Monday, September 20, 2010

टिहरी बांध का जलस्तर बढ़


एशिया का सबसे बडा़ बांध इस समय चर्चा का विषय बना है। वजह कोई और नहीं बल्कि बारिश है। दरअसल प्रदेश में भारी बारिश से नदियां अपने उफान पर है। जिससे भागीरथी और भिलंगना नदी पर बने टिहरी बांध का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। हालत ये हो चुके हैं कि लगभग 45000 क्यूमैक्स पानी स्टोर करने की क्षमता रखने वाला टिहरी बंाध में पानी का जलस्तर 19 सितंबर की रात तक 827.30 एमएसएल तक पहुंच गया था। रविवार को 25 सेंटीमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ रहे झील के स्तर का सोमवार को एमएसएल 831 तक पहुंच गया अगर यही स्थिति रही तो जलस्तर एमएसएल 835 के आसपास तक पहुचने की संभावना है। जिससे कोटेश्वर बांध को भी खतरा पहुंच सकता है। यही नहीं एमएसएल 835 तक जलस्तर पहुचने से चिन्यालीसौड़ कस्बा तो घनसाली कस्बे तक भी झील में समा जायेगा साथ ही आसपास के लगभग 70 गांव पानी में डूब जायेंगे तो लगभग 100 गांव के लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। वहीं बांध सूत्रों की माने तो इस समय टिहरी झील का पानी छोड़ना किसी आफत को दावत देना है। सूत्रों की मानें तो झील में सोलह सौ क्यूमैक्स पानी आ रहा है। जो कि बांध क्षमता को सीधे प्रभावित कर रहा है। सूत्रों की माने तो अगर इतने ही पानी को छोड़ा जायेगा तो अब तक चार सौ करोड़ रूपये खर्च हो चुके कोटेश्वर बांध को सीधा नुकसान पहुच जायेगा। यही स्थिति झील से सटे गांवों की भी है। अगर पानी को स्टोर किया जाता है तो झील से लगे गांव पानी में समा जायेंगे। वहीं पुर्नावास निदेशालय का कहना है कि डूब क्षेत्र में आने वाले गांव के लोगों को ऊंचे स्थान पर शरण दे दी। लेकिन विडंबना देखिए कि बांध प्रभावित लोगों के पुर्नावास को लेकर अभी तक कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गयी है। वहीं मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने टीएसडीसी को तत्काल पानी छोडने के आदेश दिये हैं। लेकिन टीएचडीसी कोटेश्वर बांध को नुकसान से बचाने के लिए बांध के जलस्तर को कम नहीं कर रहा। वहीं सूत्रों का कहना है कि अगर समय पर कोटेश्वर बांध में शटर लगा दिये गये होते तो ये हालत नहीं होती। जिससे साफ होता है कि टीएचडीसी लोगों को बचाने की जगह अपने ही प्रोजेक्ट को बचाने में लगा है। अगर बांध का जलस्तर यूं ही बढ़ता गया तो गांव के डूबेंगे ही साथ ही कोई बड़ी अनहोनी भी हो सकती है।

Saturday, August 21, 2010

नाम की राजनीति


मंगलवार को कैबिनेट ने भले ही राज्य हित में कई फैसले लिए हो। लेकिन एफिलिएटिंग यूनिवर्सिटी का नाम पं. दीन दयाल उपाध्याय रख कर अपने ही पैर पर कुल्हाडी मार दी। पिछले काफी लंबे समय से एफिलिएटिंग यूनिवर्सिटी को लेकर प्रदेश भर में आंदोलन हो रहे थे। इस यूनिवर्सिटी को बसाने के लिए बकायदा चमेाली, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून अपनी-अपनी दावेदारी ठोक रहे थे। कैबिनेट ने इस यूनिवर्सिटी को टिहरी में बसाने की मंजूरी तो दी लेकिन यूनिवर्सिटी के नाम पर एक बार फिर से अपनी पुरानी कुटिल चाल चल दी। हद तो तब हो गयी जब कैबिनेट ने टिहरी के अमर शहीद सुमन श्रीदेव और पहाड़ के गांधी कहे जाने वाले स्वर्गीय इंद्रमणी बडोनी के नाम को दर किनार कर दिया। जिससे साफ हो चला है कि प्रदेश सरकार अपने इन महान विभूतियों को तवज्जो नहीं देना चाहती। यूनिवर्सिटी का नाम पं.दीन दयाल उपाध्याय कर एकबार फिर से भाजपा सरकार ने उत्तराखंड की सरजमीं पर नामों की राजनीति की पुरानी यादें ताजा कर दी है। जिससे प्रदेश भर में एक नया विवाद सिर उठाने लग गया है। आखिर ऐसी क्या वजह थी कि कैबिनेट ने प्रदेश के महान सपूतों के नाम पर यूनिवर्सिटी का नाम न रख पं. दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर मुहर लगा दी। जबकि पं. दीनदयाल उपाध्यान का प्रदेश हित में कोई अहम योगदान नहीं है। ऐसे में साफ हो चाल है भाजपा ने एक बार फिर से नामों की राजनीति का सिलसिला शुरू कर दिया है। लेकिन सवाल ये उठता कि आखिर क्या कभी प्रदेश में अपनों के नाम पर कभी किसी संस्थान का नाम होगा भी या नहीं।

Sunday, August 1, 2010

Tuesday, July 27, 2010

शौर्य को सलाम


उत्तराखंड भले ही पहाड़ों और जंगलों से लवरेज हो लेकिन इस मुल्क की माटी ने कई ऐसे सूरमा पैदा किये जिन्होंने देश की आन-बान और शान को बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा दी। इतिहास की पोटली में अगर झांके तो इस पहाडी मुल्क की शौर्य की गाथा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जिसने देश की रक्षाप के लिए कई जांबाज योद्धा दिये। बात अगर कारगिल युद्ध की करें तो 527 शहीदों में से 75 लाड़ले अकेले इस मुल्क ने खोये। प्रदेश के इन रणबांकुरों ने शहादत देकर प्रदेश का सीना फक्र से चौड़ा कर दिया। 13 जिलों के इस पहाडी मुल्क ने जांबजी की मिशाल कायम की। प्रदेश के जिलों की बात करें तो देहरादून जिला शहादत देने में सबसे आगे रहा। अकेले देहरादून से 18 रणबांकुरे देश की खातिर शहीद हुए। शहादत की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पौड़ी जिले ने भी 17 रणबांकुरों को राष्ट्र रक्षा के लिए समर्पित किया। टिहरी गढ़वाल के 15 वीर सपूतों ने भी अपनी जान की परवाह किये बिना दुश्मनों को खदेड़ते हुए अपनी कुर्बानी दी। दूर सीमांत चमोली जिले ने भी 11 लाड़लों को देश की खातिर खो दिया। नैनीताल और अल्मोड़ा जिले के तीन लाड़लों ने अपनी जान की परवाह किये बिना देश के खातिर अपने प्राणों की बाजी लगा दी। वहीं उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग और बागेश्वर से भी देश के स्वाभिमान केा बचाने के लिए कारगिल की बर्फीली चट्टानों में बैठे दुश्मनों के दांत खट्टे कर शहीद हो गये। शहादत की इस परंपरा को प्रदेश के युवाओं ने आगे तो बढ़ाया लेकिन सरकार के पैरोकार उनकी शहादत को भुला बैठें हैं। विजय दिवस के नाम पर भले ही आयोजन कर वीर सपूतों को श्रद्धांजली तो दी जाती है लेकिन अफसोस इस बात का है कि दस साल पहले किये वादे आजतक अधूरे ही हैं। आखिर देश के खातिर शहीद हुए लालडों के परिवारों की सुध कब ली जायेगी। कुछ कहा नहीं जा सकता। सिर्फ विजय दिवस के नाम पर शौर्य को सलाम कर इतिश्री करना कहां का नियम है।

Saturday, June 5, 2010

न रही गाढ़ और न रहे घराट







‘घराट’ इस शब्द को सुनकर पहाड़ी आंचल का नजारा आंखों में तैरने लगता है। सावन की बरसात और नदी किनारे कुछ दूरियां पर कई छप्परनुमा झोपड़ी। जहां से एक अलग ही किस्म की ध्वनि की गूंज सुनाई देती है। जिसमें गाड़ की तेज गर्जना होती है तो पिसते गेहूं की महक ओढ़े केसरी संगीत। दिल में इस कदर घुल जाता है जैस कि पानी में मिश्री। पनाल से गिरने वाले पानी का भेन से संघर्ष तो दो भारी पत्थरों के बीच की गुत्थमगुत्था। तो आनाज के दानों की आटा बनने जिद। भेन से संघर्ष कर पानी किसी चक्रवर्ती सम्राट जैसा निकलता है मानों घराट को चलाकर कर उसने विजय पताका फहरा दी हो। लेकिन कुछ ही दूरी पर उसे जलक्रिड़ा करते बच्चों के नन्हें हाथों से हार का सामना करना पडता है। पत्थरों की टेड़ी-मेड़ी दीवार और उसमें ठूंसी जंगली घास विजयी सम्राट को रूकने को मजबूर कर देती है। धराशायी जलावेग जब तालाब बन जाता है तो जलक्रीड़ा करते बच्चों की उत्सुकता देखी जा सकती है।जो नहाने की बात करते सुनाई देते हैं। कोई दो बार नहाने की बात कहता है को छः बार। नहाने का ये उत्सव घराटों की कुछ दूरी पर कुछ समय पहले खूब देखने को मिलता था। लेकिन आज न गाड़ है और न घराट। पहाडों़ में घराट का अस्तित्व 17वीं सदी के पूर्वद्ध में बताया जाता है। तब से लेकर 19वीं सदी के अन्तिम दशक तक घराट ने न जाने कितने लोगों का पेट पाला लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। अब घराटों की जगह बिजली से चलने वाली चक्कियों ने ले ली। भाग दौड़ भरी जिंदगी ने घराट को छोड़ दिया है। प्रकृति और मानव के बीच सेतु का काम करने वाले घराट का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। जिससे तकरीबन 200 साल से चले आ रहे एक रिश्त का बजूद मिट गया। जब पहाड़ में घराट ही नहीं रहे तो फिर न अब भग्वाल दिखाई देते हैं और न घट्वालों की हंसी ठिठोली सुनाई देती है। सावन की रातें अब पहाड़ में उदास होकर गुजर जाती है। बरसात होती है, पर गाडों में पानी का शोर नहीं होता। अब पहाड में वो रौनक नहीं रही जो कभी हुआ करती थी। पहाडों में हालात इतने दयनीय है कि कई गांवों ने अपने जवान बेटों को सालों से नहीं देखा। नन्हें पगों की आहट के लिए मानों गांव तरस गये हैं। लेकिन गंावों का रूंदन से किसी का दिल नहीं पसीज पाया। आज पहाड का हर आदमी अपनी सहूलियतों को देखते हुए पलयान कर रहा है। जिसकी वजह से गांवों के गांव खाली हो रहे हैं। जिसका असर उन घराटों पर भी सीधे रूप से पड़ा जो कभी पहाड़ की आर्थिकी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। विकास की जिद और पलायन की मार ने पहाड के हालतों को बेरूखा कर दिया है। कभी पहाडों में घराट और उसके आसपास की हरियाली का नजारा मन को सुकून देता था लेकिन अब ये किसी सूल से कम नहीं । दर्द इस बात का कि जिस ‘घराट’ ने 19 वीं सदी के अन्तिम दशक तक लोगों को पालने में अहम भूमिका निभाई वो ‘घराट’ आज ढूंडे नहीं मिलता और उसका आटा तो अब अतीत की कहानी हो गया। उत्तराखंड बनने के बाद हालत ने जिस तरह करवट बदली उससे जल,जंगल और जमीन से आम आदमी का रिश्ता छूटता गया। जब इन तीन ज से लोगों का लगाव खत्म होने लगा तो खुद-ब-खुद घराट भी हाशिये पर चलता गया। नौबत यहां तक आन पडी है कि आज की नौजवान पीड़ियों को घराट के बारे में पता तक नहीं है। इंटरनेट की गैलरियों में झांकने के बाद भी घराट के बारे में बहुत ज्यादा कुछ जानकारी नहीं है। लिहाजा आज घराट महज लोक कथाओं और किवदंतियों में सिमट कर रह गये हैं। प्रदेश में घराट को बचाने के लिए सरकार द्वारा योजनाएं बनाये जाने की बाते तो सुनी गई। लेकिन इतने साल गुजर जाने के बाद भी अब ये बातें अफवाह लगने लगती है। अगर सच में सरकार इस ओर कोई ठोस पहल करती है तो शायद पहाड में एक बार फिर से जरूर रौनक लौट आयेगी। सावन की सूनी रातों में घराट के चलने की आवाजे सुनाई देगी। यहां तक कि एक बार फिर से घराट के नजदीक नहाने का उत्सव लौट आयेगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले जंगलों को बचाना होगा। ताकि घराट को चलाने के लिए गाडों में प्रचुर मात्रा मंे पानी उपलब्ध हो सके। इस पारस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए सभी लोगों को आगे आने की एक अदद जरूरत महशूस की जा रही है।

Friday, April 30, 2010

सपना जो आज भी अधूरा है........

एक सपना.... जो ब्रिटिश काल में देखा गया। लेकिन आज भी अधूरा है.... इस सपने पर कब पंख लगेंगे....... कोई नहीं कह सकता....,ऐसा नहीं है कि ये सपना महज सपना रहा हो...इसे हकीकत में बदलने का प्रयास भी किया गया....अफसोस कि वो अधूरा रहा...लेकिन कई दशक गुजरने के बाद भी इस ओर किसी ने नजरें इनायत नहीं की.... ये सपना कोई और नहीं बल्कि लीची और बसमती के शहर को पहाड़ों की रानी से जोड़ने का था। जी हां आपने सही समझा। आज से कई दशक पहले अंग्रेजों ने ये सपना पाला था। मसूरी की खूबसूरती और देहरादून की धड़कन को रेल मार्ग से जोड़ना। अंग्रेजों ने इसकी पहल भी की। बकायदा 1942 में देहरादून के राजपुर गांव से रेल लाईन बिछाने का काम भी शुरू किया गया। यहां तक कि पहाडों के जिस्म को छेद कर पटरियां बिछाने का काम भी हुआ। लेकिन कमजोर पहाडियों ने साथ नहीं दिया। एक के बाद एक दिक्कतों ने अंग्रेजों के सपने को छलनी किया। लिहाजा मजबूरन गोरों को अपने हाथ वापस खींचने पडे़। इस बात की गवाही देता ये बोर्ड भी उसी जमाने का है। भले ही इस बोर्ड की हालत आज स्थिति को बयां करने की न हो, लेकिन इसमें छपे ये अधूरे शब्द कुछ जरूर बयां कर रहे हैं। अंग्रेजों के हाथों लगाया ये बोर्ड आज भी उस दिन के इंतजार में है जब यहां से रेल गुजरेगी। शायद वो दिन आये न आये लेकिन यहां के लोग भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि जो काम अंग्रेजों ने नहीं कर सका उसे आजाद मुल्क के हिन्दुस्तानी जरूर कर सकते हैं।आशा की किरण एक दिन जरूर आयेगी लेकिन सवाल ये भी कब? अंग्रेजों ने जिस सपने को देखा क्या वो पूरा होगा? इसकी कोई गारंटी नहीं है। लेकिन अगर शिमला और दर्जिलिंग में लोग ट्रेन की सवारी का आंनद ले सकते हैं तो फिर मसूरी में क्यों नहीं। ये सवाल भी जेहन में कौंधता है। इतना तो तय है कि जिस तरह से भारतीय रेल मंत्रालय पहाडों में रेल पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई दे रहा है उससे तो मसूरी में ट्रेन पहुचने का सपना नजदीक लगता है। स्थानीय लोगों की माने तो अगर राज्य सरकार इस ओर कोई पहल करे तो मसूरी में भी ट्रेन पहुचाई जा सकती है। वहीं स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर अंग्रेजों के दौर में रेल लाईन बिछाते समय हादसा न होता तो मसूरी की सैर ट्रेन से होती। भले ही अंग्रेजों के जाने से आज देश आजाद हो गया हो लेकिन यहां के लोगों को अंग्रेजों के जान मलाल जरूर है। ये इन लोगों का कहना है अगर देहरादून से मसूरी ट्रेन जायेगी तो उन लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। भले ही ये बोर्ड आज बदसूरत लग रहा हो लेकिन बोर्ड पर लगे शब्द आज भी उस जमाने की हकीकत को तरोताजा कर देता है। जब कभी यहां पर चुंगी वसूली जाती थी। इस बात की गवाई बोर्ड पर अंग्रजी और हिन्दी में छपी अधूरी रेट लिस्ट देती है। बोर्ड के नजदीक से गुजरती रेल लाईन को आज ऐसे विश्वकर्मा की जरूरत है जो इस सपने को हकीकत में बदल सके। अंग्रेजों के जमाने में देखा गया सपना कब पूरा होगा ये समय की कोख में छुपा है। लेकिन जिस तरह से भारतीय रेल मंत्रायल ने पहाडों में रेल पहुंचाने को लेकर सकारात्मक रूख अपनाया है।

Sunday, April 25, 2010

औद्योगिक पैकेज पर पंतगबाजी क्यों?


सूबे में आजकल औद्योगिक पैकेज की चर्चा चल रही है। यहां तक कि सुदूर पहाड में भी औद्योगिक पैकेज की चर्चा उतनी ही जबरदस्त हो रही है जितनी की राजधानी में। हालांकि सरकार और विपक्ष के नेताओं ने सूबे को औद्योगिक पैकेज दिलाने के लिए दिल्ली दरबार से फरियाद की, और केंद्र की सल्तनत ने इशारों में औद्योगिक पैकेज बढाने की हामी भी भरी। ऐसा हम नहीं बल्कि वो लोग दावे के साथ कह रहे हैं जिन्होंने 10 जनपथ और प्रधानमंत्री से मुलाकात की। वहीं संसद में पौड़ी सांसद सतपाल महराज के प्रश्न ने अब औद्योगिक पैकेज पर एक नई बहस छेड़ दी है। इसका निष्कर्स क्या होगा ये आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन आपको बता दें कि साल 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस शिशु प्रदेश को 2013 तक औद्योगिक पैकेज दिया था लेकिन सत्ता में आते ही यूपीए सरकार ने इस औद्योगिक पैकेज की अवधि 2013 से घटाकर 2010 कर दी। जिससे सूबे में खलबली मचनी शुरू होगी। सदन से लेकर सड़क तक बीजेपी सरकार ने ओद्योगिक पैकेज को लेकर हल्ला बोलना शुरू किया यहां तक कि इस मुद्दे पर लोकसभा चुनाव भी लड़ा गया जिसमें बीजेपी चारों खाने चित हो गई। लेकिन अब समय बदल चुका है, और ओद्योगिक पैकेज बीजेपी सरकार के लिए वरदान साबित हो रहा है। वो इसलिए अगर केंद्र सरकार पैकेज की अवधि बढ़ाती है तो ये बीजेपी के लिए संजीवनी का काम करेगी और औद्योगिक पैकेज नहीं दिया जाता है तो बीजेपी के लिए 2012 के लिए चुनावी मुद्दा बन जायेगा। ये सब बात अब तक राजनीति के इर्द-गिर्द घूम रही थी। लेकिन असल बात तो आम आदमी तक इस पैकेज के लाभ की है। औद्योगिक पैकेज का मकसद था कि सूबे में उद्योग लगे और उसका सीधा फायदा आम जनता को मिले। यहां तक कि पर्वतीय क्षेत्रों में भी उद्योगोें को बढ़ावा मिले। लेकिन औद्योगिक पैकेज पर हाय-तौबा मचाने वाली बीजेपी सरकार अब तक उद्योगों को बढ़ावा देने में सबसे सुस्त रही। पहाडों में उद्योग की पैरवी करने वाली ये सरकार आज तक पहाड में एक भी उद्योग नहीं लगा पायी। इस बात की पुष्टी खुद विभाग द्वारा प्रकाशित कार्यपूर्ति पुस्तिका में होती है। अगर इस किताब पर नजर दौडाये तो काले अक्षरों में साफ लिखा है कि पिछले वित्तीय वर्ष में विशेष एकीकृत औद्योगिक प्रोत्साहन नीति के तहत स्वीकृत 250 लाख रूपये में से सिर्फ 91.50 लाख रूपये ही आवंटित हुए हैं और उसमें से भी मात्र 39.51 लाख रूपये खर्च किए गये। यही नहीं पर्वतीय श्रेणी में आने वाले 11 जनपद में से 5 जिलों में एक भी पैसा नहीं खर्च किया गया और न ही इन जिलों में उद्योग लगाये गये। अगर इन जिलों पर एक नजर दौड़ाये तो स्थिति भयावाह नजर आती है। नैनीताल जिले की करें तो 5 लाख रूपये की धनराशि बकायदा इस जिले को दी गई थी लेकिन अगर इस राशि को खर्च करने की बात करें तो अभी तक ये राशि जस की तस पडी हुई है। ऐसे ही हालात टिहरी के भी हैं, इस जिले को भी उद्योग लगवाने के लिए बकायदा ढाई (2.50) लाख रूपये दिये लेकिन मामला सिफर रहा। चमोली और रूद्रप्रयाग भी आंवटित की गई रकम को खर्च नहीं कर पाये। जबकि इन दोनेां जिलों को भी ढाई-ढाई लाख की रकम दी गई थी। यही नहीं अगर बात देहरादून जनपद की करें तो ये जिला भी आवंटित की गई राशि को खर्च करने से डरा हुआ है। जबकि इस जिले को 05.50 लाख आवंटित किए गये थे। वहीं अगर बात अल्मोडा की करें तो आवंटित की गई 14 लाख की धनराशि में से महज 30 हजार ही खर्च हो पाये। बागेश्वर जिले में भी 10 लाख मंे से 81 हजार ही खर्च हो पाये। पौड़ी जिले में 04.57 लाख ही खर्च हो पाये जबकि पौड़ी को 07.50 लाख रूपये दिये गये थे। यही हाल उत्तरकाशी के भी है जहां 06.50 लाख रूपये आवंटित हो रखे थे लेकिन इसमें से महज 04.93 लाख ही खर्च हो पाये। हालांकि पिथौरागढ़ और चंपावत जिले ही आवंटित की गई धनराशि को खर्चने का साहस दिखा पाये लेकिन फिर भी पिथौरागढ़ जिला 25.50 लाख में से 20 लाख ही खर्च पाया जबकि चंपावत जिले ने 10 लाख में से 08.90 लाख खर्च किये। तो ये हकीकत है सूबे की। सवाल उठता है कि आखिर क्यों औद्योगिक पैकेज पर मारामरी मची हुई है। जबकि सूबे के हालात कुछ और ही बयंा कर रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रोकने के लिए बकायदा पहाड़ में उद्योग लगाने के जो सपने पाले गये थे अगर आंकडों पर विश्वास करें तो शायद पहाडों में उद्योग लगाने के सपने महज सपने ही रह जायेगे। लेकिन सवाल ये भी उठता है कि अगर पहाडों में उद्योग लगने ही नहीं है तो फिर ये औद्योगिक पैकेज पर हल्ला क्यों मचा है। इसे सियासी स्टंट कहें या फिर सरकार का बावरापन या फिर कुछ और। लेकिन जो भी हो औद्योगिक पैकेज पर पतंगबाजी करने वालों को इस बात की जानकारी जरूर होनी चाहिए कि पहाड़ में पतंगबाजी का शौक नहीं पाला जाता है। वहां काम को महत्व दिया जाता है।

Wednesday, March 17, 2010

टिहरी की मौत से कराहता प्रतापनगर


18वीं सदी के पूर्वाद्ध में धुनेरों ने कभी भी नहीं सोचा होगा कि जिस जगह पर उनका 8-10 परिवारों का कुनबा रह रहा है वो कभी विशालकाय समुद्र में बदलकर बिजली उगलेगा। शायद इतनी दूरगामी सोच न कभी धुनेरों की रही और न ही धुनेरों की जमीन का कायाकल्प कर अपनी राजधानी बनाने वाले टिहरी के जनक माने जाने वाले सुदर्शन शाह ने। अगर इस बात की रत्ती भर भनक इन लोगों को होती कि उनकी टिहरी की ये दशा हो गयी तो शायद न धुनेर अपनी जमीन पर राजा को राजधानी बनाने की बात कबूलते और ना राजा अपनी राजधानी की ये गत करने के लिए टिहरी को यूं ही छोड़ देते। लेकिन आज टिहरी डूब चुकी है और उसके गर्भ से बिजली बन रही है। कभी राजा-रजवाड़ों की शानों-शौकत को करीब से देखने वाली टिहरी आज खामोश हो चुकी है। विकास की खातिर भले ही तरक्की पसंद लोगों ने टिहरी को मौत का फरमान सुनाया हो और टिहरी को झील की अतल गहराई में समाने को विवश किया हो लेकिन हमेशा टिहरी को निहारने वाला भगीरथी के उस पार प्रतापनगर का क्या कसूर था कि उसे टिहरी के डूबने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। प्रतापनगर की जनता का क्या कसूर था कि उसे 18वीं सदी की तर्ज पर काला पानी की सजा मुकर्रर कर दी गयी। इसका जबाव ना तो टिहरी बांध बनाने वाली कंपनी टीएचडीसी के पास है न उत्तराखंड सरकार के पास और न ही खादी चोला पहनकर चुनाव के दौरान हाथ जोड कर वोट मांगने वालों के पास। शायद ये दुर्गति प्रतापनगर के भाग्य में हमेशा ही रही है। चाहे टिहरी के झील में समाने से पहले की बात हो या फिर झील बनने के बाद की। हमेशा प्रतापनगर को पहाड का टीला समझ कर भुला दिया जाता रहा है। इस क्षेत्र की सुध न लखनऊ से संचालित सरकार लेती थी और न ही देहरादून से संचालित होने वाली अपनी सरकार ने कभी प्रतापनगर की सुध ली। कभी लालघाटी के नाम से मशहूर ये क्षेत्र आज लाल सलाम की तरह हाशिये पर है। ठीक उसी तरह जिस तरह लाल रंग फीका पडने पर भगवा दिखता है। शायद यहां के रैबासियों ने भी विकास की खातिर लाल सलाम को अलविदा कह कर भगवा रंग की राजनीति का साथ देना शुरू कर दिया। लेकिन भगवा रंग की विकास और कांग्रेस की कथित उदारवादी राजनीति ने भी यहां के लोगों के साथ छल किया और आज भी प्रतापनगर का कथित पहाडी टीला विकास की बाट जोह रहा है। सन् 2003 में जब टिहरी बांध की अन्तिम टी-4 सुरंग को बंद कर दिया गया था तो टिहरी शहर के साथ-साथ प्रतापनगर को जोड़ने वाली सड़के और पुल एक-एक कर डूबने लग गये थे,तब जाकर भागीरथी के उस पार के लोगों को अहसास हुआ कि उनके साथ अन्याय हुआ है। प्रतापनगर के साथ विकास के खातिर जो छलावा किया गया शायद ऐसा आदिम युम में पहले कभी न हुआ होगा और न शायद आगे होगा। लेकिन प्रतापनगर की जनता तो छली जा चुकी है और इसका खामियाजा भी भुगत रही है। आज प्रतापनगर के हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि वहां रहना कोई पसंद नहीं करता। यहां तक कि अगर पिछले पांच वर्षो में पलायन का रिकार्ड खंगाले तो सबसे ज्यादा पलायन प्रतापनगर से हुआ है। इसे बिडंबना भी कह सकते हैं कि जिस उत्तराखंड को बनाने के लिए जो आंदोलन लड़ा गया उसका मूल मकसद ही जल जंगल जमीन और जवान को पलायन करने से रोकना था लेकिन उसी आंदोलन का दम प्रतापनगर के हश्र को देखकर टूटता हुआ नजर आता है। प्रतापनगर क्षेत्र में इतनी विकट परिस्थितियंा पैदा हो चुकी है कि यहंा रहने वाला हर इंसान अपने भाग्य को कोसता है। ऐसा नहीं है कि यहां के लोगों ने अपनी समस्याओं को जनप्रतिनिधि से लेकर राजधानी में बैठे हुक्मरानों को न सुनाई हो लेकिन प्रतापनगर की हालत को लेकर किसी में भी इतना साहस नहीं है कि कोई इसकी पैरवी विधानसभा में करें। अगर बात यहां के नये-पुराने विधायकों की करें तो इन महाशयों ने महज अपनी राजनीति को चमकाने के लिए जनता के साथ खिलवाड किया है। किसी भी विधायक ने यहंां की समस्या को लेकर आज तक आवाज तक नहीं उठाई। इसे प्रतापनगर की बिड़बना भी कह सकते हैं कि यहां से विधायक तो चुने गये लेकिन इन विधायकों ने अपने तंबू टिहरी शहर में गाडने में ही अपनी भलमानसता समझी। जबकि भगीरथी के पार जनता उस वक्त को कोसती रही जब इन लोगों को जीतवा कर देहरादून ‘रैफर’ किया।
यही नहीं अपनी राजनीति को चमकाने के लिए वर्तमान सांसद ने भी प्रतापनगर को साफ्ट टारगेट समझा और आरक्षण का ख्वाब दिखा कर वोट अपने नाम किये। जीतने के बाद सांसद महोदय ने प्रतापनगर जा कर शायद कभी आरक्षण की बात की होगी। ऐसा दूर-दूर तक कभी नहीं सुनाई दिया और न सुनाई देगा। वहीं बीजेपी सरकार आने से एक दफा लगा कि जनरल राज आयेगा तो बीसी खंडूडी अपना फौजी धर्म निभायेंगे। हालांकि ये बात उस समय और पुख्ता हो गयी थी जब खुद बीसी खंडूडी ने प्रतापनगर जा कर वहां की आवाम से मिले लेकिन खंडूडी ने प्रतापनगर में जो बयान दिये वो राजनीति की चासनी में तले हुए थे। खंडूडी ने भले ही प्रतापनगर के लिए पेयजल पंपिंग योजना की सौगात जरूर दी हो लेकिन ये पंापिग योजना महज ठेकेदारों को खूश करने के लिए थी। यहा तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने प्रतापनगर को जोड़ने वाले चांटी-डोबरा पुल पर कोई खास बहस नहीं की। जिससे साफ हो गया था कि खंडूडी भी महज अपने छबरीली मूछे को तानने में ज्यादा विश्वास रखते हैं ना कि जनसमस्याओं के समाधान में। टिहरी को डुबो देने के बाद जब प्रतापनगर के लिए कोई संपर्क मार्ग नहीं बचा ताब जाकर हर किसी को प्रतापनगर की याद आयी। भागीरथी के उस पार खडे अखंड प्रतापनगर ने भी कभी नहीं सोचा था कि उसकी ये गत होगी। जब प्रतापनगर के सभी रास्ते डूब गये थे तो आनन-फानन में चांटी-डोबरा पुल को स्वीकृति दी थी और पुल बनाने की समय सीधा भी 2009 तक निर्धारित की गई थी। लेकिन आज तक कोई पुल नहीं बन पाया है। जबकि इस पुल के लिए केंद्र सरकार द्वारा 51 करोड़ और राज्य सरकार 38 करोड़ रूपये दिये जाने थे लेकिन अभी तक केंद्र ओर राज्य सरकार द्वारा महज क्रमशः 22 करोड़ और 15 करोड रूपये ही दिये गये। पुल क्यों नहीं बन रहा? क्यों सरकारें पैसे देने में कंजूसी दिखा रही है? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। जनता परेशान है और मौज मारने वाले मौज कर रहे है। कोई बोलने वाला नहीं है। सूबे की निशंक सरकार भी इस ओर उदासीन रवैया अपनाये हुए है जबकि अपने हकों की खातिर प्रतापनगर के लोगों ने कई बार सूबे की सरकार को चेताया भी है। लेकिन मामला ढाक के तीन पात ही रहा। यहां तक कि टिहरी बांध प्रभावित संघर्ष समिति के लोग कई बार टावरों पर चढ चुके है लेकिन निशंक राज की बहरी सरकार ने भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। सूबे के मुख्यमंत्री भले ही विकास की दुहाई देते हो और पलायन को रोकने की बात करते हों लेकिन प्रतापनगर की हालिया स्थिति पर सुध लेना उनके विकास के एजेंडे में नहीं है। मुख्यमंत्री भले ही अपने मनगडं़त ‘विपदा’ की बात करते हों लेकिन निशंक जी को ये पता नहीं है कि उनके किताबी विपदा जैसे प्रतापनगर में सैकड़ों विपदाएं है। उनकी विधाता बनने की इच्छा तो पूरी हो गयी है। लेकिन विपदा जैसे लोग आज भी विपत्तियों का सामना कर रहे हैं। विपदाओं की चुप्पी का जो लोग नाजायज फायदा उठा रहे हैं। उन्हे इस बात का इल्म भी होना चाहिए कि तूफान आने से भी पहले सन्नाठा पसरा रहा है। लिहाजा प्रतापनगर को इस नजरिये से मत देखिए। उसकी खामोशी का मतलब हार मानना नहीं है। बल्कि वहां की आवाम को भी विकास चाहिए। ऐसे में एक अनाम कवि की कविता याद आती है। टिहरी की विवशता पर रोता है प्रतापनगर, देखता है एकटक और खामोश हो जाता है देखकर!