Tuesday, September 18, 2012

खबरदार..! सितारगंज नहीं है टिहरी




समीकरण गड़बड़ा सकते हैं घनसाली व प्रतापनगर के मतदाता


टिहरी इन दिनों खबरों की सुर्खियों में है। अखबारों, टीवी चैनलों और राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों में टिहरी की चर्चाएं छिड़ी हुई है। इन चर्चाओं में टिहरी के इतिहास को याद किया जा रहा है, राजा के जमाने की किस्से और कहानियां भी सुनने को मिल रही है। टिहरी से राजपाट और पच्चीस साल की गोर्ख्याण की यादें भी ताजा हो उठी है। गढ़वाल साम्राज्य का दो भागों में बंटना और फिर बाद में टिहरी रियासत का भारत में विलय भी चर्चा का हिस्सा है। टिहरी लोक सभा सीट पर टिहरी राजपरिवार का वर्चस्व, खात्मे और खत्म हुए वर्चस्व को दोबारा हासिल होने के सपनों का भी जिक्र इन दिनों चाय के ढ़ाबों से लेकर गांव की मुंडेरों और देहरादून के अविकसित शहरी इलाकों से लेकर सत्ता के गलियारों हो रहा है।
असल टिहरी भले ही पानी की झील की अतल गहराई में शांत और खामोश इन सब बातों से अनविज्ञ हो, लेकिन टिहरी लोकसभा उपचुनाव के बहाने उसे सहानुभूति से याद किया जा रहा है, राजा के बसाये जाने से लेकर, विकास के नाम पर उसे डुबोये जाने तक। टीवी चैनलों, अखबरों, राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और नेताओं के बयानों में टिहरी की विकास की बातें किसी मिश्री की तरह लग रही है, जिसकी मिठास कल्पना से भी मीठी प्रतीत होती है, अगर सच में ऐसा होता तो शायद भारत में विलय होने वाली टिहरी रियासत के लोग खुशनसीब होते, खास कर झील पार की आबादी।
टिहरी का अचानक चर्चाओं में आने का श्रेय मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को जाता है। जिनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने भूली-बिसरी टिहरी को खबरों में ला खड़ा कर दिया है। सांसद बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली पड़ी इस सीट पर उपचुनाव होना तय हुआ है। यही वजह है कि अनजान सितारगंज की तरह टिहरी भी चर्चाओं का बाजार गरमाये हुए है। लेकिन सितारगंज और टिहरी में जमीन-आसमान की असमानताएं हैं। टिहरी हमेशा से ही विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाए हुए है और सितारगंज सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री की विधानसभा सीट के तौर पर जानी जाती है, या फिर बंगाली बाहुल्य इलाका। लेकिन टिहरी की धरती कई अनगिनत पहचानों से अटी पड़ी है, जिसका बाखान असंभव है, क्योंकि टिहरी अपने आप में ही एक मिसाल है।
ऐसे में इस लोकसभा उपचुनाव में भी टिहरी को सितारगंज समझना नादानी होगा। क्योंकि सत्तासीन कांग्रेस  टिहरी को भी सितारगंज समझ बैठी है। कांग्रेस के मठाधीशों का एक मत है कि टिहरी में भी सितारगंज की सफलता को दोहराया जायेगा। अति आत्मविश्वास में पगलाये कांग्रेसियों को इतना जानना जरूरी होगा कि वो टिहरी की सांभ्रांत जनता से किस आधार पर वोट मांगेगी। यहां तो किसी को भूमिधरी का अधिकार नहीं चाहिए। जिस प्रत्याशी के लिए टिहरी के मतदाता से वोट की अपील की जा रही है उस प्रत्याशी का नाम यहां की जनता ने अखबारों के काले आखरों और टीवी पर बकबक करते एंकर के मुंह से सुना। ना कांग्रेस का प्रत्याशी यहां की परिस्थिति, बोली-भाषा और रीति रिवाज को जानता है और ना समझता है, यही हाल भाजपा प्रत्याशी का भी है। भाजपा भले ही राजपरिवार के बहाने जीत का स्वाद चखने को आतुर हो, लेकिन उसके उम्मीदवार का भी टिहरी संसदीय सीट पर अपना कोई वजूद नहीं है। महाराजा मानमेंद्र शाह की ईमानदारी और बोलांदा बद्रीश का भावनात्मक झुकाव भले ही भाजपा की ओर हो लेकिन जीत टिहरी महारानी की होगी ऐसा कहना भी अभी जल्दबाजी होगा।
टिहरी संसदीय सीट के राजनीतिक रूख की अगर बात करें तो प्रदेश के राजनेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं के जुबां पर टिहरी की विकास की बातें सुनने को मिल रही है। हर पार्टी के नेता टिहरी में हुए विकास को अपनी उपलब्धि बता रहे हैं, लेकिन बांध प्रभावित प्रतापनगर, घनसाली विधानसभा की जनता की समस्याओं के निदान के लिए किसी भी नेता के पास कोई योजना नहीं है। विस्थापित लोगों की समस्याएं, पुनर्वास में हुए घोटाले और ना जाने कितने ही मुद्दों पर हर पार्टी के नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। कोई भी नेता दावे के साथ ये कहने को तैयार नहीं है कि टिहरी डूब जाने के बाद से एक अदद पुल का इंतजार कर रही प्रतापनगर की जनता को कब पुल का सुख मिलेगा। जबकि सभी पार्टियों के नेताओं को पता है कि प्रतापनगर के लिए पुल का बनना कितना जरूरी है। अगर आंकड़ों की बात की जाय तो अकेले घनसाली और प्रतापनगर विधानसभा के मतदाता हार और जीत की बाजी पटलने का मद्दा रखते हैं। यही भूल सत्तासीन कांग्रेस करने जा रही है और भाजपा इसका फायदा उठाने में लगी है। नतीजा ये है कि दोनों विधानसभा में कांग्रेस विरोधी लहर निकल पड़ी है।
खैर कांग्रेस और भाजपा अब सीधे तौर पर मैदान में उतर चुकी है। दोनों की दलों के बीच चुनावी टक्कर देखने को मिल रहा है। भाजपा प्रत्याशी टिहरी महारानी माला राजलक्ष्मी शाह पर ना सिर्फ टिहरी लोकसभा सीट जीत कर कमल खिलाने की जिम्मेदारी है बल्कि दोबारा इस संसदीय सीट पर राजपरिवार का वर्चस्व कायम की भी चुनौती है। तो वहीं कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को विजय बनाने में खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। हालांकि मुख्यमंत्री टिहरी लोकसभा सीट को जीतने का दावा कर रहे हैं, लेकिन तमाम झंझावतों, विरोधों के बाद भी क्या बहुगुणा परिवार अपने नए ढौर को बचाने में कामयाब हो पायेंगे या फिर राजपरिवार की बहू अपने किले में राजनीतिक सेंधमारी को इस बार उखाड़ फेंकेगी। खैर लोकतंत्र के इस चुनावी घाट पर फैसला जनता को करना है, लिहाजा टिहरी को सितारगंज समझना हवा का रूख मोड़ सकती है।

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