प्रदेश की राजनीति के चरित्र पर गंभीर सवाल
गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास कहीं राजनीतिक पैंतरा तो नहीं?
प्रदीप थलवाल
गैरसैंण ये नाम राज्य निर्माण आंदोलन के दौरान एकाएक सामने आया था। उत्तर प्रदेश से अलग जिस प्रदेश के लिए आंदोलन लड़ा गया था उसी पहाड़ी प्रदेश की राजधानी के रूप में गैरसैंण को पहले ही स्वीकार कर लिया गया था। गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाये जाने के पक्ष में 1994 मंे आंदोलनकारियों से लेकर आम लोगों और राजनीतिक दलों के नेतओं से लेकर नौकरशाहों ने हामी भरी थी।
23 अप्रैल 1987 को संसद भवन की दर्शकदीर्घा में जब आंदोलनकारियों ने अलग राज्य को लेकर पर्चे फंेके थे तो इस हरकत पर गिरफ्तार आंदोलनकारी और वर्तमान में यूकेडी के केंद्रीय अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार ने मीडिया द्वारा पूछे गये राजधानी के सवाल पर तपाक से कहा था कि पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ में होगी और हमारे पास गैरसैंण हैं। त्रिवंेद्र सिंह पंवार के इस बयान से हालांकि प्रदेश में भूचाल आ गया था और राजधानी पर अपने कार्यकर्ता के बयान पर एक दफा यूकेडी भी सकते में आ गई थी। यूकेडी में मचे घमासान के फलस्वरूप 1991 में दल ने राजधानी की परिकल्पना को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। इस कमेटी की रिपोर्ट 14 जनवरी 1992 को बागेश्वर में जारी किया था, इसे यूकेडी का ब्लू पिं्रट भी कहा जाता है। राजधानी को लेकर बनाये गये इस ब्लू प्रिंट में गैरसैंण की विस्तृत जांच पड़ताल कर उसे राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त स्थल माना था।
यूकेडी ने राजधानी स्थल के चयन पर अपनी रिपोर्ट में गैरसैंण के पक्ष में कई वाजिब दलीलें दी। यूकेडी ने साफ किया किया था कि गैरसैंण गढ़-कुमाउं एकता और अखंडता का केंद्र है। साथ ही उत्तराखंड राज्य के सभी जिलों से गैरसैंण लगभग बराबर दूरी पर है। ताकि प्रदेश की जनता को राजधानी आने-जाने में कोई तकलीफ ना हो। राज्य हित में आंदोलनकारियों की यह दूरगामी सोच थी। यही वहज रही कि गैरसैंण के प्रति प्रदेश के हर नागरिक का भावनात्मक झुकाव बढ़ा और सर्वसम्मति से अलग प््रादेश कृी राजधानी के लिए गैरसैंण को पहले ही स्वीकार कर दिया था।
आखिरकार अलग प्रदेश के लिए आंदोलनरत जनता का संघर्ष रंग लाया, सड़कों पर सालों के संघर्ष के बाद उसके सपने साकार हुए, 9 नवंबर 2000 के दिन उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। प्रदेश की जनता नए प्रदेश को लेकर उत्साहित थी उसे अपने सपनों का राज्य जो मिल चुका था, लेकिन विडंबना देखिए कि जिस गैरसैंण को यहां की जनता ने आंदोलन के दौरान राजधानी घोषित कर दिया था उसी गैरसैंण को यहां की सरकारों ने बियावान में डाल कर देहरादून से राजधानी का संचालन किया। राज्य गठन से लेकर अब तक भाजपा और कांग्रेस ने सूबे में बारी-बारी से राज किया। लेकिन दोनों ही पार्टियों ने कभी भी प्रदेश की स्थाई राजधानी को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं की। बल्कि राजधानी के मसले को दबाने के लिए आयोग का गठन जरूर किया।
उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य है जिसकी अभी तक अपनी कोई स्थाई राजधानी नहीं है। 12 साल गुजर जाने के बाद भी राज्य को अपनी स्थाई राजधानी नहीं मिलना बताता है कि प्रदेश के राजनीतिक दलों के अंदर इच्छाशक्ति की कमी है। हालांकि मौजूदा सरकार ने गैरसैंण में एक कैबिनेट बैठक और विधान भवन बनाने का निर्णय जरूर लिया है। जो इस बात के संकेत देता है कि गैरसैंण आज भी जनभावनाओं का केंद्र है और इसे नकारा नहीं जा सकता। बहुगुणा सरकार को इसलिए बधाई दी जा सकती है कि उसने कम से कम गैरसैंण के मुद्दे को दोबारा जिंदा कर दिया। अलबत्ता भाजपा ने तो अपने शासन के दौरान गैरसैंण की कभी सुध तक नहीं ली।
खैर गैरसैंण में बहुगुणा सरकार ने विधान भवन का शिलान्यास कर दिया हो, लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी खड़े हो गये हैं। प्रदेश सरकार ने अभी तक स्थाई राजधानी के मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। ऐसे में गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास और देहरादून के रायपुर में भी विधान भवन के लिए जमीन देखने का मतलब क्या बनता है। राजनीतिक जानकारों की माने तो गैरसैंण में विधानभवन बना कर कांग्रेस सिर्फ वोट बैंक की राजनीति कर रही है। सरकार ने ना तो गैरसैंण में विधानभवन के लिए सर्वे किया है और ना ही इसके लिए कोई डीपीआर बनाई।
दूसरी और भाजपा नेताओं ने भी सरकार के इस फैसले को सियासी ड्रामा बताया है। भाजपा का कहना है कि स्थाई राजधानी के लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को कांग्रेस ने दरकिनार कर गैरसैंण में विधानभवन बनाने का जो फैसला लिया है वो चिंताजनक है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस गैरसैंण में विधानभवन बनाने का कार्ड खेलकर जनता को भ्रमित कर रही है जबकि गैरसैंण को लेकर उसी के कई मंत्री और विधायक सहमत नहीं है। भाजपा का कहना है कि गैरसैंण में राजधानी बनाने की बजाय पहाड़ के विकास पर फोकस किया जाना चाहिए, क्योंकि इस प्रदेश का गठन पहाड़ों का विकास करने के लिए हुआ था ना कि राजधानी के मासले पर राजनीति करने के लिए। भाजपा ने गैरसैंण में विधानभवन बनाये जाने पर सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग भी की है।
राजधानी के मुद्दे पर पिछले 12 सालों में सभी दलों ने सिर्फ राजनीतिक पैंतरे ही खेले। फिर चाहे वो भाजपा हो या फिर कांग्रेस या फिर क्षेत्रीय दल यूकेडी। किसी भी दल ने राज्य गठन के बाद स्थाई राजधानी के लेकर मजबूती से अपनी राय नहीं रखी। हालांकि टूटती, बखरती और संवरती यूकेडी जब-तब राजधानी का राग अलापती रही लेकिन सरकार में सहायक दल होने के बाद भी राजधानी के मुद्दे पर उत्तराखंड क्रांति दल दम नहीं दिखा पाया। खैर कुछ विधायकों, मंत्रियों और संासदों ने गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के पक्ष में जरूर बयान दिये हैं। इससे लगता है कि कहीं ना कहीं कुछ राजनेता आज भी गैरसैंण को प्रदेश की आत्मा समझते हैं और विकास का उद्गम स्थल भी। हाल ही में विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने सरकार से गैरसैंण को स्थाई राजधानी की मांग की। लेकिन मुख्यमंत्री ने उनकी इस मांग को सिरे से नाकार दिया। आखिर जो मुख्यमंत्री गैरसैंण में विधानभवन बनाने के पक्षधर है वह गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने से क्यों परहेज कर रहा है। ये सवाल कहीं ना कहीं सीएम के फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। दूसरी ओर कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत साफ लफ्जों में कहते हैं कि अगर कोई नेता यह कहता है कि गैरसैंण में राजधानी बनाई जाएगी या बनाई जानी चाहिए तो यह सबसे बड़ा झूठ होगा।
आखिर स्थाई राजधानी को लेकर इतना घमासान क्यों मचा है, क्यों इस पहाड़ी प्रदेश की राजधानी गैरसेंण घोषित करने में राजनीतिक दलों के पसीने चूं रहें हैं। जरा सोचिए क्या हम आंदोलन इसीलिए लड़े थे कि राजधानी को लेकर मैदान और पहाड़ की खाई चैड़ी हो। क्या मातृ और युवाशक्ति की शहदतें यूं ही भूला दी जायेंगी, जिन्होने अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के भविष्य की खातिर सड़कों पर अपना लहू बहाया था। जिन सपनों के लिए पहाड़ गरजा था वो सपने आज भी सपने ही रह गये हैं। राजनीतिक दलों के चंगुल में आकर अपने भी बेगानी बात करने लगे हैं। स्थाई राजधानी का मुद्दा जस का तस पड़ा हुआ है और राजनीति के चाणक्य अपनी चाल चल रहे हैं, जिससे गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास भी राजनीतिक पैंतर भर लगता है जो राजनीति के चरित्र पर गंभीर सवाल भी उठाता है।
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