प्रदीप थलवाल
प्रदेश भर में इन दिनों मूल निवास का मुद्दा गरमाया हुआ है। कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने इस प्रकरण को लेकर सरकार के खिलाफ हल्ला बोला। हाल ही में उत्तराखंड क्रंति दल ने मूल निवास को लेकर प्रदेश बंद का अहवान किया जिसे सूबे के कई राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने समर्थन देकर सफल बनाया। दूसरी ओर यूकेडी के फैसले का कई संगठनों ने विरोध कर मूल निवास के मुद्दे को और हवा दे दी है।
राजधानी से लेकर प्रदेश के जिलों में सरकार के उस बयान की निंदा हो रही है, जिसे प्रदेश की संसदीय कार्य मंत्री इंदिरा हृदयेश ने विधानसभा सत्र के दौरान दिया। सदन में बकौल संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि राज्य गठन के दिन से सभी लोग मूल निवासी हैं। सरकार द्वारा सदन में दिया गया यह बयान तूल पकड़ता जा रहा है। पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों में सरकार के फैसले को प्रदेश की अवधारणा के विरोध में देखा जा रहा है। कई दलों की दलील है कि सरकार ने सदन में जो बयान दिया, वो सीधे-सीधे देश की अखंडता को चोट पहुंचाता है साथ ही संविधान का उल्लंघन भी करता है।
इससे पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने भी मूल निवास के संदर्भ में फैसला सुनाया। जिसमें कोर्ट ने दलील दी कि 9 नवंबर 2000 यानि कि राज्य गठन के दिन जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा था उसे यहां का मूल निवासी माना जायेगा। हाई कोर्ट और राज्य सरकार के फैसले से जनता भ्रमित हो चुकी है। क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत इस संदर्भ में पहले ही व्यवस्था कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के अुनसार यदि कोई व्यक्ति रोजागर और अन्य कार्यों हेतु किसी दूसरे राज्य में जाता है, तो उसे उस राज्य का जाति प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा, उसे उसी राज्य से जाति प्रमाण पत्र मिलेगा जहां का वो मूल निवासी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के तहत दी। मूल निवास के संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त / 6 सितंबर 1950 को जो व्यक्ति जिस राज्य का स्थायी निवासी था उसे उसी राज्य में मूल निवास प््रामाण पत्र मिलेगा। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि पर अस्थाई रोजगार या अध्ययन के लिए किसी अन्य राज्य में गया हो तो भी उसे अपने मूल राज्य में ही जाति प््रामाण पत्र मिलेगा। ऐसे में मूल निवास के मसले पर राज्य सरकार का फैसला संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है।
संविधान के जानकारों का कहना है कि मूल निवास पर राज्य सरकार कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ हो। जानकारों का कहना है कि विधानसभा में मूल निवास पर नया शासनादेश जारी करने का ऐलान राजनीति से प्रेरित है। लिहाजा यह विधानसभा के विशेषाधिकार हनन का मामला बनता है।
उत्तराखंड के साथ देश के नक्शे पर छत्तीसगढ़ और झारखंड भी उभरे, लेकिन इन दोनों राज्यों में मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र दिये जाने के प्रावधान हैं। झारखंड में उन्हीं व्यक्तियों को मूल निवास प्रमाण पत्र निर्गत किये जा सकते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी वहां के निवासी हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में जाति प्रमाण पत्र उन्हीं लोगों को दिये जाते हैं जिनके पूर्वज 10 अगस्त/06 सितंबर 1950 को छत्तीसगढ़ के मूल निवासी थे। उन लोगों को यहां मूल निवास प्रमाण पत्र नहीं दिये जाते हैं जो यहां अन्य राज्यों से आये हैं।
कमोबेश यही स्थिति महाराष्ट्र की भी है। महाराष्ट्र में भी उसके गठन यानी कि 1 मई 1960 के बाद मूल निवास का मुुद्दा गरमाया था। महाराष्ट्र में भी वहां के गैर मूल निवासियों ने जाति प्रमाणपत्र दिये जाने की मांग की। ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र सरकार ने भारत सरकार से इस संदर्भ में कानूनी राय मांगी। जिस पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन की तिथि 10 अगस्त/6 सितंबर 1950 का परिपत्र जारी किया। भारत सरकार के दिशा-निर्देशन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने 12 फरवरी 1981 को एक सर्कुलर जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राज्य में उन्हीं व्यक्तियों को अनुसूचित जाति जनजाति के प््रामाण पत्र मिलेंगे जो 10 अगस्त/ 6 सितंबर 1950 को राज्य के स्थाई निवासी थे। इस सर्कुलर में ये भी स्पष्ट किया था कि जो व्यक्ति 1950 में राज्य की भौगोलिक सीमा में निवास करते थे वहीं जाति प्रमाण पत्र के हकदार होंगे।
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में ऐसे नियम नहीं है। उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24,25 और इसी अधिनियम की पांचवीं और छठी अनुसूची एवं संविधान पीठ के निर्णय में साफ है कि उत्तराखंड में उसी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र मिल सकता है जो 10 अगस्त/ 06 सितंबर 1950 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य की सीमा में स्थाई निवासी के रूप में निवास कर रहा था। जानकारों का कहना है कि जब प्रदेश में मूल निवास का प्रावधान है तो फिर राज्य सरकार े मूल निवास की कट आॅफ डेट राज्य गठन को क्यों मान रही है। इससे यह बात भी निकल कर आती है कि राज्य सरकार 6 सितंबर 1950 के बाद बाहरी राज्यों से आए लोगों को मूल निवास के मामले पर गुमराह कर रही है। संविधान के जानकार आशंका व्यक्त करते हैं कि सरकार के फैसले से प्रदेश के मूल निवासी हाशिए पर तो जायेंगे लेकिन वो अपने हकों के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं हिचकिचाएंगे।
कमेटी दर कमेटी
उत्तराख्ंाड राज्य गठन के साथ ही प्रदेश में मूल निवास का मामला गरमाने लगा था। इस मामले को लेकर सूबे में राजनीति उग्र होने लगी। जिसे देखते हुए सभी सरकारों ने कमेटी का गठन पर मामले को शांत करने की कोशिश की। क्योंकि किसी भी सरकार के अंदर इतनी इच्छाशक्ति नहीं थी कि वो राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन के प्राविधान को राज्य में लागू कर सके। जैसे कि अन्य राज्यों में है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी व्यवस्था के तहत निर्यण दिये हैं। लेकिन राज्य सरकार में दृढ इच्छाशक्ति की कमी और वोट बैंक की राजनीति जैसे कारकों ने प्रदेश में एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। इस समस्या से ना सिर्फ पहाड़ और मैदान की खाई चैड़ी होती जा रही है बल्कि मूल निवासियों को उकसाने की कोशिशें भी तेज होती जा रही है। मूल निवास मसले पर कमेटी गठित करने का फैसला सबसे पहले भाजपा सरकार का था, यह वहीं भाजपा है जिसने राजधानी चयन आयोग बनाकर स्थाई राजधानी को लटकाने में अहम भूमिका निभाई। भाजपा सरकार ने प्रकाश पंत की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। इस कमेटी ने अपनी सिफारिशों में कहा कि 1950 में जो व्यक्ति जहां का निवासी था उसे वहां का मूल निवासी माना जाय। साथ ही पंत कमेटी ने ये भी जोड़ा कि 15 साल पहले राज्य में रह रहे ऐसे व्यक्ति को भी स्थाई निवासी माना जाय जिसकी राज्य में स्थाई संपत्ति हो। ऐसा व्यक्त् िजो राजकीय सेवा में हो और उसका राज्य के बाहर ट्रांसफर ना हुआ हो। इसके साथ ही पंत कमेटी ने एक और दलील दी कि जिसका रोजगार कार्यालयों में स्थाई निवासी का रजिस्ट्रेशन हो। पंत कमेटी की सिफारिशों से राज्य सरकार सहमत नहीं हुई लिहाजा राज्य सरकार ने एक और समिति का गठन किया। इस समिति को गठन करने का श्रेय भी भाजपा सरकार को जाता है। भाजपा सरकार ने तत्कालीन मंत्री मदन कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। गजब देखिए कि इस समिति में भाजपा ने जानबूझ कर यूकेडी नेता और उस समय भाजपा सरकार में राजस्व मंत्री रहे दिवाकार भट्ट को भी शामिल किया। इस समिति ने भी अपने फैसले दिये। जिसमें 11 वीं कक्षा में दाखिले पर डोमिसाइल नहीं मांगा जाय। राज्य बनने के बाद जितने लोग यूपी से आये थे उन लोगों को भी राज्य के अन्य लोगों की तरह मूल निवास प्रमाण पत्र दिया जाय। साथ ही अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि वह राज्य में 60 साल से रह रहा है लेकिन उसके पास सिर्फ 40 साल तक के साक्ष्य है तो 20 साल के दस्तावेज राज्य सरकार उसे उपलब्ध कराये। कौशिक समिति की दलीलें पर अगर गौर करें तो इसमें साफ झलकता है कि ये धरातल पर काम किये बिना तैयार की गई है। भाजपा ने दो-दो कमेटी का गठन तो जरूर किया लेकिन लागू किसी भी कमेटी की सिफारिशें नहीं की। राज्य में सरकार अब कांग्रेस की है इस सरकार से लोगों को उम्मीद थी लेकिन कांग्रेस सरकार ने भी भाजपा की राह पर कदम आगे बढ़ाते हुए एक और कमेटी का गठन कर दिया है और ये कमेटी इंदिरा हृदयेश की अध्यक्षता में काम करेगी। अब देखना ये हो्रगा कि इंदिरा हृदयेश की अध्यक्षता में गठित ये कमेटी क्या फैसले देती है या फिर ये कमेटी भी घिसे-पिटे फार्मूले अपनाये और सिर्फ राजनीति के समीकरणों को ही हल करने की कोशिश करेगी।
बयान
मूल निवास को लेकर हाईकोर्ट का फैसला असंवैधानिक है। हाईकोर्ट का फैसला सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग, भारत सरकार द्वारा 1982 और 1984 को दिये गये निर्णय और संविधान के अनुच्छेद 5 के खिलाफ है। राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट के फैसले को मान लेना उसकी असंवेदनशीलता को स्पष्ट करती है। जिस दिन से राज्य बना उस दिन से प्रदेश में सरकार चलाने वाली पार्टी हो या फिर सहयोगी दल सभी जनता की नजरों में दोषी हैं। क्योंकि किसी ने भी मूल निवास को लेकर ठोस कदम नहीं उठाये। वर्तमान बहुगुणा सरकार मूल निवास को लेकर संजीदा नहीं है अगर होती तो सरकार हाईकोर्ट के निर्णय मानने के बजाय सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देती। इसके साथ ही सदन में बैठने वाले विधायक हो या फिर पूर्व विधायक और मंत्री रहे हों, इस विषय पर किसी को दोष मुक्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि जनता ने इन्हें सदन में निधि हजम करने के लिए नहीं भेजा बल्कि उनकी आवाज को सदन में उठाने के लिए भेजा। इन सभी ने जनता के विश्वास को तार-तार किया है।
रविंद्र जुगरान, पूर्व अध्यक्ष, राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद और भाजपा नेता।
हम राज्य सरकार के फैसले के बिलकुल पक्ष में नहीं हैं। क्योंकि देश में जब मूल निवास को लेकर व्यवस्था है तो फिर राज्य सरकार इस तरह कोई भी फैसला मानने पर क्यों बाध्य है। हाईकोर्ट का फैसला सरकार द्वारा माना जाना गंभीर है। इससे लोगों में भ्रंातियां उत्पन्न होंगी। देश के अंदर किसी भी जाति-संप्रदाय को कहीं भी रहने का अधिकार है। लेकिन जाति प्रमाण पत्र के लिए उसे अपने मूल राज्य से लेने का प्रावधान है। ऐसे में राज्य सरकार इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों कदम उठा रही है। महिला मंच मांग करता है कि सरकार राज्य में स्थाई निवासी घोषित करे।
कमला पंत, अध्यक्षा, महिला मंच।
राज्य सरकार द्वारा मूल निवास की कट आॅफ डेट 9 नवंबर 2000 को स्वीकार करना इस प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। मूल निवास पर सरकार का ये फैसला सोची समझी चाल है। क्योंकि सरकार में अधिकांश लोग मैदानी मूल के हैं और ये नहीं चाहते हैं कि इस प्रदेश का भला हो। ये लोग सिर्फ अपने परिवार का भला चाहते हैं। इसीलिए मूल निवास को लेकर सरकार हाईकोर्ट का निर्णय स्वीकार कर रही है। राज्य के अगले परिसीमन में यह और भी खुलकर सामने आ जायेगी। जब पहाड़ में महज 17 सीटें रहेगी और सारी सीटों पर मैदान का कब्जा होगा। उत्तराखंड रक्षा मोर्चा सरकार के इस फैसला का घोर विरोध करता है।
टीपीएस रावत, अध्यक्ष, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा
देखिए संविधान में मूल निवास को लेकर कहीं कोई जिक्र नहीं है। संविधान में दो शब्दों का जिक्र है जिसमें डोमिसाइल और रेजिडेंस हैं। 1950 में जो नोटिफिकेशन जारी हुआ था वो अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए हुआ था ना कि मूल निवास के लिए। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में अगर बात करें तो 1950 में जब नोटिफिकेशन जारी हुआ था। तब उत्तराखंड का कोई अस्थित्व नहीं था। ऐसी स्थिति में अगर कोई जाति प्रमाण पत्र मांगता है तो सरकार को देखना चाहिए कि वह जाति यूपी में नोटिफाइड है कि नहीं। अगर है तो राज्य सरकार को चाहिए कि उसे जाति प्रमाण पत्र दे। जहां तक अनुच्छेद 5 का सवाल है तो इसमें मूल निवास का कहीं कोई जिक्र नहीं है इसमें नागरिकता की बात कही गई है। मूल निवास पर राज्य में बरगलाने वाली बात हो रही है। मूल निवास से ना तो लाभ है और ना ही हानि। मामला जाति प्रमाण पत्र का है ना कि मूल निवास का।
एस. एस. पांगती, पूर्व आईएएस अधिकारी
मूल निवास को लेकर लोग भ्रम में हैं। दरअसल मसला जाति प्रमाण पत्र है। संविधान में जाति प्रमाण पत्र दिये जाने की व्यवस्था है। 1950 में जारी राष्ट्रपति के नोटिफिकेशन में साफ लिखा है कि किसी भी व्यक्ति को जाति प्रमाण पत्र उसके मूल राज्य से मिलेगा। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद कई बाहरी लोग इस प्रदेश में आये। उन्हें अगर यहां का जाति प्रमाण पत्र दिया जाता है तो उससे यहां के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को मिलने वाला लाभ बाहरी लोग उठायेंगे, क्योंकि प्रदेश में कई जनजाति बहुत ही पिछड़ी हुई है। दूसरी बात सांस्कृतिक पहचान की भी है। उत्तराखंड राज्य का निर्माण ही अलग सांस्कृतिक पहचान के लिए हुआ था ऐसे में इस राज्य का औचित्य ही क्या रह जायेगा जब यहां के पिछड़े लोगों का हक कोई और छीन लेगा। सरकार में निर्णय लेने की क्षमता नहीं है ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर मूल निवास का विरोध कर मैदान और पहाड़ को बांटने की कोशिश कर रहे हैं।
जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार
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