Monday, September 24, 2012

मूल निवास पर सरकार का सरेंडर

               
मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का जिन्न एक बार फिर बोतल से निकल आया है। मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर राज्य गठन के बाद से जंग छिड़ी हुई है। लेकिन प्रदेश की किसी सरकार ने इसका समाधान निकालने की नहीं समझी। राज्य की सभी सरकारों ने इस मामले को टरकाने में ही अपनी भलाई समझी। मौजूदा कांग्रेस सरकार से प्रदेश की जनता को खासी आशाएं थी कि प्रदेश का मुखिया खुद कानून का जानकार है तो ये सरकार मूल निवाास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर सकारात्मक भूमिका निभायेगी और सूबे के हकों का ख्याल रखेगी। लेकिन सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा के बयान ने लाखों लोगों की उम्मीद को एक झटके में ही खत्म कर दिया। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने स्पष्ट लहजे में कह दिया है कि उनकी सरकार मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र मामले में हाईकोर्ट के आदेशें का पालन करेगी। मुख्यमंत्री के इस बयान से जहां इस पर्वतीय प्रदेश के मूल निवासियों का गहरा झटका लगा वहीं विपक्षी दल इसे मुख्यमंत्री की कमजोर मानसिकता और प्रदेश के प्रति मुख्यमंत्री की सोच को इंगित करता है। मुख्यमंत्री ने अपने बयान में ये भी कहा कि वो मूलनिवास और जाति प्रमाण पत्र के संदर्भ में दिये हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट भी नहीं जायेंगे। सीएम के बयान से साफ होता है कि वो नहीं चाहते हैं कि प्रदेश के मूल निवासियों को उनका वाजिब हक मिले। मुख्यमंत्री के इस बयान से उसकी सहयोगी और अपने आपको उत्तराखंड के हितों की हितैषी बताने वाली यूकेडी-पी भी गुस्से में है। क्योंकि यूकेडी पी पहले से ही मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र पर अपना रूख स्पष्ट कर चुकी है, यूकेडी चाहती है कि मूल निवास की कट ऑफ डेट राज्य गठन के दिन से ना हो बल्कि इससे पूर्व यानि कि 1950 हो। इस मामले को लेकर यूकेडी ने पहले ही अदालत की डबल बेंच में अर्जी दाखिल की हुई है। 
ये सारा प्रकरण उस वक्त हो रहा है जब प्रदेश में टिहरी उपचुनाव होने जा रहे हैं। मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर दिये मुख्यमंत्री का बयान दस अक्टूबर केा होने वाले मतदान पर क्या असर डालेगा ये 13 अक्टूबर को ही मालूम होगा। लेकिन दूसरी ओर यूकेडी पी ही इस मुद्दे पर गरम नजर आ रही है। यूकेडी पी सरकार में सहयोगी होने के बावजूद भी सरकार पर हमला कर रही है जिससे साफ होता है कि यूकेडी का राजनीतिक एजेंडा प्रदेश के हित में है। जबकि दूसरी ओर भाजपा इस मुद्दे को ज्यादा तूल देती नहीं दिखाई दे रही है। यानि कि भाजपा भी नहीं चाहती है कि वो भी इस पचड़े में पड़े, और अपने हाथ जला बैठे। उधर एक और क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड रक्षा मोर्चा भी मूल निवास और जति प्रमाण पत्र पर हाईकोर्ट की दलीलों का अध्ययन कर लागू करने की बात कर रहा है। ऐसा नहीं है कि किसी भी दल का सदस्य नहीं चाहता है कि प्रदेश में मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 हो लेकिन वोट बैंक के चलते यूकेडी पी के अलावा कोई राजनीतिक दल इस फैसले को मजबूती के साथ नहीं उठा रहा है। 
उधर टिहरी लोकसभा उपचुनाव के मद्देनजर यूकेडी के पास मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का मुद्दा सबसे हाट है, अगर यूकेडी चाहे तो वो इस मुद्दे को उछाल कर जनता के सामने अपने आप को मजबूत कर सकती है, और लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा को टक्कर दे सकती है, लेकिन यूकेडी के शीर्ष नेता सरकार पर सीधा हमला करने के मूड में नहीं है। सरकार ने भी मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर सरेंडर कर दिया है। राज्य सरकार नहीं चाहती है कि वो इस मुद्दे केा सुप्रीम केार्ट में ले जाये। यानि कि मूल निवासियों को इसके लिए खुद ही पहल करनी होगी। 

Friday, September 21, 2012

प्रतापनगर की पीड़ा



टिहरी जिला मुख्यालय के ठीक सामने नजर आने वाला पहाड़, प्रतापनगर है, दरअसल प्रतापनगर को पहाड़ इसलिए कहा गया है कि हर कोई इसे महज एक पहाड़ी टीला समझ कर धोखे में रहता है, ठीक उसी तरह जैसे कि यहां के हजारों लोग धोखे और छलावे की जिंदगी जीने को मजबूर है। कभी टिहरी महाराजा की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही प्रतापनगर आज विकास के लिए तड़प और छटपटा रहा है। विकास की दुहाई देने वालों ने अपनी मोटी कमाई के लिए टिहरी बांध की ऐसी पटकथा लिखी कि प्रतापनगर को अलग-थलग कर काले पानी की सजा मुकर्रर कर दी। प्रतापनगर के लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके साथ उसी संघीय राष्ट्र के लोग धोखा करेंगे, जिन्होने सन उन्नीस सौ अड्तालीस में एक राष्ट्र का नारा देकर टिहरी का विलय भारत में कराया। तब शायद ना टिहरी के महाराजा ने सोचा था और ना प्रतापनगर की जनता ने की 21वीं सदी उनके लिए किसी सजा से कम ना होगी। विकास के नाम पर टिहरी में जनमी और पली बढ़ी एक सभ्यता भले ही पानी के ताबूत में दफन हो गयी हो लेकिन प्रतापनगर की तीन लाख की आबादी वाली जनता दर-दर ठोकर खाने को मजबूर है। एक दशक पहले जब एतिहासिक टिहरी शहर तिल-तिल कर डूब रहा था, तो दूसरी ओर प्रतापनगर भी तड़प रहा था, झील का पानी का स्तर बढ़ता गया तो प्रतापनगर के सारे बाटे-घाटे एक-एक कर पानी में समा रहे थे, ये वो बाटे-घाटे थे जो प्रतापनगर के लिए किसी रूधिर वाहिका से कम नहीं थे। झील की गर्त में हमेशा के लिए समा रहे सड़कों और रास्तों को देख कर प्रतापनगर मानों मूर्छित पड़ा हो, और ये मूर्छा कब टूटेगी कोई कह नहीं सकता। यही मूर्छित प्रतापनगर आज सभी के लिए महज पहाड़ का टीला बन कर रह गया है। इस पहाड़ी टीले की छाती पर जो समाज सांसे ले रहा है उसकी फिक्र शायद ही किसी को हो। कोई जान पाये कि विकास के साथ कदमताल करने वाला प्रतापनगर आज 18वीं सदी में जीने को मजबूर है। एक दशक में तीन निर्वाचित सरकारों ने अपना शासन इस प्रदेश में चलाया लेकिन किसी भी सरकार ने प्रतापनगर की सुध नही ली, जबकि प्रतापनगर की जनता ने जिस प्रत्याशी को भी यहां से चुनकर भेजा उसी की पार्टी की सूबे में सरकार बनी, फिर चाहे साल 2002 में मार्क्सवादी सिद्धांतों और कांग्रेसी रंग में रंगे खांटी नेता फूल सिंह बिष्ट हो या फिर संघ की खाकी पैंट पहनने वाला विजय सिंह पंवार या फिर वर्तमान में कांग्रेसी रंग-रूट विक्रम सिंह नेगी। तीनों ही लोगों को प्रतापनगर की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर देहरादून के सफेद पर्वत भेजा, लेकिन किसी ने भी प्रतापनगर की आवाज सफेद पर्वत के अंदर नहीं उठायी। प्रतापनगर को आज गोविंद सिंह नेगी जैसे तेज-तर्रार नेता की जरूरत है, जो विधानसभा के अंदर प्रतापनगर की समस्या को मजबूती से रख सके। 
वर्तमान में प्रतापनगर के परिदृश्य को देखते हुए कतई भी नहीं लगता कि ये वही प्रतापनगर है जहां कभी विकास का पहिया तेजी से घूम रहा था। महज एक दशक में प्रतापनगर के अंदर से इतना पलायन हुआ कि आज समूचा इलाका वीरान हो चुका है। प्रतापनगर से एक दशक में हुआ पालयन शायद ही आजाद भारत के अंदर किसी अन्य जगह से हुआ हो। प्रतापनगर से पलायन कर चुके लोग नई टिहरी, ऋषिकेश, देहरादून, हरिद्वार और महानगरों में अब अपनी जड़े जमा रहे हैं। लेकिन प्रतापनगर में हुए इतने बड़े पलायन की ओर किसी की नजर नहीं पड़ी ।ना सरकार की और ना उसके हुक्मरानों की। पालयन पर बड़ी बहस होती है लेकिन इस बहस में कभी भी प्रतापनगर का कोई जिक्र तक नहीं होता। कोई रत्तीभर नहीं बोलता कि प्रतापनगर की भी थोड़ा सुध लो, लेकिन नहीं। शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा तो यहां बाबा आदम के जमाने की है। स्कूलों में एक भी टीचर नहीं, बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन शिक्षक ना होने से बैरंग वापस लौटते हैं या फिर रास्तों में छुपमछुपाई का खेल खेलकर अपने भविष्य को अंधेरे में धकेलने को मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के नाम पर प्रतापनगर ब्लॉक में दो महाविद्यालय खोले गये, एक लंबगांव के कोने में तो एक अगरोड़ा में, दोनों कालेज ऐसी जगह बनाये गये जहां जाने में छात्रों को भारी परेशानी उठानी पड़ती है। लंबगांव में खोले गये कालेज में विज्ञान संकाय की मांग थी लेकिन जालिम नेताओं और अफसरांे ने इसकी स्वीकृत आज तक नहीं दी, लिहाजा विज्ञान विषय से पढ़ाई करने वाले छात्रों को महंगा किराया देकर या तो नई टिहरी में या फिर देहरादून और ऋषिकेश पढ़ाई करनी पड़ रही है।  यही हाल अस्पतालों का है, एक भी डाक्टर आस्पतालों में नहीं है। प्रतापनगर और लंबगंाव में कहने को तो अस्पताल है, लेकिन इनकी हालत बदतर है। यहां तक पहुंचते ही मरीज दम तोड़ देता है। क्षेत्र में एक सौ आठ आपातकालीन सेवा तो हैं लेकिन महज दिखावे की, वो इसलिए कि एक सौ आठ की एम्बुलेंस प्रतापनगर खड़ी रहती है, और अगर भदूरा पट्टी के गांव में कोई घटना घट जाती है तो एम्बुलेंस को वहां पहुचने के लिए तकरीबन तीन घंटे लग जाता है। ऐसे में इस सेवा का यहां के लोगों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं है।
शायद देश में इतनी महंगी राशन कहीं नहीं मिलती है, जितनी कि प्रतापनगर में, इसकी वहज भी टिहरी झील से उपजी समस्या है। राशन से भरे वाहन घनसाली या फिर उत्तरकाशी से प्रतापनगर जाते हैं। जिससे गाड़ी का भाडा़ इतना बढ़ जाता है कि दुकानदारों को मजबूर होकर महंगी राशन बेचनी पड़ती है। प्रतापनगर में चावल और दालों के भाव आसामन छू रहे हैं। और पिछले एक दशक से प्रतापनगर की जनता इस महंगाई से त्रस्त है, आलम ये है कि ऋषिकेश में दस रूपये किलो टमाटर प्रतापनगर में पचास रूपये से नीचे नहीं मिलता। लेकिन किसी भी सरकार ने यहां की जनता की पीड़ा को नहीं समझा। यही हाल पेयजल का है, प्रतापनगर में पानी की भारी किल्लत है, स्थिति ये है कि यहां घोड़ो और खच्चरों पर पानी की ढुलाई की जाती है, जबकि प्रतापनगर और लंबगांव के लिए थलवाल गाड़ (सिलगाड़) से टैंकर से पानी की सप्लाई की जाती है, जिससे स्थानीय काश्तकारों को भारी समस्या उठानी पड़ती है, क्योकि गाड़ का सारा पानी टैकरों से सप्लाई किये जाने से सेरों के खेत पानी के बिना सूख जाते हैं, जिससे धान की फसल को भारी नुकसान पहुंचता है, जिस वहज से यहां नौबत मारपीट तक आ जाती है। कई बार स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी किया लेकिन प्रशासन की ओर से कुछ भी नहीं किया गया। हालांकि सरकार की ओर से पंपिंग योजना शुरू करने की घोषणा तो की गई थी लेकिन ये योजना कब  धरातल की बजाय रसातल में समा गई। 
हाल के दिनों में आयी आपदा का कहर प्रतापनगर पर भी टूटा। प्रतापनगर जाने के लिए दो झूला पुल है, एक पीपलडाली और दूसरा स्यांसू पुल। लेकिन सूबे में भारी बरसात और टिहरी झील में बढ़ते पानी के जल स्तर से इन दो पुलों से जुडे मार्ग भूस्खलन की जद में आये। जिस वजह से लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। आलम ये था कि सुबह चार बजे घर से निकले लोग ऋषिकेश रात आठ बजे पहुंच रहे थे। क्षेत्र की ऐसी स्थिति में प्रदेश की सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिध देहरादून में दुबके थे। लेकिन क्षेत्र के हालात को लेकर प्रतापनगर के विधायक तक ने मुंह नहीं खोला। सड़कें दरक रही थी, जनता के माथे पर परेशानी का पसीना चूं रहा था और जनप्रतिनिधि प्रसन्न मुद्रा में देहरादून की सड़कों पर चौपहिया वाहन का सुख भोग रहे थे। हालांकि कुछ लोगों का कहना ये भी कहना है कि क्षेत्र के विधायक बड़े विजनरी व्यक्तित्व वाले हैं, लेकिन ऐसे विजन का क्या करना जिसका उपयोग वो क्षेत्र के विकास के लिए नहीं कर पा रहे हैं। प्रतापनगर को अगर मौजूदा समय में अगर किसी चीज की आवश्यकता है तो वो हैं क्षेत्र के लिए एक अदद पुल। हालांकि प्रतापनगर के लिए चांठी-डोबरा के पास एक पुल प्रस्तावित भी है, लेकिन ये पुल पिछले एक दशक से निर्माण की अंधेर गुफा में कहीं खो गया है। लिहाजा इस पुल के लिए रामायण के नल-नील की सख्त आवश्यकता है। ताकि जल्द पुल का निर्माण हो सके और गंगा के उस पार की जनता को थोड़ा सुकून मिल सके। 

खैर जो भी हो टिहरी लोकसभा उपचुनाव का बिगुल बज चुका है। और आगामी 10 अक्टूबर को क्षेत्र की जनता एक बार फिर दिल्ली के गोल पर्वत के लिए अपना प्रतिनिधि चुनेगी। इस बार प्रतापनगर की जनता दिल्ली के दुर्ग में किसे भेजने में अपनी दिलचस्पी दिखायेगी ये कहना अभी मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि इस बार गंगा पार के इलाके का झुकाव राजपरिवार की तरफ ज्यादा है। इसका का भी वाजिब कारण है। क्योंकि स्वर्गीय महाराजा मानवंेद्र शाह ने कभी भी प्रतापनगर की उपेक्षा नहीं की। महाराजा के स्वर्गसिधर जाने के बाद इस क्षेत्र की सुध किसी ने भी नहीं ली। टिहरी की जमीन से प्रदेश की सियासत करने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री ने भी प्रतापनगर को हमेशा पहाड़ी टीला समझा, और हमेशा प्रतापनगर की उपेक्षा की, जब सांसद थे तब भी और प्रदेश के मुखिया भी होने के बाद भी प्रतापनगर की कोई खबर नहीं ली। टिहरी लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भाजपा ने राजपरिवार पर अपना भरोसा जताकर टिहरी महारानी को मैदान में उतारा है। उधर कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे को टिकट थमा दिया है। दोनों दलों के प्रत्याशी क्षेत्र की जनता के लिए किसी अजनबी की तरह है। एक दफा भाजपा प्रत्याशी राजघराने की होने के नाते लोगों उनके प्रति भावनात्मक लगाव है लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी यहां की जनता के लिए अजनबी ही है। ऐसे में क्या टिहरी लोकसभा उपचुनाव में प्रतापनगर की जनता बहुगुणा परिवार के सदस्य को विजय बनाने में भागीदारी निभायेगी। इस का जबाव तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चल पायेगा। लेकिन इतना तो तय है कि झील पार का क्षेत्र अपनी परेशानियों का हिसाब चुनाव में जरूर चुकता करेगा, और ये हिसाब कांग्रेस की जीत में अवरोधक का काम करेगा। 

लोकसभा चुनाव भी होंगे, विधानसभ चुनाव भी होंगे, लेकिन क्या कभी इस बांध प्रभावित क्षेत्र को फिर से गोविंद सिंह नेगी जैसा तेज-तर्रार नेता मिलेगा। जो जनता की समस्याओं को संसद और विधानसभा के अंदर उठा सके। उम्मीद है कि एक दिन जरूर आयेगा जब प्रतापनगर को भी दूसरा गोविंद सिंह नेगी मिलेगा और तब खामोशी की चादर ओढ़े हुए प्रतापनगर, अपने हक के लिए आवाज बुलंद कर रहा होगा।  


Wednesday, September 19, 2012

कांग्रेस का दामन थामेंगे कंडारी!



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Tuesday, September 18, 2012

खबरदार..! सितारगंज नहीं है टिहरी




समीकरण गड़बड़ा सकते हैं घनसाली व प्रतापनगर के मतदाता


टिहरी इन दिनों खबरों की सुर्खियों में है। अखबारों, टीवी चैनलों और राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों में टिहरी की चर्चाएं छिड़ी हुई है। इन चर्चाओं में टिहरी के इतिहास को याद किया जा रहा है, राजा के जमाने की किस्से और कहानियां भी सुनने को मिल रही है। टिहरी से राजपाट और पच्चीस साल की गोर्ख्याण की यादें भी ताजा हो उठी है। गढ़वाल साम्राज्य का दो भागों में बंटना और फिर बाद में टिहरी रियासत का भारत में विलय भी चर्चा का हिस्सा है। टिहरी लोक सभा सीट पर टिहरी राजपरिवार का वर्चस्व, खात्मे और खत्म हुए वर्चस्व को दोबारा हासिल होने के सपनों का भी जिक्र इन दिनों चाय के ढ़ाबों से लेकर गांव की मुंडेरों और देहरादून के अविकसित शहरी इलाकों से लेकर सत्ता के गलियारों हो रहा है।
असल टिहरी भले ही पानी की झील की अतल गहराई में शांत और खामोश इन सब बातों से अनविज्ञ हो, लेकिन टिहरी लोकसभा उपचुनाव के बहाने उसे सहानुभूति से याद किया जा रहा है, राजा के बसाये जाने से लेकर, विकास के नाम पर उसे डुबोये जाने तक। टीवी चैनलों, अखबरों, राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और नेताओं के बयानों में टिहरी की विकास की बातें किसी मिश्री की तरह लग रही है, जिसकी मिठास कल्पना से भी मीठी प्रतीत होती है, अगर सच में ऐसा होता तो शायद भारत में विलय होने वाली टिहरी रियासत के लोग खुशनसीब होते, खास कर झील पार की आबादी।
टिहरी का अचानक चर्चाओं में आने का श्रेय मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को जाता है। जिनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने भूली-बिसरी टिहरी को खबरों में ला खड़ा कर दिया है। सांसद बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली पड़ी इस सीट पर उपचुनाव होना तय हुआ है। यही वजह है कि अनजान सितारगंज की तरह टिहरी भी चर्चाओं का बाजार गरमाये हुए है। लेकिन सितारगंज और टिहरी में जमीन-आसमान की असमानताएं हैं। टिहरी हमेशा से ही विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाए हुए है और सितारगंज सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री की विधानसभा सीट के तौर पर जानी जाती है, या फिर बंगाली बाहुल्य इलाका। लेकिन टिहरी की धरती कई अनगिनत पहचानों से अटी पड़ी है, जिसका बाखान असंभव है, क्योंकि टिहरी अपने आप में ही एक मिसाल है।
ऐसे में इस लोकसभा उपचुनाव में भी टिहरी को सितारगंज समझना नादानी होगा। क्योंकि सत्तासीन कांग्रेस  टिहरी को भी सितारगंज समझ बैठी है। कांग्रेस के मठाधीशों का एक मत है कि टिहरी में भी सितारगंज की सफलता को दोहराया जायेगा। अति आत्मविश्वास में पगलाये कांग्रेसियों को इतना जानना जरूरी होगा कि वो टिहरी की सांभ्रांत जनता से किस आधार पर वोट मांगेगी। यहां तो किसी को भूमिधरी का अधिकार नहीं चाहिए। जिस प्रत्याशी के लिए टिहरी के मतदाता से वोट की अपील की जा रही है उस प्रत्याशी का नाम यहां की जनता ने अखबारों के काले आखरों और टीवी पर बकबक करते एंकर के मुंह से सुना। ना कांग्रेस का प्रत्याशी यहां की परिस्थिति, बोली-भाषा और रीति रिवाज को जानता है और ना समझता है, यही हाल भाजपा प्रत्याशी का भी है। भाजपा भले ही राजपरिवार के बहाने जीत का स्वाद चखने को आतुर हो, लेकिन उसके उम्मीदवार का भी टिहरी संसदीय सीट पर अपना कोई वजूद नहीं है। महाराजा मानमेंद्र शाह की ईमानदारी और बोलांदा बद्रीश का भावनात्मक झुकाव भले ही भाजपा की ओर हो लेकिन जीत टिहरी महारानी की होगी ऐसा कहना भी अभी जल्दबाजी होगा।
टिहरी संसदीय सीट के राजनीतिक रूख की अगर बात करें तो प्रदेश के राजनेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं के जुबां पर टिहरी की विकास की बातें सुनने को मिल रही है। हर पार्टी के नेता टिहरी में हुए विकास को अपनी उपलब्धि बता रहे हैं, लेकिन बांध प्रभावित प्रतापनगर, घनसाली विधानसभा की जनता की समस्याओं के निदान के लिए किसी भी नेता के पास कोई योजना नहीं है। विस्थापित लोगों की समस्याएं, पुनर्वास में हुए घोटाले और ना जाने कितने ही मुद्दों पर हर पार्टी के नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। कोई भी नेता दावे के साथ ये कहने को तैयार नहीं है कि टिहरी डूब जाने के बाद से एक अदद पुल का इंतजार कर रही प्रतापनगर की जनता को कब पुल का सुख मिलेगा। जबकि सभी पार्टियों के नेताओं को पता है कि प्रतापनगर के लिए पुल का बनना कितना जरूरी है। अगर आंकड़ों की बात की जाय तो अकेले घनसाली और प्रतापनगर विधानसभा के मतदाता हार और जीत की बाजी पटलने का मद्दा रखते हैं। यही भूल सत्तासीन कांग्रेस करने जा रही है और भाजपा इसका फायदा उठाने में लगी है। नतीजा ये है कि दोनों विधानसभा में कांग्रेस विरोधी लहर निकल पड़ी है।
खैर कांग्रेस और भाजपा अब सीधे तौर पर मैदान में उतर चुकी है। दोनों की दलों के बीच चुनावी टक्कर देखने को मिल रहा है। भाजपा प्रत्याशी टिहरी महारानी माला राजलक्ष्मी शाह पर ना सिर्फ टिहरी लोकसभा सीट जीत कर कमल खिलाने की जिम्मेदारी है बल्कि दोबारा इस संसदीय सीट पर राजपरिवार का वर्चस्व कायम की भी चुनौती है। तो वहीं कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को विजय बनाने में खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। हालांकि मुख्यमंत्री टिहरी लोकसभा सीट को जीतने का दावा कर रहे हैं, लेकिन तमाम झंझावतों, विरोधों के बाद भी क्या बहुगुणा परिवार अपने नए ढौर को बचाने में कामयाब हो पायेंगे या फिर राजपरिवार की बहू अपने किले में राजनीतिक सेंधमारी को इस बार उखाड़ फेंकेगी। खैर लोकतंत्र के इस चुनावी घाट पर फैसला जनता को करना है, लिहाजा टिहरी को सितारगंज समझना हवा का रूख मोड़ सकती है।

Thursday, September 13, 2012

चिकित्सा षिक्षा मंत्री हरक सिंह रावत के नाम रैबार


स्यमान्या दिदा, हरकू,
देहरादून मा राजी-खुषी होलू, अर राजी-खुषी भी रह्यू चैंदूू, बल राजधानी का ठाठ त निराळा होन्दा न, दिदा जमानू ह्वैगी थै, आज आखर लेखण कू मन करी, मैली त्वै तैं
 याद करूला, दिदा भारी बिपदा आयीं, कैमा अपड़ी छृई लगौंण त कोई सुणद्वि नी च, हर कोई हसण बैठुदू, बल अपड़ी छोटी-बड़ी त अपडू मा लगौंदा न। बल दिदा त्वै दगड़ी त सभी मोबैल पर छुईं लगौंदा ना पर क्या कन मैं तैंत ये खेलुंडा देखी भारी डार कर लगदी। पर दिदा आज भिंडी दिन बिटी कलम उठाई, खदरा पंडी थै पणी। मसन भी खूब काळी ह्वैगी थै। छिंतड़न फ्वांजी-फांजी साफ करी लेखण बैठ्यूं। दिदा अचकालू बसख्याळ मैना लग्यां, द्यौरू खूब गिगडांण लग्यूं। रगड़ा-भगड़ी भी खूब होंणी, दिदा जीतम उठदू, जब कुरेडू गौं-गळा तैं घेरदू। हे दिदा सुणी कि त्वैन बल अचकालू इलाहबाद का छ्वरा की खूब रेड मारी, अर सरकार की गेर पकड़िक अपडू हक मांगी। दिदा तब जैक बल त्वै तैं डोखरा-पोंगड़ा, फौजी भाई की देख-रेख और डॉक्टर बनौण वाळी जिम्मेदारी दिनी। सुण दिदा तू खूब लड़ाक भी बल, क्या कन यखमा तेरी भी गलती नी चा, लड़ण और मर ता हमार खून मा चा। अला बल त्वैन दमयंती कु परमोष करिक भी दम लिनी बल, ठीक बात चा, पर दिदा पर जै लेक मैन त्वै कैं रैबार लेखण बैठी, उत मैंन लेखी नी चा। दिदा क्या लाण त्वै मा छुईं, अब नौ-न्याळ भी ज्वान ह्वैगी। पढ़ाई-लिखै कि 24 घंटा धत रंदी लगायीं। हर वक्त बोलण लग्या रंदा कि पिता हमुन भी इंजीन्यर अर डाक्टर बणेण, मैत इंजीन्यर अर डाक्टर न त बोलण औंदू अर ना ल्यखण, तनु तू दिदा समझीगी होलू, त्वै त बल पता होलू, तू त मंत्री ल बल। मैत घर्या आदमी, डोखरा-पुंगड़ा का बारा मा ही जाणदू। क्या कन दिदा ये पहाड़ त क्वै डाक्टर नी चा, हमु स्वचण लग्यां कि हमारा ही छोरा पढ़ी-लेखी कर पहाड़ की सेवा करला। पर दिदा मैन सुणी कि हमारा छोरा तै त देहरादून मा कोई पुछदू नी च, तख त बल पैंसू की छूईं लगौंदा। हमारा छोरू की क्वै कद्र नी कररू, यनु नी की हमारा छोरू तै पडुणू नी औंदू, पर दिदा हमुम मा हर्या-हर्या नोट नी चा। दिदा हमारा नौना मेहनत करी देहदूण गै पर दिदा तख बल सबसी पहली छुईं पैसूं की लगाई, डेढ़ लाख रूप्या मांगी बल नर्सिंग का कोर्स का दिदा नरसिंह खलू तौं तै जौन हमारा छोरू कू भविश्य बर्बाद करी। दिदा क्या लाण छूई म्यरू घर आई त बुकरा-बुकरी रोई, बोली पिता हमुन यनी रण ये पहाड़, पहाड़ की भलु कर वाळू कोई नी च। सब बैरा का लोग औणा अर वौ तै जमीन भी द्यणा अर स्कूल मा दाखिलू भी। क्या कन दिदा अब तू ही बतौ, हमरी बात कोई नी चा सुणण क तैयार, त्वै पर आस छ। दिदा यनु ना ह्वाव कि तू भी हमारी ओर पीठ फेरू। तनु त्वैन धारी की लाज नी रखी, फिर भी देख्याल पहाड़ की पिड़ा अगर त्वै तैं भी त हमारा नौ-न्याळ की ख्याल रखी। लाज रखी विपदा का मर्यां अपड़ा भै-बंदू कू। खैर दिदा रूमकी बक्त ह्वैगी। अंध्यारू भी ह्वैगी नजर नी पड़णी मेरा रैबार तैं ठंग सी पड़ी अर विचार करी।
तिथि- 01 सितंबर 2012

तेरू भुला
विपदा
हाल निवास- ठेठ पहाड

Tuesday, September 4, 2012

मस्त है मुखिया, मजे में मंत्री, अड़ियल अफसर और जोकर जनता




जोकर जनता सो रखी थी, लंबी और गहरी निंद्रा में, ये नींद जाड़ों के दिनों से पसरी हुई थी, कुछ खुशी के मारे, कुछ अकुलाहट के कारण भी, जोकर जनता जो ठहरी, ठिठुरन भरे दिनों झक काले और मैल से सने बदबूदार कपड़े पहन कर वोट देने गयी थी, इस खुशी में भी सो रखी थी, कि देहरादून के सफेद पर्वत में अब उसकी पूछ होगी। लेकिन दिल्ली दुर्ग में बैठी गोरी मेम ने पहाड़ क
ी जोकर जनता को बेबकूफ बना डाला, मेम ने इटालियन सॉफ्टवेयर वाले दिमाग से शतरंजी चाल चली और इलाहबादी छोरे को पहाड़ का ठेकेदार बना दिया। इस देशी मेम के आगे हरकू-हर्षू ने खूब हल्ला मचाया, खूब डुकरताल मारी, पर मेम तो ठहरी मेम, उसे कोई फर्क नहीं पड़ा, पर अपने हरकू-हर्षू की खूब सेम-सेम हुई। इलाहबादी छोरे भी तुरत-फुरत में दून पहुंचा, और ठेकेदारी की शपथ ली, उत्तराखंड में लखनवी अंदाज में ठेकेदारी शुरू होने लगी। छोटे मोटे ठेकेदारों की पौ-बारह हो गई। सफारी शूट पहने या कभी कभी खद्दर की सदरी पहने इलाहबादी छोरे ने राजधानी में पहाड़ी सुर में राग गाना शुरू किया। इलाहबादी छोरे के बेसुरे राग से जोकर जनता जागी, तो वो अतप्रभ रह गयी। बोला, ये पहाड़ी नहीं बल्कि कोई पहाड़ी भेष में कोई छलिया है। अब जोकर जनता कुछ-कुछ समझने लगी, कि उसे ठगा गया। इलाहबादी छोरा तो कभी दून में तो कभी दिल्ली में मदमस्त है। उसके चाण-बाण और मुंसी देश-विदेश की सैर कर ठाठ-बाट कर रहे हैं। प्रदेश में अफसरों का रवैया अड़ियल किस्म का है। जनता को जोकर समझते हैं, उनकी कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं, आलम ये है कि जो अधिकारी रिश्वत और कमिश्न जितना ज्यादा ले रहा है उसकी पूछ सरकार और शासन में ज्यादा है। लूट और झूट का खेल जमकर खेला जा रहा है। जोकर जनता खामोश है, उसके सामने उसके सपनों की हत्या हो रही है। जोकर जनता की छटपटाहट बता रही है कि उसके अंदर गुस्सा उबल रहा है, लेकिन करे क्या जनता तो जोकर ठहरी, उसे मुखिया, मंत्री, अफसर बांधना जानते हैं, काबू में रखना जानते हैं, उसके हितों की बात कर उसके उबाल को ठंडा करना जानते हैं। उनकी भिंची हुई मुठ्ठी को खोलना जानते हैं, लेकिन जब जोकर जनता विकास का सवाल पूछती है तो उसे बेबकूफ बनाया जाता है योजनाओं के नाम पर परियोजनाओं के नाम पर, राहत पैकेजों के नाम पर और ना जाने किसी-किसी प्रकार से उसे प्रलोभन दिये जाते हैं और जोकर जनता खुश होकर विकास की हरियाल का सपना बुनने बैठ जाती है और सपनांे में खो जाती है। उसकी ये तंद्रा कब टूटेगी....उसे भी नहीं पता।