प्रदीप थलवाल
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए गैंगरेप से समूचा देश सदमे में है। इस घटना के बाद लोगों के बीच जो प्रतिक्रिया आ रही है उससे साफ जाहिर होता है कि देश गुस्से में भी है। गैंगरेप के खिलाफ दिल्ली से लेकर आर्थिक राजधानी मुंबई तक लोग सड़कांे पर निकले, हवा में उछल रहे हाथों में जो तख्तियां लहरा रही थी, उसमें लिखे संदेशों से स्पष्ट था कि महिलाओं पर हो रहे अत्यचार किसी भी सूरत में मंजूर नहीं, ऐसे लोगों को भारतीय दंड संहिता में सीधे सजा-ए-मौत की लोग मांग कर रहे हैं।
ऐसा ही नजारा उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी दिखा, जहां विभिन्न संस्थानों के छात्र-छात्राएं, सामाजिक और राजनीतिक संगठन भी सड़कों पर उतरा। दिल्ली के गुनहगारों को सजा-ए-मौत के नारे राजधानी की फिजाओं में तैर रहे हैं। ये लोग दिल्ली में हुए गैंगरेप पर अपना गुस्सा बयां कर रहे थे, ये गुस्सा जाजय भी है, बिडंबना देखिए कि दिल्ली की हवा के रूख में सभी बहे लेकिन किसी ने भी उत्तराखंड में हुए उन जघन्य अपराधों और अपराधियों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई, जिन अपराधों ने देवभूमि के दामन पर भी दरिंदगी के दाग लगाये।
ऋषि-मुनियों की तपस्थली और देवताओं की इस भूमि को भी दरिंदों ने कई बार घिनौनी हरकत से ना सिर्फ खून से लतपथ किया बल्कि कई मासूमों की जिंदगी को तबाह और बर्बाद की। चुप और खामोश रहने वाले पहाड़ों में भी महिलाएं महफूज नहीं हैं, तो मैदानी और शहरी इलाकों के हाल इससे कई गुना ज्यादा खराब हैं, जहां महिलाएं घर से बाहर निकलते ही अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित रहती है। ये हालात उस पहाड़ी मुल्क में है जहां कभी घरों में ताले तक नहीं लगाये जाते हैं, पिछले दो दशक में ऐसा क्या घट गया कि अब लोगों को अपनी सुरक्षा की चिंता ज्यादा सताने लगी है।
खैर दिल्ली में हुई इस घटना को लेकर समूचे देश में हो हल्ला मचा हुआ है। लेकिन उत्तराखंड की बात करें तो यहां हुए कई जघन्य अपराधों के खिलाफ जनता क्यों मुखर नहीं हुई। देहरादून में हुए अंशू हत्याकांड को लेकर क्यों चुप्पी साधी हुई है, कुमाऊं में गीता खोलिया प्रकरण ठंडे बस्ते में समा गया है। हरिद्वार में कविता हत्याकांड का हश्र क्या हुआ आप सब जानते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कितनी अंशू, कितनी गीता और कितनी कविताएं हैवनियत की शिकार होंगी।
इन के परिवार वालों से जरा पूछिये कि उनकी आत्मा क्या कहती होगी, हर रोज पुलिस दफ्तर पर अपनी फरियाद लेकर पहुंच जाते हैं, लेकिन अपराधी आज भी कानून के शिकंजे से दूर हैं। आखिर न्याय की देवी की आंखों से काली पट्टी हटेगी और कब इन लोगों न्याय मिलेगा।
जरा सोचिए क्या यह अपराध देश की राजधानी में हुआ और इसलिए ये ज्यादा बड़ा है, देवभूमि उत्तराखंड के दामन पर जिन जघन्य अपराधों के छींटे पड़े क्या वो इसलिए भुला दिये जायेंगे कि वो एक पहाड़ी राज्य में हुए। ऐसा नहीं चलेगा! देवभूमि में हुए जघन्य अपराधों को लेकर क्या कोई सड़कों पर उतरा, क्या प्रदेश की विधानसभा में किसी ने भी उन मासूमों के लिए आवाज उठाई, जिनकी आवाज हवस की खातिर हमेशा के लिए फ़ना हो गई। लिहाजा अगर देश की राजधानी में हुए गैंगरेप पर समूचा देश में उबाल आता है तो फिर इन मासूमों के परिजनों को न्याय दिलाने की खातिर उत्तराखंड के लोग सड़कों पर क्यों नहीं उतर सकते?