टिहरी जिला मुख्यालय के ठीक सामने नजर आने वाला पहाड़, प्रतापनगर है, दरअसल प्रतापनगर को पहाड़ इसलिए कहा गया है कि हर कोई इसे महज एक पहाड़ी टीला समझ कर धोखे में रहता है, ठीक उसी तरह जैसे कि यहां के हजारों लोग धोखे और छलावे की जिंदगी जीने को मजबूर है। कभी टिहरी महाराजा की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही प्रतापनगर आज विकास के लिए तड़प और छटपटा रहा है। विकास की दुहाई देने वालों ने अपनी मोटी कमाई के लिए टिहरी बांध की ऐसी पटकथा लिखी कि प्रतापनगर को अलग-थलग कर काले पानी की सजा मुकर्रर कर दी। प्रतापनगर के लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके साथ उसी संघीय राष्ट्र के लोग धोखा करेंगे, जिन्होने सन उन्नीस सौ अड्तालीस में एक राष्ट्र का नारा देकर टिहरी का विलय भारत में कराया। तब शायद ना टिहरी के महाराजा ने सोचा था और ना प्रतापनगर की जनता ने की 21वीं सदी उनके लिए किसी सजा से कम ना होगी। विकास के नाम पर टिहरी में जनमी और पली बढ़ी एक सभ्यता भले ही पानी के ताबूत में दफन हो गयी हो लेकिन प्रतापनगर की तीन लाख की आबादी वाली जनता दर-दर ठोकर खाने को मजबूर है। एक दशक पहले जब एतिहासिक टिहरी शहर तिल-तिल कर डूब रहा था, तो दूसरी ओर प्रतापनगर भी तड़प रहा था, झील का पानी का स्तर बढ़ता गया तो प्रतापनगर के सारे बाटे-घाटे एक-एक कर पानी में समा रहे थे, ये वो बाटे-घाटे थे जो प्रतापनगर के लिए किसी रूधिर वाहिका से कम नहीं थे। झील की गर्त में हमेशा के लिए समा रहे सड़कों और रास्तों को देख कर प्रतापनगर मानों मूर्छित पड़ा हो, और ये मूर्छा कब टूटेगी कोई कह नहीं सकता। यही मूर्छित प्रतापनगर आज सभी के लिए महज पहाड़ का टीला बन कर रह गया है। इस पहाड़ी टीले की छाती पर जो समाज सांसे ले रहा है उसकी फिक्र शायद ही किसी को हो। कोई जान पाये कि विकास के साथ कदमताल करने वाला प्रतापनगर आज 18वीं सदी में जीने को मजबूर है। एक दशक में तीन निर्वाचित सरकारों ने अपना शासन इस प्रदेश में चलाया लेकिन किसी भी सरकार ने प्रतापनगर की सुध नही ली, जबकि प्रतापनगर की जनता ने जिस प्रत्याशी को भी यहां से चुनकर भेजा उसी की पार्टी की सूबे में सरकार बनी, फिर चाहे साल 2002 में मार्क्सवादी सिद्धांतों और कांग्रेसी रंग में रंगे खांटी नेता फूल सिंह बिष्ट हो या फिर संघ की खाकी पैंट पहनने वाला विजय सिंह पंवार या फिर वर्तमान में कांग्रेसी रंग-रूट विक्रम सिंह नेगी। तीनों ही लोगों को प्रतापनगर की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर देहरादून के सफेद पर्वत भेजा, लेकिन किसी ने भी प्रतापनगर की आवाज सफेद पर्वत के अंदर नहीं उठायी। प्रतापनगर को आज गोविंद सिंह नेगी जैसे तेज-तर्रार नेता की जरूरत है, जो विधानसभा के अंदर प्रतापनगर की समस्या को मजबूती से रख सके।
वर्तमान में प्रतापनगर के परिदृश्य को देखते हुए कतई भी नहीं लगता कि ये वही प्रतापनगर है जहां कभी विकास का पहिया तेजी से घूम रहा था। महज एक दशक में प्रतापनगर के अंदर से इतना पलायन हुआ कि आज समूचा इलाका वीरान हो चुका है। प्रतापनगर से एक दशक में हुआ पालयन शायद ही आजाद भारत के अंदर किसी अन्य जगह से हुआ हो। प्रतापनगर से पलायन कर चुके लोग नई टिहरी, ऋषिकेश, देहरादून, हरिद्वार और महानगरों में अब अपनी जड़े जमा रहे हैं। लेकिन प्रतापनगर में हुए इतने बड़े पलायन की ओर किसी की नजर नहीं पड़ी ।ना सरकार की और ना उसके हुक्मरानों की। पालयन पर बड़ी बहस होती है लेकिन इस बहस में कभी भी प्रतापनगर का कोई जिक्र तक नहीं होता। कोई रत्तीभर नहीं बोलता कि प्रतापनगर की भी थोड़ा सुध लो, लेकिन नहीं। शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा तो यहां बाबा आदम के जमाने की है। स्कूलों में एक भी टीचर नहीं, बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन शिक्षक ना होने से बैरंग वापस लौटते हैं या फिर रास्तों में छुपमछुपाई का खेल खेलकर अपने भविष्य को अंधेरे में धकेलने को मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के नाम पर प्रतापनगर ब्लॉक में दो महाविद्यालय खोले गये, एक लंबगांव के कोने में तो एक अगरोड़ा में, दोनों कालेज ऐसी जगह बनाये गये जहां जाने में छात्रों को भारी परेशानी उठानी पड़ती है। लंबगांव में खोले गये कालेज में विज्ञान संकाय की मांग थी लेकिन जालिम नेताओं और अफसरांे ने इसकी स्वीकृत आज तक नहीं दी, लिहाजा विज्ञान विषय से पढ़ाई करने वाले छात्रों को महंगा किराया देकर या तो नई टिहरी में या फिर देहरादून और ऋषिकेश पढ़ाई करनी पड़ रही है। यही हाल अस्पतालों का है, एक भी डाक्टर आस्पतालों में नहीं है। प्रतापनगर और लंबगंाव में कहने को तो अस्पताल है, लेकिन इनकी हालत बदतर है। यहां तक पहुंचते ही मरीज दम तोड़ देता है। क्षेत्र में एक सौ आठ आपातकालीन सेवा तो हैं लेकिन महज दिखावे की, वो इसलिए कि एक सौ आठ की एम्बुलेंस प्रतापनगर खड़ी रहती है, और अगर भदूरा पट्टी के गांव में कोई घटना घट जाती है तो एम्बुलेंस को वहां पहुचने के लिए तकरीबन तीन घंटे लग जाता है। ऐसे में इस सेवा का यहां के लोगों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं है।
शायद देश में इतनी महंगी राशन कहीं नहीं मिलती है, जितनी कि प्रतापनगर में, इसकी वहज भी टिहरी झील से उपजी समस्या है। राशन से भरे वाहन घनसाली या फिर उत्तरकाशी से प्रतापनगर जाते हैं। जिससे गाड़ी का भाडा़ इतना बढ़ जाता है कि दुकानदारों को मजबूर होकर महंगी राशन बेचनी पड़ती है। प्रतापनगर में चावल और दालों के भाव आसामन छू रहे हैं। और पिछले एक दशक से प्रतापनगर की जनता इस महंगाई से त्रस्त है, आलम ये है कि ऋषिकेश में दस रूपये किलो टमाटर प्रतापनगर में पचास रूपये से नीचे नहीं मिलता। लेकिन किसी भी सरकार ने यहां की जनता की पीड़ा को नहीं समझा। यही हाल पेयजल का है, प्रतापनगर में पानी की भारी किल्लत है, स्थिति ये है कि यहां घोड़ो और खच्चरों पर पानी की ढुलाई की जाती है, जबकि प्रतापनगर और लंबगांव के लिए थलवाल गाड़ (सिलगाड़) से टैंकर से पानी की सप्लाई की जाती है, जिससे स्थानीय काश्तकारों को भारी समस्या उठानी पड़ती है, क्योकि गाड़ का सारा पानी टैकरों से सप्लाई किये जाने से सेरों के खेत पानी के बिना सूख जाते हैं, जिससे धान की फसल को भारी नुकसान पहुंचता है, जिस वहज से यहां नौबत मारपीट तक आ जाती है। कई बार स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी किया लेकिन प्रशासन की ओर से कुछ भी नहीं किया गया। हालांकि सरकार की ओर से पंपिंग योजना शुरू करने की घोषणा तो की गई थी लेकिन ये योजना कब धरातल की बजाय रसातल में समा गई।
हाल के दिनों में आयी आपदा का कहर प्रतापनगर पर भी टूटा। प्रतापनगर जाने के लिए दो झूला पुल है, एक पीपलडाली और दूसरा स्यांसू पुल। लेकिन सूबे में भारी बरसात और टिहरी झील में बढ़ते पानी के जल स्तर से इन दो पुलों से जुडे मार्ग भूस्खलन की जद में आये। जिस वजह से लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। आलम ये था कि सुबह चार बजे घर से निकले लोग ऋषिकेश रात आठ बजे पहुंच रहे थे। क्षेत्र की ऐसी स्थिति में प्रदेश की सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिध देहरादून में दुबके थे। लेकिन क्षेत्र के हालात को लेकर प्रतापनगर के विधायक तक ने मुंह नहीं खोला। सड़कें दरक रही थी, जनता के माथे पर परेशानी का पसीना चूं रहा था और जनप्रतिनिधि प्रसन्न मुद्रा में देहरादून की सड़कों पर चौपहिया वाहन का सुख भोग रहे थे। हालांकि कुछ लोगों का कहना ये भी कहना है कि क्षेत्र के विधायक बड़े विजनरी व्यक्तित्व वाले हैं, लेकिन ऐसे विजन का क्या करना जिसका उपयोग वो क्षेत्र के विकास के लिए नहीं कर पा रहे हैं। प्रतापनगर को अगर मौजूदा समय में अगर किसी चीज की आवश्यकता है तो वो हैं क्षेत्र के लिए एक अदद पुल। हालांकि प्रतापनगर के लिए चांठी-डोबरा के पास एक पुल प्रस्तावित भी है, लेकिन ये पुल पिछले एक दशक से निर्माण की अंधेर गुफा में कहीं खो गया है। लिहाजा इस पुल के लिए रामायण के नल-नील की सख्त आवश्यकता है। ताकि जल्द पुल का निर्माण हो सके और गंगा के उस पार की जनता को थोड़ा सुकून मिल सके।
खैर जो भी हो टिहरी लोकसभा उपचुनाव का बिगुल बज चुका है। और आगामी 10 अक्टूबर को क्षेत्र की जनता एक बार फिर दिल्ली के गोल पर्वत के लिए अपना प्रतिनिधि चुनेगी। इस बार प्रतापनगर की जनता दिल्ली के दुर्ग में किसे भेजने में अपनी दिलचस्पी दिखायेगी ये कहना अभी मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि इस बार गंगा पार के इलाके का झुकाव राजपरिवार की तरफ ज्यादा है। इसका का भी वाजिब कारण है। क्योंकि स्वर्गीय महाराजा मानवंेद्र शाह ने कभी भी प्रतापनगर की उपेक्षा नहीं की। महाराजा के स्वर्गसिधर जाने के बाद इस क्षेत्र की सुध किसी ने भी नहीं ली। टिहरी की जमीन से प्रदेश की सियासत करने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री ने भी प्रतापनगर को हमेशा पहाड़ी टीला समझा, और हमेशा प्रतापनगर की उपेक्षा की, जब सांसद थे तब भी और प्रदेश के मुखिया भी होने के बाद भी प्रतापनगर की कोई खबर नहीं ली। टिहरी लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भाजपा ने राजपरिवार पर अपना भरोसा जताकर टिहरी महारानी को मैदान में उतारा है। उधर कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे को टिकट थमा दिया है। दोनों दलों के प्रत्याशी क्षेत्र की जनता के लिए किसी अजनबी की तरह है। एक दफा भाजपा प्रत्याशी राजघराने की होने के नाते लोगों उनके प्रति भावनात्मक लगाव है लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी यहां की जनता के लिए अजनबी ही है। ऐसे में क्या टिहरी लोकसभा उपचुनाव में प्रतापनगर की जनता बहुगुणा परिवार के सदस्य को विजय बनाने में भागीदारी निभायेगी। इस का जबाव तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चल पायेगा। लेकिन इतना तो तय है कि झील पार का क्षेत्र अपनी परेशानियों का हिसाब चुनाव में जरूर चुकता करेगा, और ये हिसाब कांग्रेस की जीत में अवरोधक का काम करेगा।
लोकसभा चुनाव भी होंगे, विधानसभ चुनाव भी होंगे, लेकिन क्या कभी इस बांध प्रभावित क्षेत्र को फिर से गोविंद सिंह नेगी जैसा तेज-तर्रार नेता मिलेगा। जो जनता की समस्याओं को संसद और विधानसभा के अंदर उठा सके। उम्मीद है कि एक दिन जरूर आयेगा जब प्रतापनगर को भी दूसरा गोविंद सिंह नेगी मिलेगा और तब खामोशी की चादर ओढ़े हुए प्रतापनगर, अपने हक के लिए आवाज बुलंद कर रहा होगा।