी से जन्मी, जिसे खाद-पानी देने का काम हमारे माननीय नेताओं ने किया। आलम यह है कि आज के समय में यह प्रजाति प्रदेश को चट करने में लगी हुई है। इन्हीं में एक भू-माफियाओं की प्रजाति भी है जिसकी गि( जैसी नजरें प्रदेश की जमीन पर लगी हुई है।
चमोली से लेकर चंपावत, उत्तरकाशी से लेकर ऊधमसिंह नगर , टिहरी से लेकर टनकपुर और देहरादून से लेकर नैनीताल सहित समूचे प्रदेश में भू-माफियाओं का गिरोह इस काम में जुटा है।  हर जगह प्रदेश  की जमीन को हड़पकर भूमाफिया बेच रहे  हैं। खरीद-फरोख्त का यह धंधा दिन दूनी और रात चैगुनी तरक्की कर रह है। यही वजह है कि इस ध्ंाधे में जो भी लोग आये उन्होंने ना सिर्फ मोटा पैसा कमाया बल्कि सरकार और शासन में भी अपनी धाक जमायी। समय के साथ-साथ  भू-माफियाओं का राज और डर प्रदेश में इस कदर बढ़ गया जैसे कि अंधकार में किसी दैत्य का। जिसकी परछाई मात्र से ही लोग सहम जाते हैं।
समूचे प्रदेश में भू-माफियाओं ने ना सिर्फ सरकारी जमीनों पर कब्जा जमाया हुआ है बल्कि कृषि भूमि का बिना लैंड यूज चेंज किये उसे बेच भी रहे  हैं। प्रदेश में जमीनों की खरीद-फरोख्त का सूचकांक हर रोज कुलांछे भर रहा है लेकिन सरकार से लेकर शासन और प्रशासन के एक भी नुमाइंदे ने सूबे में हो रही भूमि की अवैध खरीदारी पर सावल नहीं उठाये। इसकी वजह यह भी बताई जा रही है कि इस धंधे में खुद प्रदेश के हुक्मरान शामिल हैं, ऐसे में भू-माफियाओं पर कार्रवाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
जमीन की खरीद फरोख्त का सिलसिला राजधानी में भी बदस्तूर जारी है। स्थिति ये है कि राजधानी और इससे सटे इलाकों में जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी जमीनों की खरीददारी पर अंकुश नहीं लग रहा है कभी बासमती की खुशबू और लीची की मिठास के लिए पहचान रखने वाले दून से यह दोनों ही चीज गयाब हो गई है। आम के बागान चैपट हो गये हैं। भू-माफियाओं के हाथों विकासनगर बिक रहा है, लेकिन आला-अफसरों के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है। विकासनगर में कई आम और लीची के बागन कंक्रीट के जंगल की भेंट चढ़  गये हैं  लेकिन इसके बावजूद भी प्रशासन ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया।
जबकि देहरादून से सटे  आसपास के क्षेत्र की देख-रेख के लिए बकायदा दूनघाटी विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इस प्राधिकरण पर क्षेत्र की निगरानी रखने की जिम्मेदारी है।  लेकिन आरामपरस्त असफरों की कार्यशैली का फायदा उठा भू-माफियाओं ने ना सिर्फ सरकारी जमीनों बल्कि बागानों  पर अवैध प्लाटिंग कर बेच दिया है। जबकि प्रदेश के भू-कानून के अनुसार किसी भी कृषि योग्य जमीन को बिना लैंड यूज चेंज किये उसकी प्लाटिंग नहीं की जा सकती है। बावजूद इसके विकासनगर के हरबर्टपुर, परगना पछवादून  स्थित वंशीपुर गांव में इस कानून का भू-माफियाओं ने जमकर उल्लंघन किया।  कहते हैं कुंभकर्ण भी सिर्फ छः महीने ही सोता था मगर ताज्जुब की बात है कि साडा नाम का प्राधिकरण उक्त प्रकरण में पिछले सात साल से सोया हुआ ही है। आरटीआई का रणसिंघा उसे जगाने की कोशिश करता है लेकिन साडा उनींदी हालत में ही नोटिस भेजकर फिर से सो जाता है।  बंशीपुर के बाग प्रकरण पर आरटीआई के तहत ली गई जानकारी के अनुसार प्राधिकरण को सिर्फ 45 बीघा जमीन पर अवैध प्लाटिंग नजर आयी, जबकि भू-माफियाओं द्वारा 245 बीघा जमीन पर प्लाटिंग की गई है। प्राधिकरण द्वारा आरटीआई के तहत जानकारी दी गई है कि अमुक बागान के 45 बीघा जमीन पर  भू-उपविभाजन के विरू( लक्ष्मी नारायण, रमेश नारायण, हृदय नारायण, बिदुर नारायण, आखिलेश नारायण और जनार्दन को कारण बताओ एवं विकास कार्य रोको नोटिस निर्गत किया है। जो कि 17 जनवरी 2005 को भेजा गया। इसके साथ ही प्राधिकरण सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देता है कि उसने 27 सितंबर 2012 को 11 बजे तक अपने कार्यालय में हाजिर होकर भू-स्वामी को अपने पक्ष में बात रखने का नोटिस दिया था। ऐसे में प्राधिकरण पर सवाल उठता है कि साल 2005 से अब तक उसने इस प्रकरण में क्या कार्यवाही की?  आखिर इतने जिम्मेदार प्राधिकरण के अफसर कहां सोये रहे। आखिर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगे जाने के बाद ही प्राधिकरण ने उक्त भू-स्वामी को अपने पक्ष रखने की याद क्यों दिलायी? आखिर क्यों प्राधिकरण अवैध निर्माण के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने से हिचकिचा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भू-माफियाओं के तार सीधे साडा से जुडे हों, इसीलिए पिछले सात साल तक प्राधिकरण ने इस ओर कार्यवाही करना उचित नहीं समझा हो।
वहीं दूसरी ओर दूनघाटी विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण की कार्यप्रणाली पर एक और प्रकरण सवाल उठाता है। ये मामला भी विकासनगर का है, जिसमें जीवनगढ़ गांव लगभग 153 बीघा जमीन पर भू-उपविभाजन और  भू-खंड पर विकास कार्य किया जा रहा है। लेकिन प्राधिकरण को इससे कोई सरोकार नहीं है। हालांकि प्राधिकरण ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी दी कि उसने 11 जून 2007 को भू-स्वामी को नोटिस दिया था और उसे अपना पक्ष रखने को कहा गया था। ताज्जुब की बात है कि इसके बाद भी यहां प्लाटिंग का कार्य जोरों पर है।
इन दो प्रकरणों से साफ होता है कि दून घाटी में भू-माफियाओं का कितना दबदबा है। जमीनों की खरीद-फरोख्त में लिप्त भू-माफियाओं को ना तो कानून का डर  है और ना ही प्रशासन का खौफ। यही वजह है कि सूबे में भू-माफिया निश्चिंत हैं। क्योंकि उसे भय दिखाने वाले प्रशानिक अधिकारी से लेकर नेता उसकी मुट्ठी में हैं। सवाल उठता है कि  क्या सरकार इन तथ्यों से बेखबर हैं? उसके अफसर क्या गुल खिला रहे हैं और उन्हें किस नेता का संरक्षण प्राप्त है या यूं कहें यह नेता-अफसर-माफिया जोड़ है, जो आसानी से नहीं टूटेगा। सबसे गंभीर और खतरनाक यह जोड़ है जिसे प्रदेश की जनता को समझ लेना चाहिए। जिस जमीन के लिए जनता ने लड़ाई लडी उसे बचाने के लिए उन्हें दूसरा आंदोलन भी न लड़ना पड़े।

कहीं किस्सा कुर्सी का तो नही!



चड्डा बंधु हत्याकांड की जांच दिल्ली क्राइम ब्रांच कर रही है और यह बात भी सामने आ रही है कि इस हाईप्रोफाइल हत्याकांड के दौरान उत्तराखंड का एक आईएएस अफसर भी छतरपुर में मौजूद था।  अगर सच में उत्तराखंड का कोई आईएएस अफसर छतरपुर में था तो यह कैसे संभव है कि दिल्ली पुलिस ने उस कथित आईएएस से कोई पूछताछ नहीं की और ना ही उत्तराखंड सरकार या पुलिस को किसी आईएएस के वहां होने की पुष्टि करी।  जहां आज के टैक्नालाॅजी के युग में कौन आदमी कहां है उसकी लोकेशन खंगालना दिल्ली पुलिस के बांए हाथ का काम है। मगर आजतक उत्तराखंड के किसी आईएएस के छतरपुर में मौजूद होने का कोई सबूत सामने नहीं आ पाया है।
दूसरी ओर उत्तराखंड में अगले मुख्य सचिव पद की लड़ाई भी अंदरखाने चल रही है। अभी से रास्ता साफ किया जा रहा है, कहीं यह खबर कि उत्तराखंड का एक सीनियर आईएएस वहां मौजूद था यह भी अपने चहेते खबरनबीसों के माध्यम से हव्वा तो नहीं बनाया जा रहा है?सूत्रों की मानें तो छतरपुर में हत्याकांड के समय उत्तराखंड का कोई अधिकारी मौजूद नहीं था, इसके बावजूद बड़ी सूझबूझ और रणनीति के तहत यह खबर आग की तरह फैली। वहीं दूसरी ओर रेव पार्टी में एक आईपीएस का नाम घसीटा जाना भी पुलिस महकमें में साजिश के तहत देखा जा रहा है। इन दोनों प्रकरणों को देख कर एक पहलू यह भी निकल कर सामने आ रहा है कि माफिया तंत्र अपने हितैशी अधिकारियों और खबरनबीसों के जरिए मुख्यमंत्री पर  भी निशाना साधने की तैयारी में तो नहीं है। अगर  ऐसा है तो इसकी पुष्टि आने वाले दिनों में जरूर होगी।

देवभूमि की छाती पर, माफिया के गमबूट




चड्डा हत्याकांड से लेकर रेव पार्टी तक

देवभूमि उत्तराखंड का शायद चरित्र बदल रहा है! जिन  आला अफसरों को तरक्की की तस्वीर बनानी चाहिए उन अफसरों का नाम राज्य के लिहाज से जधन्य कांडों में उछल रहा है। किसी का नाम हत्याकांड की कड़ी बन रहा है तो किसी का नाम नशीली महफिलों का लुत्फ लूटने वालों में शामिल हो रहा है। जिन बदनाम धंधों से माफिया के ताल्लुकात होते हैं वहां राज्य के अफसरों के नाम तलाशे जा रहे हैं। पौंटी हत्याकांड के छीटे हों या रेव पार्टी के दाग, अगर राज्य के अफसर के दामन पर तलाशे जा रहे हैं तो सवाल उठना लाजिमी है आखिर अफसरों के नाम कौन उछाल रहा है ?उन्ही की बिरादरी, या राज्य में सक्रिय माफिया ? ये सच है ! या साजिश ! देवभूमि की मासूम जनता के सामने ये यक्ष प्रश्न बन गया है।

सीन एक शूटआउट ऐट छतरपुर,  लिकर किंग और माफियाओं का बेताज बादशाह पौंटी चड्डा  और उसके भाई हरदीप सिंह चड्डा की आपसी रंजिश से मौत। ये खबर आते ही पूरे उत्तरी भारत में सनसनी पसर गई । यकायक आयी इस खबर पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। लेकिन मीडिया में छाने के बाद सबको यकीन हो गया कि लिकर किंग नहीं रहा। शुरूआत में इस दोहरे हत्याकांड के लिए जिम्मेदार दोनों भाईयों के बीच संपत्ति विवाद को करार दिया गया। लेेकिन इस बीच सुखदेव सिंह नामधारी का नाम आने से मामले ने दूसरा मोड़ लिया। नामधारी का कनेक्शन सीधे भगवाधारियों से है और इस दोहरे हत्याकांड से पहले नामधारी के सीने पर उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष का बिल्ला भी टंगा हुआ था।
इस प्रकरण में नामधारी का नाम आने से जहां उत्तराखंड सरकार की सांसे फूली वहीं भाजपा और संघ सहित तात्कालीन सीएम की जान भी अटक गयी जिन्हांेने नामधारी को आयोग का पद सौंपा। किसी से भी जबाव देते नहीं बना कि आखिर प्रदेश के एक सम्मानित पद पर आसीन नामधारी शूटआउट ऐट छतरपुर की घटना के दौरान वहां क्या कर रहा था?
राष्ट्रीय मीडिया में लगातार खबरों के प्रसारण के बाद सरकार ने सुखदेव सिंह नामधारी को पदमुक्त कर दिया। दूसरी ओर भाजपा ने भी समय को भांपते हुए नामधारी की पार्टी से प्राथमिक सदस्यता खत्म कर उससे किनारे होने में अपनी भलाई समझी। इतना ही नहीं नामधारी ने हत्याकांड के तुरंत बाद उत्तराखंड के दो नेताओं और एक अधिकारी से फोन पर बात की, क्या जनता कभी इन नमों को जान पाएगी? शुटआउट ऐट छतरपुर की जांच में जुटी दिल्ली पुलिस सूबतों के आधार पर सुखदेव सिंह नामधारी और उसके गनर सचिन त्यागी को गिरफ्तार कर उनसे पूछताछ कर रही है।
इस पूरे  घटनाक्रम के दौरान उत्तराखंड सहित राष्ट्रीय मीडिया में एक और खबर आती है कि शूटआउट ऐट छतरपुर से उत्तराखंड के एक आईएएस अफसर के तार भी जुडे़ हैं। इस खबर से अमूमन शंात माने जाने वाले राज्य की नौकरशाही में खलबली मच गई है। सवाल उठ रहा है पौंटी हत्याकांड से प्रदेश के वरिष्ठ आईएएस अफसर का क्या नाता है ? खबरें तो यह भी कहती हैं कि अफसर भी वंहा मौजूद था सवाल है आखिर बदनाम धंधे के सौदागर से व्हाइटकाॅलर जाॅब करने वाले अफसर का क्या ताल्लुक था आखिर वह वहां क्या करने गया था? अगर खबर में रत्ती भर भी सच्चाई है तो पूछना जायज है आखिर पोंटी से अफसर का क्या रिश्ता था ?
सीन दो, तरक्की के साथ कदमताल कर रहा देहरादून अब आधुनिकता के अंधे गलियारे की ओर बेहिसाब दौड़ रहा है। यही वजह है कि मठ-मंदिरों की जमीन पर अब ढोल-नगाड़ों का मंडाण नहीं लगता बल्कि पश्चिम की अधनंगी संस्कृति नशे में थिरकती हुई दिखती है। रेस्तरां और नाइट क्लब खुल रहे हैं, अमूमन आठ बजे के बाद सन्नाटे में पसरे रहने वाले दून की रातंे अब विभिन्न प्रकार की रंगीन लाइटों और डीजे के संगीत में मदमस्त हैं, जहां जवानी का जोश अपने उबाल के चरम सीमा पर  रहता है और बेपरवाह काया बिन पेंदे के लोटे की तरह कहीं भी लुडक जाती है। कानून के नजारिये ये अपराध है लेकिन दून की शांत वादियों में कानून का कड़ा मिजाज पर भी शायद नाइट क्लब का नशा तारी है। हाल ही में दून पुलिस ने राजपुर रोड़ स्थित एक नाइट क्लब पर छापा मारा जहां रेव पार्टी चल रही थी। छापे के दौरान कई युवक-युवतियों को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया। कुलीन वर्ग के इन युवाओं पर देवभूमि की खाकी ने सख्ती ना दिखा कर उन्हें थाने की दहलीज पर ही जमानत पर छोड़ दिया। लेकिन इस पूरे  घटनाक्रम के दौरान एक और खबर बांउसर की तरह उछल जाती है कि रेव पार्टी के दौरान राज्य के अफसर भी मौजूद थे।
लेकिन सवाल उठता है कि ये खबर कैसे लीक हुई? क्या ये खबर आइपीएस बिरादरी ने उड़वाई है। या फिर इसके पीछे कोई ऐसा चेहरा या बिरादरी है जिसकी मंशा अपनी अधूरी हसरतों को पूरा करने की है।
इस जटिल गुत्थी को भले कोई समझे या ना समझे लेकिन पुलिस प्रशासन बखूबी समझता हैै। सूत्रों की मानें तो जिस आईपीएस अफसर का नाम रेव पार्टी में घसीटा जा रहा है उसकी कार्यशैली से देवभूमि के दामन को दागदार करने वाले माफिया गिरोह भी परेशान हैं। क्योंकि उस अफसर पर न तो माफिया की चकाचैंध का असर होता है न उसकी दबंगई का । इतना ही नहीं माना तो ये भी जाता है कि उस अफसर पर राज्य के  नेताओं का बस भी नहीं चलता।
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि रेव पार्टी में जो अफसर मौजूद थे, उन्होंने  ही इस अफसर को षड़यंत्र के तहत रेव पार्टी में बुलाया हो, ताकि उक्त अफसर का दामन दागदार हो जाए । सूत्रों के मुताबिक माफिया की आंखों की किरकिरी बने इस आईपीएस अफसर को माफिया ठिकाने लगाने में तुले हैं और उसकी जगह एक ऐसे अफसर को बिठाने की जुगत में लगे हैं जो पूर्व में भी दून की कमान संभाल चुका है। खबरें  तो यह भी कहती हैं कि राज्य में सक्रिय माफिया चाहता है कि पुलिस प्रशासन में उच्च स्तरीय पदों पर कोई पहाड़ी अफसर ना बैठे क्योंकि इससे उन्हें काफी नुकसान पहुंचता है और पहाड़ी अफसर के पहाड़ जैसे मजबूत हौंसलों से माफिया के मन मुताबिक काम नहीं होते हैं।
यही वजह है कि बड़े पदों पर माफिया तंत्र अपने चहेते अफसरों के लिए धनबल का खूब इस्तेमाल करते हैं। जानकार लोग इसे हाल ही में पुलिस प्रशासन द्वारा किये गये पुलिस अधिकारियों की अदला-बदली के रूप में देखते हैं। इसके साथ ही अंदेशा जताते हैं कि माफिया तंत्र इस काम को अंजाम देने के लिए कार्पोरेट की समझ रखने वाले आदमी पर दांव खेल रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि कैसे काम किया जाना है लिहाजा निशाना सटीक जगह लगाना जरूरी है।
इस मामले में कुछ हद तक माफिया सफल भी हुए हैं।  इतना ही नहीं माफिया तंत्र जानता है कि मीडिया की भूमिका सबसे अहम रहती है, ऐसे में कुछ पत्रकारों पर माफियाओं ने अपनी कृपा दृष्टि बनाई हुई है। जानकार बताते हैं कि इसमें ऐसी प्रजाति  के पत्रकार है जिनका प्रदेश के सरोकारों से कोई नाता नहीं है और पत्रकारिता उनके लिए महज रोजी रोटी कमाने का जरिया है। बावजूद इसके उनका सिक्का न सिर्फ सरकार और शासन में चलता है बल्कि ये लोग अपने तरीके से मीडिया का हव्वा बनाकर अपने और सौंपे गए काम को अंजाम भी दे देते हैं। पत्रकारों के इस गुट में अधिकांशतः पश्चिमी यूपी के लोग शामिल हैं।
खैर पूरे प्रकरण को देखकर लगता है कि इस समूचे प्रदेश में माफिया राज चल रहा है। सरकार और शासन माफियाओं के आगे नतमस्तक है। पुलिस से लेकर शासन-प्रशासन और मीडिया से लेकर सरकार में दखल होने के कारण माफिया अपने अनुसार देवभूमि की छाती को रौंद रहे हैं और प्रदेश की नीतियों को अपने माफिक तोड़ मरोड रहे हैं ।  सूबे में उच्च पदों पर अपने चहेतों को फिट कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये खबर कोई और उछाल रहा है माना जा रहा है कि इस खबर के पीछे अधिकारियों की बिरादरी के ही वो विभीषण हैं जिनके माफिया से ताल्लुक हैं।  क्योंकि ये आईपीएस अफसर माफियाओं की आंखों की किरकिरी बना हुआ है साथ इस पर पहाड़ी होने का तमगा भी लगा हुआ है। जबकि दूसरी ओर माफिया दून का किला फतह करना चाहते हैं और बड़े शातिर तरीके से इसे अंजाम भी दिया जा रहा है।
बहरहाल सच जो भी इसका खुलासा तकनीक के इस दौर में  जल्द हो जाएगा लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर देवभूमि की छाती को माफिया का गमबूट अपने चमचे नौकरशाहों, नेताओं और गैरमुल्की खबरों के ठेकेदारों की बदौलत कब तक रौंदता रहेगा?  माफियाओं ने अपनी कृपा दृष्टि बनाई हुई है। जानकार बताते हैं कि इसमें ऐसी प्रजाति  के पत्रकार है जिनका प्रदेश के सरोकारों से कोई नाता नहीं है और पत्रकारिता उनके लिए महज रोजी रोटी कमाने का जरिया है। बावजूद इसके उनका सिक्का न सिर्फ सरकार और शासन में चलता है बल्कि ये लोग अपने तरीके से मीडिया का हव्वा बनाकर अपने ओर सौंपे गए काम को अंजाम भी दे देते हैं। पत्रकारों के इस गुट में अधिकांशतः पश्चिमी यूपी के लोग शामिल हैं।
खैर पूरे प्रकरण को देखकर लगता है कि इस समूचे प्रदेश में माफिया राज चल रहा है। सरकार और शासन माफियाओं के आगे नतमस्तक है। पुलिस से लेकर शासन-प्रशासन और मीडिया से लेकर सरकार में दखल होने के कारण माफिया अपने अनुसार देवभूमि की छाती को रौंद रहे हैं और प्रदेश की नीतियों को अपने माफिक तोड़ मरोड रहे हैं ।  सूबे में उच्च पदों पर अपने चहेतों को फिट कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये खबर कोई और उछाल रहा है माना जा रहा है कि इस खबर के पीछे अधिकारियों की बिरादरी के ही वो विभीषण हैं जिनके माफिया से ताल्लुक हैं।  क्योंकि ये आईपीएस अफसर माफियाओं की आंखों की किरकिरी बना हुआ है साथ इस पर पहाड़ी होने का तमगा भी लगा हुआ है। जबकि दूसरी ओर माफिया दून का किला फतह करना चाहते हैं और बड़े शातिर तरीके से इसे अंजाम भी दिया जा रहा है।
बहरहाल सच जो भी हो इसका खुलासा तकनीक के इस दौर में  जल्द हो जाएगा लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर देवभूमि की छाती को माफिया का गमबूट अपने चमचे नौकरशाहों, नेताओं और गैरमुल्की खबरों के ठेकेदारों की बदौलत कब तक रौंदता रहेगा?