Friday, January 25, 2013

संकट में ऊर्जा प्रदेश




विद्युत उत्पादन घटने से, ब्लैक आउट का बढ़ा खतरा
प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड राज्य को लेकर यहां के वाशिंदों ने जो सपने बुने वो धीरे-धीरे  धूमिल होते नजर आ रहे हैं। राज्य में आपार प्राकृतिक संसाधनों के होने से इसे कुदरत के किसी तोहफे से कम नहीं आंका जाता था। यहीं वजह है कि इस प्रदेश के संसाधनों पर हर  किसी ने डाका डालने की कोशिश की। उत्तर प्रदेश मंे रहते हुए प्राकृतिक संसाधनों का जिस निर्ममता से दोहन किया गया था उसी का परिणाम उत्तराखंड राज्य आंदोलन  रहा। राज्य आंदोलन के दौरान प्रदेश के जनमानस ने अलग सूबे के लिए कई सपने देखे, उन्हीं सपनों से एक था ऊर्जा प्रदेश का। ऊर्जा में अत्म निर्भरता का जो सपना देखा गया  था वो हमारे पुरखों की उस उदासी के खात्मे का था, जिसे उन्होंने गुप और अंधेरी कंद्राओं में सहा और जिया था। लेकिन अफसोस कि राज्य गठन के बाद ऊर्जा प्रदेश का सपना खंड-खंड होता नजर आ रहा है।
जिस ऊर्जा प्रदेश का सपना प्रदेश सरकार दिखाती है उसकी असल सच्चाई देखनी है तो पहाड़ों में जाने की जरूरत नहीं है। प्रदेश के शहरों में ही आपको कई उदाहरण मिल जायेंगे। शहर में लोग  बिजली की कटौती से परेशान हंै। विद्युत विभाग जब चाहे अपने मन मुताबिक बिजली कटौती कर देता है।  बिजली कटौती के पीछे की अगर असल वजह देखें तो राज्य में विद्युत उत्पादन ना होना है। राज्य में भले ही कई बड़े और भारी भरकम बांध हैं और कुछ निर्माणाधीन और प्रस्तावित भी हैं। लेकिन इन सब के बावजूद  राज्य में हो रही बिजली की खपत के मुकाबले  बिजली पैदा नहीं हो रही है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य में 31.07 मिलियन यूनिट की डिमांड  है लेकिन उत्पादन सिर्फ 11.08 मिलियन यूनिट का हो रहा है।  यानी कि प्रदेश के तकरीबन सभी बिजली घरों पर जरूरत के एक तिहाई भी उत्पादन नहीं हो रहा है।
जिससे साफ होता है कि राज्य में बिजली संकट खत्म होने के बजाय गहराता जा रहा है। ऊर्जा के जानकारों की माने तो अगर प्रदेश के यही हालात रहे तो वो दिन दूर नहीं जब पूरे प्रदेश में ब्लैक आउट का खतरा होगा। दूसरी ओर ब्लैक आउट के खतरे से बचने के लिए विद्युत विभाग ने बड़ी मात्रा में बिजली कटौती का सहारा लिया है। दिसंबर 2011 और दिसंबर 2012 के आंकड़ों पर अगर गौर करें तो दिसंबर 2011 में 19.05 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन हुआ जबकि 24 दिसंबर 2012  तक 12.02 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन हुआ। आंकड़े साफ बता रहे है कि दिसंबर 2011 के मुकाबले दिसंबर 2012 में 11.08 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन कम हुआ। जबकि इसके सापेक्ष विद्युत की मांग 30.04 मिलियन यूनिट थी।
बिजली की आपूर्ति को पूरा करने के लिए निगम द्वारा केंद्र से 5.10 मिलियन यूनिट बिजली खरीदी जा रही है। साथ ही ग्रिड से 4 मिलियन यूनिट बिजली की खरीद भी हो रही है। लेकिन राज्य में विद्युत उत्पदान इतना कम हो रहा है कि इस समस्या से पार पान ेके लिए उत्तराखंड पावर कार्पोरेशन के पसीने छूट रहे हैं। बिजली उत्पादन में कमी और मांग अधिक होने के चलते ऊर्जा निगम ने बिजली कटौती का फंडा अपना लिया है। यही कारण है कि पहले गढ़वाल फिर कुमांऊ मंडल और अब शहरी क्षेत्रों में घंटो बिजली कटौती शुरू कर दी है।
इतना ही नहीं बिजली की बढ़ती मांग को देखते हुए ऊर्जा निगम बडे़ पैमाने पर कटौती के मूड में है और वो उन शहरी इलाकों में भी विद्युत कटौती करने वाला है जहां निगम ने कटौती ना करने का निर्णय लिया था। ऐसा नहीं है कि विद्युत उत्पादन के गिरते स्तर से पार पाने के लिए कदम ना उठाये हो, इसके लिए निगम ने बकायदा रणनीति बनाई जो कि कारगर साबित नहीं हुई। इसीलिए निगम अब विद्युत कटौती पर उतर आया है और हर रोज  पांच मिलियन यूनिट रोस्टिंग कर मांग के आस-पास पहुंचने की कोशिश कर रहा है। विद्युत कटौती को लेकर ऊर्जा निगम के अधिकारियों का कहना है कि दिसंबर माह में उन्हें इतने कम विद्युत उत्पादन की उम्मीद नहीं थी। अधिकारियों का कहना है कि लगातार बढ़ती ठंड के कारण नदियों का जलस्तर गिरने से बिजली उत्पदान में भी कमी आयी।
राज्य में बिजली कटौती जोरों पर है , लेकिन प्रदेश सरकार हर मंच से सूबे में शत प्रतिशत बिजली देने की बात करती है। यह हालात उस प्रदेश के हैं  जिसे ऊर्जा प्रदेश की पदवी जब-तब दी जाती है और सूबे को ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की जाती है। विडंबना देखिए पहले ये बात भाजपा बोला करती थी और अब कांग्रेस। राज्य गठन के बाद दोनों दलों ने बारी-बारी से सूबे में शासन किया और जनता को ऊर्जा प्रदेश के ख्वाब दिखाये। सूबे को बिजली से रोशन करने के लिए बकायदा कागजों पर नीतियां बनाई  लेकिन असल हकीकत में इनका फायदा माफियाओं को पहुंचाया। प्रदेश की नदियों पर बांध बनाये गये, लाखों की संख्या में लोगों को उनकी जन्म और कर्मभूमि से उजाड़ा कर उन्हें विस्थापित किया गया।  बांधों से बनाई जा रही बिजली से दिल्ली जैसे महानगर ों को जगमगाया जा रहा है। लेकिन बिजली कि खातिर जिन लोगों को उनकी जड़ों से दूर किया वही लोग आज लालटेन युग में जीने को मजबूर हंै। जरा सोचिए क्या इसी ऊर्जा प्रदेश के लिए लोग सड़कों पर उतरे थे?


उत्तराखंड क्रांति दलः आपसी द्वंद और बिखराव



यूकेडी का सख्त फैसला, प्रीतम पंवार पार्टी से निलंबित
आपसी गुटबाजी से कहीं वजूद ना खो दे उक्रांद
प्रदीप थलवाल
कभी उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन की प्रमुख ताकत रही यूकेडी इस तरह कमजोर होकर बिखराव का दंश झेलेगी शायद ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा होगा। कई दफा टूटने-जुड़ने और  बिखराव से गुजरने वाला ये क्षेत्रीय दल एक बार फिर से टूट की कगार पर है। मौजूदा समय में उत्तराखंड क्रांति दल के भीतर सब कुछ सामान्य नजर नहीं है। पार्टी के अंदर छोटे-बड़े  नेताओं की तलवारें खिंची हुई है। धडो़ं में विभाजित यूकेडी में अगर थोड़ी सी भी चूक हुई तो उक्रांद नेस्तनाबूद हो जायेगा और राज्य आंदोलन की ताकत रही यूकेडी के अवशेष इतिहास की  पोटली में नजर आयेंगे।
उत्तराखंड क्रांति दल के वर्तमान हालात उसकी करनी के ही फल है। राज्य गठन के बाद उक्रांद के इतिहास पर नजर डालें तो जनता के बीच यूकेडी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी सेे गिरा है। कभी प्रदेश भर में यूकेडी की एक आवाज पर लोग अपना कामकाज छोड़ इकट्ठा हो जाया करते थे लेकिन मात्र दो दशक के अंदर ऐसा क्या हो गया कि यूकेडी ने अपनी ये खूबी खो दी। आलम यह है कि यूकेडी को लोग राज्य आंदोलन की ताकत के बजाय हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। लेकिन दल की ऐसी स्थिति को लेकर कभी भी पार्टी के अंदर किसी ने इस ओर ना सोचा और ना ही समझने की कोशिश की और अगर कोशिशें हुई भी तो उनका नतीजा तो सिफर ही नजर आता है।
यूकेडी में जब-तब अजब-गजब फैसले लिए गये, ये फैसले पार्टी हित में जरूरी भी थे लेकिन ज्यादातर फैसलों में आपसी रंजिश की झलक नजर आती थी। अमूमन देखा जाय तो यूकेडी हमेशा कुछ ही लोगों के हाथ की कठपुतली बनी रही, वो जो भी फैसले लेते उसे पार्टी मान लेती और आम कार्यकर्ता फैसलों की सहमति पर सिर्फ गर्दन हिलाता रह जाता।  इन्हीं फैसलों में से एक पिछली भाजपा सरकार को पार्टी का समर्थन देना भी था। इस समर्थन का नतीजा यह हुआ कि उत्तराखंड क्रांति दल खेमों में बंट गई और धड़ों में बंटी यूकेडी के बीच असली और नकली की जंग छिड़ी। इसी बीच प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हुए। यूकेडी का आपसी द्वंद पार्टी का सिंबल भी सीज करवा बैठा। नतीजा यह रहा कि चुनाव आयोग ने दो गुटों को अलग-अलग चुनाव निशान आवंटित किया।
उक्रांद ;पीद्ध और उक्रांद ;डीद्ध नाम से अलग हुए मुख्य धड़ों ने चुनावी मैदान में अपनी ताल ठोकी। जिसमें उक्रांद ;पीद्ध एक सीट लाने में कामयाब रहा लेकिन उक्रांद ;डीद्ध को जनता ने सिरे से खारिज किया। उत्तराखंड की राजनीति को करीब से जानने वालों का कहना है कि इस जनादेश ने यूकेडी को जमीन दिखा दी और संकेत दे दिये हैं कि उसे अगर क्षेत्रीय ताकत बनना है तो दल के नेताओं को धड़ों में नहीं बल्कि एकजुट होना होगा। साथ ही उन्हें ग्राम स्तर पर अपने आप को मजबूत करना होगा। क्योंकि उक्रांद का जन्म क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर हुआ था ना कि राष्ट्रीय पार्टियों का पिछलग्गु बनने के लिए। राजनीति के जानकारों का ये भी कहना है कि यूकेडी ने मौजूदा कांग्रेस सरकार को समर्थन देकर फिर से साबित कर दिया है कि उसे सत्ता सुख भोगने की आदत पड़ गई है। राजनीतिक जानकार अंदेशा जता रहे है कि सरकार को दिया समर्थन यूकेडी के लिए कभी भी सिरदर्द बन सकता है और शायद यही वजह है कि यूकेड़ी के अंदर मचा घमासान इसी दर्द के संकेत हैं।  जो अब स्पष्ट दिखाई देने लगे हैं।
हाल ही में चुनाव आयोग ने यूकेडी ;पीद्ध को असली ठहराया और जल्द केंद्रीय कार्यकारिणी गठित करने को कहा इसके साथ ही चुनाव आयोग ने यूकेडी को तगड़ा झटका भी दिया और उसकी क्षेत्रीय दल की मान्यता ही खत्म कर दी। जिससे यूकेडी के अंदर उपजी नाराजगी भी सामने आयी। छोटे और बेड़े नेताओं के साथ सबसे पहले यूकेडी कोटे से विधायक और प्रदेश सरकार में शहरी विकास मंत्री प्रीतम सिंह पंवार ने अपने केंद्रीय अध्यक्ष पर हमला बोला। प्रीतम पंवार ने त्रिवेंद्र पंवार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए कहा कि पार्टी में अध्यक्ष की कार्यप्रणाली किसी तानाशाह से कम नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि जब अध्यक्ष का कार्यकाल 25 जुलाई 2012 को  खत्म हो चुका है लेकिन वो पद पर असंवैधानिक ढंग से काबिज हैं। इतना ही नहीं प्रीतम पंवार ने उत्तराकाशी जिला कार्यकारिणी को भंग किये जाने को भी सरासर गलत ठहराया। प्रीतम पंवार अपने अध्यक्ष से इतने खफा हंै कि उन्होने साफ कर दिया है कि वो त्रिवेंद्र पंवार का नेतृत्व नहीं स्वीकार करेंगे।
बताया जा रहा है कि प्रीतम पंवार यूकेडी से अलग हुए धड़ों और अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर एक मजबूत राजनीतिक संगठन खड़ा करने की तैयारी में है। इसे देखते हुए त्रिवेंद्र पंवार के धुर विरोध प्रीतम के पक्ष में उतर आये हैं। दूसरी ओर धड़ों में बंट रही यूकेडी के नेताओं ने शहरी विकास मंत्री के बयान को गलत ठहराया और उन्हें नसीहत देते हुए कहा कि अगर प्रीतम पंवार पार्टी हित की बात करते तो उन्होंने अपनी बात पार्टी फोरम में रखनी चाहिए थी ना कि मीडिया में सार्वजनिक करनी चाहिए थी। उधर उक्रांद के वरिष्ठ नेता और पार्टी संरक्षक काशी सिंह ऐरी ने भी अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि पार्टी को चाहिए कि वो जल्द से जल्द केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाएं। इसके लिए उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को भी पत्र लिखा और 15 दिन के अंदर अधिवेश्न बुलाने की बात कही। यूकेडी के सूत्रों की माने तो काशी सिंह ऐरी पिछले लंबे समय से केंद्रीय अध्यक्ष से नाराज चल रहे हैं। बताया जा रहा है कि दल से उन्हें भी निष्कासित कर दिया था लेकिन कुछ वजहों के चलते उनके निष्कासन को रोक लिया गया। दूसरी ओर राजनीतिक विश्लेषकों की भविष्यवाणी भी सच साबित हो रही है। जिसमें राजनीतिक पंडितों का कहना था कि अगर पार्टी का माहौल ऐसा ही रह तो त्रिवेंद्र पंवार एक और इतिहास दोहरा सकते हैं । त्रिवेंद्र पंवार ने एक बार फिर सख्त फैसला लेते हुए पार्टी के एक मात्र विधायक और कांग्रेस सरकार में शहरी विकास मंत्री प्रीतम पंवार को पार्टी से निलंबित कर नोटिस भेज दिया है। पत्रकार वार्ता के दौरान यूकेडी के केंद्रीय अध्यक्ष ने सीधे लफ्जों कहा कि पार्टी में अनुशासनहीनता बर्दास्त नहीं की जायेगी और प्रीतम पंवार पिछले समय से अनुशासनहीनता कर रहे थे। यूकेडी अध्यक्ष के इस कड़क फैसले से ना सिर्फ कांग्रेस-यूकेडी गठबंधन पर फर्क पड़ेगा बल्कि ये फैसला पार्टी के लिए भी भारी पड़ेगा। उधर उक्रांद ;डीद्ध ने भी मामले की नजाकत को भांपते हुए फिर से पार्टी का एकीकरण का राग छेड़ दिया है।
यूकेडी में बन रहे समीकरण बता रहे हैं कि प्रदेश का एक मात्र क्षेत्रीय दल अपने एक और बिखराव की ओर है। यूकेडी का दुर्भाग्य देखिए कि जन्म से  ही इस क्षेत्रीय दल की नियति टूटने-संवरने और बिखरने की रही है। कमोबेश राजनीति में स्थिति बनती और बगड़ती कैसी है ये बात उक्रांद के नेता अच्छी तरह जानते हैं।  लेकिन पार्टी के किसी भी नेता ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और ना ही पार्टी के इन हालातों का मुल्यांकन करने की सोची। विडंबना देखिए कि एक बार फिर उत्तराखंड क्रांति दल हाशिये पर  है।  पार्टी में अंदरूनी कोहराम मचा हुआ है, एक-दूसरे पर आरोप मंढ़े जा रहे हैं कोई प्रीतम पंवार पर सवाल उठा रहे है तो कोई अध्यक्ष की कार्यप्रणाली को तानाशाही करार दे रहे है। लिहाजा दोनों से ही सवाल पूछा जाना चाहिए। प्रीतम पंवार ने अगर पार्टी के खिलाफ काम किया है तो उन्हें दंड दिया जाना उचित है,  जबकि दूसरी ओर पार्टी अध्यक्ष त्रिवेंद्र पंवार को भी बताना होगा कि उन्होने पार्टी के लिए अपने शासनकाल में क्या किया? आखिर पार्टी के नेता उनसे खफा क्यों हैं? क्या वजह है कि वो पार्टी को एकजुट करने में नाकाम हैं?  क्यों  उनकी कार्यप्रणाली पर उंगली उठायी जा रही है?
आखिर यूकेडी के नेताओं को समझना हो वो यूपी की सपा और बसपा,  पंजाब का अकाली दल, पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडू की डीएमके और एडीएमके, झारखंड की झमुमो की तरह क्यों नहीं बन पायी। यूकेडी नेताओं को एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी की जगह आत्ममंथन करना होगा कि उन्हें कैसे पार्टी को मजबूत करना होगा। ताकि उत्तराखंड राज्य आंदोलन की इस ताकत की बाजुएं फिर मजबूत हो सके। ?

मूल निवासः कोहरा घना है



प्रदीप थलवाल

प्रदेश भर में इन दिनों मूल निवास का मुद्दा गरमाया हुआ है। कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने इस प्रकरण को लेकर सरकार के खिलाफ हल्ला बोला। हाल ही में उत्तराखंड क्रंति दल ने मूल निवास को लेकर प्रदेश बंद का अहवान किया जिसे सूबे के कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने समर्थन देकर सफल बनाया। दूसरी ओर यूकेडी के फैसले का कई संगठनों ने विरोध कर मूल निवास के मुद्दे को और हवा दे दी है।
राजधानी से लेकर प्रदेश के जिलों में सरकार के उस बयान की निंदा हो रही है, जिसे प्रदेश की संसदीय कार्य मंत्री इंदिरा हृदयेश ने विधानसभा सत्र के दौरान दिया। सदन में बकौल संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि  राज्य गठन के दिन से सभी लोग मूल निवासी हैं। सरकार द्वारा सदन में दिया गया यह बयान तूल पकड़ता जा रहा है। पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों में सरकार के फैसले को प्रदेश की अवधारणा के विरोध में देखा जा रहा है। कई दलों की दलील है कि सरकार ने सदन में जो बयान दिया, वो सीधे-सीधे देश की अखंडता को चोट पहुंचाता है साथ ही संविधान का उल्लंघन भी करता है।
इससे पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने भी मूल निवास के संदर्भ में फैसला सुनाया। जिसमें कोर्ट ने दलील दी कि 9 नवंबर 2000 यानि कि राज्य गठन के दिन जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा था उसे यहां का मूल निवासी माना जायेगा। हाई कोर्ट और राज्य सरकार के फैसले से जनता भ्रमित हो चुकी है। क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत इस संदर्भ में पहले ही व्यवस्था कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के अुनसार यदि कोई व्यक्ति रोजागर और अन्य कार्यों हेतु किसी दूसरे राज्य में जाता है, तो उसे उस राज्य का जाति प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा, उसे उसी राज्य से जाति प्रमाण पत्र मिलेगा जहां का वो मूल निवासी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के तहत दी। मूल निवास के संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त / 6 सितंबर 1950 को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी  था उसे उसी राज्य में मूल निवास प््रामाण पत्र मिलेगा। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि पर अस्थाई रोजगार या अध्ययन के लिए किसी अन्य राज्य में गया हो तो भी उसे अपने मूल राज्य में ही जाति प््रामाण पत्र मिलेगा। ऐसे में मूल निवास के मसले पर राज्य सरकार का फैसला संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है।
संविधान के जानकारों का कहना है कि मूल निवास पर राज्य सरकार कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ हो। जानकारों  का कहना है कि विधानसभा में मूल निवास पर  नया शासनादेश जारी करने का ऐलान राजनीति से प्रेरित है। लिहाजा यह विधानसभा के विशेषाधिकार हनन का मामला बनता है।
उत्तराखंड के साथ देश के नक्शे पर छत्तीसगढ़ और झारखंड भी उभरे, लेकिन इन दोनों राज्यों में मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र दिये जाने के प्रावधान हैं। झारखंड में उन्हीं व्यक्तियों को मूल निवास प्रमाण पत्र निर्गत किये जा सकते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी वहां के निवासी हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाण पत्र उन्हीं लोगों को दिये जाते हैं जिनके पूर्वज 10 अगस्त/06 सितंबर 1950 को छत्तीसगढ़ के मूल निवासी थे। उन लोगों को यहां मूल निवास प्रमाण पत्र नहीं दिये जाते हैं जो यहां अन्य राज्यों से आये हैं।
कमोबेश यही स्थिति महाराष्ट्र की भी है। महाराष्ट्र में भी उसके गठन यानी कि 1 मई 1960 के बाद मूल निवास का मुुद्दा गरमाया था। महाराष्ट्र में भी वहां के गैर मूल निवासियों ने जाति प्रमाणपत्र  दिये जाने की मांग की। ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र सरकार ने  भारत सरकार से इस संदर्भ में कानूनी राय मांगी। जिस पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त/6 सितंबर 1950 का परिपत्र जारी किया। भारत सरकार के दिशा-निर्देशन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने 12 फरवरी 1981 को एक सर्कुलर जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राज्य में उन्हीं व्यक्तियों को अनुसूचित जाति जनजाति के प््रामाण पत्र मिलेंगे जो 10 अगस्त/ 6 सितंबर 1950 को राज्य के स्थाई निवासी थे। इस सर्कुलर में ये भी स्पष्ट किया था कि जो व्यक्ति 1950 में राज्य की भौगोलिक सीमा में निवास करते थे वहीं जाति प्रमाण पत्र के हकदार होंगे।
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में ऐसे नियम नहीं है। उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24,25 और इसी अधिनियम की पांचवीं और छठी अनुसूची एवं संविधान पीठ के निर्णय में साफ है कि उत्तराखंड में उसी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र मिल सकता है जो 10 अगस्त/ 06 सितंबर 1950 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य की सीमा में स्थाई निवासी के रूप में निवास कर रहा था। जानकारों का कहना है कि जब प्रदेश में मूल निवास का प्रावधान है तो फिर राज्य सरकार े मूल निवास की कट आॅफ डेट राज्य गठन को क्यों मान रही है। इससे यह बात भी निकल कर आती है कि राज्य सरकार 6 सितंबर 1950 के बाद बाहरी राज्यों से आए लोगों को मूल निवास के मामले पर गुमराह कर रही है। संविधान के जानकार आशंका व्यक्त करते हैं कि सरकार के फैसले से प्रदेश के मूल निवासी हाशिए पर तो जायेंगे लेकिन वो अपने हकों के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं हिचकिचाएंगे।
कमेटी दर कमेटी
उत्तराख्ंाड राज्य गठन के साथ ही प्रदेश में मूल निवास का मामला गरमाने लगा था। इस मामले को लेकर सूबे में राजनीति उग्र होने लगी। जिसे देखते हुए सभी सरकारों ने कमेटी का गठन पर मामले को शांत करने की कोशिश की। क्योंकि किसी भी सरकार के अंदर इतनी इच्छाशक्ति नहीं थी कि वो राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के प्राविधान को राज्य में लागू कर सके। जैसे कि अन्य राज्यों में है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी व्यवस्था के तहत निर्यण दिये हैं। लेकिन राज्य सरकार में दृढ इच्छाशक्ति की कमी और वोट बैंक की राजनीति जैसे कारकों ने प्रदेश में एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। इस समस्या से ना सिर्फ पहाड़ और मैदान की खाई चैड़ी होती जा रही है बल्कि मूल निवासियों को उकसाने की कोशिशें भी तेज होती जा रही है। मूल निवास मसले पर कमेटी गठित करने का फैसला सबसे पहले भाजपा सरकार का था, यह वहीं भाजपा है जिसने राजधानी चयन आयोग बनाकर स्थाई राजधानी को लटकाने में अहम भूमिका निभाई। भाजपा सरकार ने प्रकाश पंत की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। इस कमेटी ने अपनी सिफारिशों में कहा कि 1950 में जो व्यक्ति जहां का निवासी था उसे वहां का मूल निवासी माना जाय। साथ ही पंत कमेटी ने ये भी जोड़ा कि 15 साल पहले राज्य में रह रहे ऐसे व्यक्ति को भी स्थाई निवासी माना जाय जिसकी राज्य में स्थाई संपत्ति हो। ऐसा व्यक्त् िजो राजकीय सेवा में हो और उसका राज्य के बाहर ट्रांसफर ना हुआ हो। इसके साथ ही पंत कमेटी ने एक और दलील दी कि जिसका रोजगार कार्यालयों में स्थाई निवासी का रजिस्ट्रेशन हो। पंत कमेटी की सिफारिशों से राज्य सरकार सहमत नहीं हुई लिहाजा राज्य सरकार ने एक और समिति का गठन किया। इस समिति को गठन करने का श्रेय भी भाजपा सरकार को जाता है। भाजपा सरकार ने तत्कालीन मंत्री मदन कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। गजब देखिए कि इस समिति में भाजपा ने जानबूझ कर यूकेडी नेता और उस समय भाजपा सरकार में राजस्व मंत्री रहे दिवाकार भट्ट को भी शामिल किया। इस समिति ने भी अपने फैसले दिये। जिसमें 11 वीं कक्षा में दाखिले पर डोमिसाइल नहीं मांगा जाय। राज्य बनने के बाद जितने लोग यूपी से आये थे उन लोगों को भी राज्य के अन्य लोगों की तरह मूल निवास प्रमाण पत्र दिया जाय। साथ ही अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि वह राज्य में 60  साल से रह रहा है लेकिन उसके पास सिर्फ 40 साल तक के साक्ष्य है तो 20 साल के दस्तावेज राज्य सरकार उसे उपलब्ध कराये। कौशिक समिति की दलीलें पर अगर गौर करें तो इसमें साफ झलकता है कि ये धरातल पर काम किये बिना तैयार की गई है। भाजपा ने दो-दो कमेटी का गठन तो जरूर किया लेकिन लागू किसी भी कमेटी की सिफारिशें नहीं की। राज्य में सरकार अब कांग्रेस की है इस सरकार से लोगों को उम्मीद थी लेकिन कांग्रेस सरकार ने भी भाजपा की राह पर कदम आगे बढ़ाते हुए एक और कमेटी का गठन कर दिया है और ये कमेटी इंदिरा हृदयेश की अध्यक्षता में काम करेगी। अब देखना ये हो्रगा कि इंदिरा हृदयेश की अध्यक्षता में गठित ये कमेटी क्या फैसले देती है या फिर ये कमेटी भी घिसे-पिटे फार्मूले अपनाये और सिर्फ राजनीति के समीकरणों को ही हल करने की कोशिश करेगी।
बयान
मूल निवास को लेकर हाईकोर्ट का फैसला असंवैधानिक है। हाईकोर्ट का फैसला सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग, भारत सरकार द्वारा 1982 और 1984 को दिये गये निर्णय और संविधान के अनुच्छेद 5 के खिलाफ है। राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट के फैसले को मान लेना उसकी असंवेदनशीलता को स्पष्ट करती है। जिस दिन से राज्य बना उस दिन से प्रदेश में सरकार चलाने वाली पार्टी हो या फिर सहयोगी दल सभी जनता की नजरों में दोषी हैं। क्योंकि किसी ने भी मूल निवास को लेकर ठोस कदम नहीं उठाये। वर्तमान बहुगुणा सरकार मूल निवास को लेकर संजीदा नहीं है अगर होती तो सरकार  हाईकोर्ट के निर्णय मानने के बजाय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देती।  इसके साथ ही सदन में बैठने वाले विधायक हो या फिर पूर्व विधायक और मंत्री रहे हों, इस विषय पर किसी को दोष मुक्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि जनता ने इन्हें सदन में निधि हजम करने के लिए नहीं भेजा बल्कि उनकी आवाज को सदन में उठाने के लिए भेजा। इन सभी ने जनता के विश्वास को तार-तार किया है।
रविंद्र जुगरान, पूर्व अध्यक्ष, राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद और भाजपा नेता।
हम राज्य सरकार के फैसले के बिलकुल पक्ष में नहीं हैं। क्योंकि देश में जब मूल निवास को लेकर व्यवस्था है तो फिर राज्य सरकार इस तरह कोई भी फैसला मानने पर क्यों बाध्य है। हाईकोर्ट का फैसला सरकार द्वारा माना जाना गंभीर है। इससे लोगों में भ्रंातियां उत्पन्न होंगी। देश के अंदर किसी भी जाति-संप्रदाय को कहीं भी रहने का अधिकार है। लेकिन जाति प्रमाण पत्र के लिए उसे अपने मूल राज्य से लेने का प्रावधान है। ऐसे में राज्य सरकार इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों कदम उठा रही है। महिला मंच मांग करता है कि सरकार राज्य में स्थाई निवासी घोषित करे।
कमला पंत, अध्यक्षा, महिला मंच।
राज्य सरकार द्वारा मूल निवास की कट आॅफ डेट 9 नवंबर 2000 को स्वीकार करना इस प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। मूल निवास पर सरकार का ये फैसला सोची समझी चाल है। क्योंकि सरकार में अधिकांश लोग मैदानी मूल के  हैं और ये नहीं चाहते हैं कि इस प्रदेश का भला हो। ये लोग सिर्फ अपने परिवार का भला चाहते हैं। इसीलिए मूल निवास को लेकर सरकार हाईकोर्ट का निर्णय स्वीकार कर रही है। राज्य के अगले परिसीमन में यह और भी खुलकर सामने आ जायेगी। जब पहाड़ में महज 17 सीटें रहेगी और सारी सीटों पर मैदान का कब्जा होगा। उत्तराखंड रक्षा मोर्चा सरकार के इस फैसला का घोर विरोध करता है।
टीपीएस रावत, अध्यक्ष, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा
देखिए संविधान में मूल निवास को लेकर कहीं कोई जिक्र नहीं है। संविधान में दो शब्दों का जिक्र है जिसमें डोमिसाइल और रेजिडेंस हैं। 1950 में जो नोटिफिकेशन जारी हुआ था वो अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए हुआ था ना कि मूल निवास के लिए। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में अगर बात करें तो 1950 में जब नोटिफिकेशन जारी हुआ था। तब उत्तराखंड का कोई अस्थित्व नहीं था। ऐसी स्थिति में अगर कोई जाति प्रमाण पत्र मांगता है तो सरकार को देखना चाहिए कि वह जाति यूपी में नोटिफाइड है कि नहीं। अगर है तो राज्य सरकार को चाहिए कि उसे जाति प्रमाण पत्र दे। जहां तक अनुच्छेद 5 का सवाल है तो इसमें मूल निवास का कहीं कोई जिक्र नहीं है इसमें नागरिकता की बात कही गई है। मूल निवास पर राज्य में बरगलाने वाली बात हो रही है। मूल निवास से ना तो लाभ है और ना ही हानि। मामला जाति प्रमाण पत्र का है ना कि मूल निवास का।
एस. एस. पांगती, पूर्व आईएएस अधिकारी
मूल निवास को लेकर लोग भ्रम में हैं। दरअसल मसला जाति प्रमाण पत्र है। संविधान में जाति प्रमाण पत्र दिये जाने की  व्यवस्था है। 1950 में जारी राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन में साफ लिखा है कि किसी भी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र उसके मूल राज्य से मिलेगा। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद कई बाहरी लोग इस प्रदेश में आये। उन्हें अगर यहां का जाति प्रमाण पत्र दिया जाता है तो उससे यहां के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को मिलने वाला लाभ बाहरी लोग उठायेंगे, क्योंकि प्रदेश में कई जनजाति बहुत ही पिछड़ी हुई है। दूसरी बात सांस्कृतिक पहचान की भी है। उत्तराखंड राज्य का निर्माण ही अलग सांस्कृतिक पहचान के लिए हुआ था ऐसे में इस राज्य का औचित्य ही क्या रह जायेगा जब यहां के पिछड़े लोगों का हक कोई और छीन लेगा। सरकार में निर्णय लेने की क्षमता नहीं है  ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर मूल निवास का विरोध कर मैदान और पहाड़ को बांटने की कोशिश कर रहे हैं।
जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार





जस का तस स्थाई राजधानी का मुद्दा



प्रदेश की राजनीति के चरित्र पर  गंभीर सवाल
गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास कहीं राजनीतिक पैंतरा तो नहीं?
प्रदीप थलवाल
गैरसैंण ये नाम राज्य निर्माण आंदोलन के दौरान एकाएक सामने आया था। उत्तर  प्रदेश से अलग जिस प्रदेश के लिए आंदोलन लड़ा गया था उसी पहाड़ी प्रदेश की राजधानी के रूप में गैरसैंण को पहले ही स्वीकार कर लिया गया था। गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाये जाने के पक्ष में 1994 मंे आंदोलनकारियों से लेकर आम लोगों और राजनीतिक दलों के नेतओं से लेकर नौकरशाहों ने हामी भरी थी।
23 अप्रैल 1987 को संसद भवन की दर्शकदीर्घा में जब आंदोलनकारियों ने अलग राज्य को लेकर पर्चे फंेके थे तो इस हरकत पर  गिरफ्तार आंदोलनकारी और वर्तमान में यूकेडी के केंद्रीय अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार ने मीडिया द्वारा पूछे गये राजधानी के सवाल पर तपाक से कहा था कि पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ में होगी और हमारे पास गैरसैंण हैं। त्रिवंेद्र सिंह पंवार के इस बयान से हालांकि प्रदेश में भूचाल आ गया था और  राजधानी पर अपने कार्यकर्ता के बयान  पर एक दफा यूकेडी भी सकते में आ गई थी। यूकेडी में मचे घमासान के फलस्वरूप 1991 में दल ने राजधानी की परिकल्पना को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। इस कमेटी की रिपोर्ट 14 जनवरी 1992 को बागेश्वर में जारी किया था, इसे यूकेडी का ब्लू पिं्रट भी कहा जाता है। राजधानी को लेकर बनाये गये इस ब्लू प्रिंट में गैरसैंण की विस्तृत जांच पड़ताल कर उसे राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त स्थल माना था।
यूकेडी ने राजधानी स्थल के चयन पर अपनी रिपोर्ट में गैरसैंण के पक्ष में कई वाजिब दलीलें दी। यूकेडी ने साफ किया किया था कि गैरसैंण गढ़-कुमाउं एकता और अखंडता का केंद्र है। साथ ही उत्तराखंड राज्य के सभी जिलों से गैरसैंण लगभग बराबर दूरी पर है। ताकि प्रदेश की जनता को राजधानी आने-जाने में कोई तकलीफ ना हो। राज्य हित में आंदोलनकारियों की यह दूरगामी सोच थी। यही वहज रही  कि गैरसैंण के प्रति प्रदेश के हर नागरिक का भावनात्मक झुकाव बढ़ा और  सर्वसम्मति से अलग प््रादेश कृी राजधानी के लिए गैरसैंण को पहले ही स्वीकार कर दिया था।
आखिरकार अलग प्रदेश के लिए आंदोलनरत जनता का संघर्ष रंग लाया, सड़कों पर सालों के संघर्ष के बाद उसके सपने साकार हुए, 9 नवंबर 2000 के दिन उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। प्रदेश की जनता नए प्रदेश को लेकर उत्साहित थी उसे अपने सपनों का राज्य जो मिल चुका था, लेकिन विडंबना देखिए कि  जिस गैरसैंण को यहां की जनता ने आंदोलन के दौरान राजधानी घोषित कर दिया था उसी गैरसैंण को यहां की सरकारों ने बियावान में डाल कर देहरादून से राजधानी का संचालन किया। राज्य गठन से लेकर अब तक भाजपा और कांग्रेस ने सूबे में बारी-बारी से राज किया। लेकिन दोनों ही  पार्टियों ने कभी भी प्रदेश की स्थाई राजधानी को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं की। बल्कि राजधानी के मसले को दबाने के लिए आयोग का गठन जरूर किया।
उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य है जिसकी अभी तक अपनी कोई स्थाई राजधानी नहीं है। 12 साल गुजर जाने के बाद भी राज्य को अपनी स्थाई राजधानी नहीं मिलना बताता है कि प्रदेश के राजनीतिक दलों के अंदर इच्छाशक्ति की कमी है। हालांकि मौजूदा सरकार ने गैरसैंण में एक कैबिनेट बैठक और विधान भवन बनाने का निर्णय जरूर लिया है। जो इस बात के संकेत देता है कि गैरसैंण आज भी जनभावनाओं का केंद्र है और इसे नकारा नहीं जा सकता। बहुगुणा सरकार को इसलिए बधाई दी जा सकती है कि उसने कम से कम गैरसैंण के मुद्दे को दोबारा जिंदा कर दिया। अलबत्ता भाजपा ने तो अपने शासन के दौरान गैरसैंण की कभी सुध तक नहीं ली।
खैर गैरसैंण में बहुगुणा सरकार ने विधान भवन का शिलान्यास कर दिया हो, लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी खड़े हो गये हैं। प्रदेश सरकार ने अभी तक स्थाई राजधानी के मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। ऐसे में गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास और देहरादून के रायपुर में भी विधान भवन के लिए जमीन देखने का मतलब क्या बनता है। राजनीतिक जानकारों की माने तो गैरसैंण में विधानभवन बना कर कांग्रेस सिर्फ वोट बैंक की राजनीति कर रही है। सरकार ने ना तो गैरसैंण में विधानभवन के लिए सर्वे किया है और ना ही इसके लिए कोई डीपीआर बनाई।
दूसरी और भाजपा नेताओं ने भी सरकार के इस फैसले को सियासी ड्रामा बताया है। भाजपा का कहना है कि स्थाई राजधानी के लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को कांग्रेस ने दरकिनार कर गैरसैंण में विधानभवन बनाने का जो फैसला लिया है वो चिंताजनक है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस गैरसैंण में विधानभवन बनाने का कार्ड खेलकर जनता को भ्रमित कर रही है जबकि गैरसैंण को लेकर उसी के कई मंत्री और विधायक सहमत नहीं है। भाजपा का कहना है कि  गैरसैंण में राजधानी बनाने की बजाय पहाड़ के विकास पर फोकस किया जाना चाहिए, क्योंकि इस प्रदेश का गठन पहाड़ों का विकास करने के लिए हुआ था ना कि राजधानी के मासले पर राजनीति करने के लिए। भाजपा ने गैरसैंण में विधानभवन बनाये जाने पर सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग भी की है।
राजधानी के मुद्दे पर पिछले 12 सालों में सभी दलों ने सिर्फ राजनीतिक पैंतरे ही खेले। फिर चाहे वो भाजपा हो या फिर कांग्रेस या फिर क्षेत्रीय दल यूकेडी। किसी भी दल ने राज्य गठन के बाद स्थाई राजधानी के लेकर मजबूती से अपनी राय नहीं रखी। हालांकि टूटती, बखरती और संवरती यूकेडी जब-तब राजधानी का राग अलापती रही लेकिन सरकार में सहायक दल होने के बाद भी राजधानी के मुद्दे पर उत्तराखंड क्रांति दल दम नहीं दिखा पाया। खैर कुछ विधायकों, मंत्रियों और संासदों ने गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के पक्ष में जरूर बयान दिये हैं। इससे लगता है कि कहीं ना कहीं कुछ राजनेता आज भी गैरसैंण को प्रदेश की आत्मा समझते हैं और विकास का उद्गम स्थल भी। हाल ही में विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने सरकार से गैरसैंण को स्थाई राजधानी की मांग की। लेकिन मुख्यमंत्री ने उनकी इस मांग को  सिरे से नाकार दिया। आखिर जो मुख्यमंत्री गैरसैंण में विधानभवन बनाने के पक्षधर है वह गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने से क्यों परहेज कर रहा है। ये सवाल कहीं ना कहीं सीएम के फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। दूसरी ओर कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत साफ लफ्जों में कहते हैं  कि अगर कोई नेता यह कहता है कि गैरसैंण में राजधानी बनाई जाएगी या बनाई जानी चाहिए तो यह सबसे बड़ा झूठ होगा।
आखिर स्थाई राजधानी को लेकर इतना घमासान क्यों मचा है, क्यों इस पहाड़ी प्रदेश की राजधानी गैरसेंण घोषित करने में राजनीतिक दलों के पसीने चूं रहें हैं। जरा सोचिए क्या हम आंदोलन इसीलिए लड़े थे कि राजधानी को लेकर मैदान और पहाड़ की खाई चैड़ी हो। क्या मातृ और युवाशक्ति की शहदतें यूं ही भूला दी जायेंगी, जिन्होने अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के भविष्य की खातिर सड़कों पर अपना लहू बहाया था। जिन सपनों के लिए पहाड़ गरजा था वो सपने आज भी सपने ही रह गये हैं। राजनीतिक दलों के चंगुल में आकर अपने भी बेगानी बात करने लगे हैं।  स्थाई राजधानी का मुद्दा जस का तस पड़ा हुआ है और राजनीति के चाणक्य अपनी चाल चल रहे हैं, जिससे गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास भी राजनीतिक पैंतर भर लगता है जो  राजनीति के चरित्र पर गंभीर सवाल भी उठाता है।