Saturday, December 22, 2012

दरिंदगी के दाग से देवभूमि भी है दागदार


प्रदीप थलवाल

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए गैंगरेप से समूचा देश सदमे में है। इस घटना के बाद लोगों के बीच जो प्रतिक्रिया आ रही है उससे साफ जाहिर होता है कि देश गुस्से में भी है। गैंगरेप के खिलाफ दिल्ली से लेकर आर्थिक राजधानी मुंबई तक लोग सड़कांे पर निकले, हवा में उछल रहे हाथों में जो तख्तियां लहरा रही थी, उसमें लिखे संदेशों से स्पष्ट था कि महिलाओं पर हो रहे अत्यचार किसी भी सूरत में मंजूर नहीं, ऐसे लोगों को भारतीय दंड संहिता में सीधे सजा-ए-मौत की लोग मांग कर रहे हैं।
ऐसा ही नजारा उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी दिखा, जहां विभिन्न संस्थानों के छात्र-छात्राएं,  सामाजिक और राजनीतिक संगठन भी सड़कों पर उतरा। दिल्ली के गुनहगारों को सजा-ए-मौत के नारे राजधानी की फिजाओं में तैर रहे हैं। ये लोग दिल्ली में हुए गैंगरेप पर अपना गुस्सा बयां कर रहे थे, ये गुस्सा जाजय भी है, बिडंबना देखिए कि दिल्ली की हवा के रूख में सभी बहे लेकिन किसी ने भी उत्तराखंड में हुए उन जघन्य अपराधों और अपराधियों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई, जिन अपराधों ने देवभूमि के दामन पर भी दरिंदगी के दाग लगाये।
ऋषि-मुनियों की तपस्थली और देवताओं की इस भूमि को भी दरिंदों ने कई बार घिनौनी हरकत से ना सिर्फ खून से लतपथ किया बल्कि कई मासूमों की जिंदगी को तबाह और बर्बाद की। चुप और  खामोश रहने वाले पहाड़ों में भी महिलाएं महफूज नहीं हैं, तो मैदानी और शहरी इलाकों के हाल इससे कई गुना ज्यादा खराब हैं, जहां महिलाएं घर से बाहर निकलते ही अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित रहती है। ये हालात उस पहाड़ी मुल्क में है जहां कभी घरों में ताले तक नहीं लगाये जाते हैं, पिछले दो दशक में ऐसा क्या घट गया कि अब लोगों को अपनी सुरक्षा की चिंता ज्यादा सताने लगी है।
खैर दिल्ली में हुई इस घटना को लेकर समूचे देश में हो हल्ला मचा हुआ है। लेकिन उत्तराखंड की बात करें तो यहां हुए कई जघन्य अपराधों के खिलाफ जनता क्यों मुखर नहीं हुई। देहरादून में हुए अंशू हत्याकांड को लेकर क्यों चुप्पी  साधी हुई है, कुमाऊं में गीता खोलिया प्रकरण ठंडे बस्ते में समा गया है। हरिद्वार में कविता हत्याकांड का हश्र क्या हुआ आप सब जानते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कितनी अंशू, कितनी गीता और कितनी कविताएं हैवनियत की शिकार होंगी।
इन के परिवार वालों से जरा पूछिये कि उनकी आत्मा क्या कहती होगी, हर रोज पुलिस दफ्तर पर अपनी फरियाद लेकर पहुंच जाते हैं, लेकिन अपराधी आज भी कानून के शिकंजे से दूर हैं। आखिर न्याय की देवी की आंखों से काली पट्टी हटेगी और कब इन लोगों न्याय मिलेगा।
जरा सोचिए क्या यह अपराध देश की राजधानी में हुआ और इसलिए ये ज्यादा बड़ा है, देवभूमि उत्तराखंड के दामन पर जिन जघन्य अपराधों के छींटे पड़े  क्या वो इसलिए भुला दिये जायेंगे कि वो एक पहाड़ी राज्य में हुए। ऐसा नहीं चलेगा! देवभूमि में हुए जघन्य अपराधों को लेकर क्या कोई सड़कों पर उतरा, क्या प्रदेश की विधानसभा में किसी ने भी उन मासूमों के लिए आवाज उठाई, जिनकी आवाज हवस की खातिर हमेशा के लिए फ़ना हो गई। लिहाजा अगर देश की राजधानी में हुए गैंगरेप पर समूचा देश में उबाल आता है तो फिर इन मासूमों के परिजनों को न्याय दिलाने की खातिर उत्तराखंड के लोग सड़कों पर क्यों नहीं उतर सकते?

Wednesday, December 12, 2012

नींद में है साडा



245 बीघे की जगह सिपर्फ 45 बीघा जमीन पर दिखी अवैध् प्लाॅटिंग

प्रदीप थलवाल
उत्तराखंड अलग प्रदेश क्या बना कि सूबे में एक नई किस्म की प्रजाति भी पैदा हुई। ये प्रजाति किसी रसायन या भौतिक प्रक्रिया से नहीं बल्कि सरकारी तंत्र की कमजोरी से जन्मी, जिसे खाद-पानी देने का काम हमारे माननीय नेताओं ने किया। आलम यह है कि आज के समय में यह प्रजाति प्रदेश को चट करने में लगी हुई है। इन्हीं में एक भू-माफियाओं की प्रजाति भी है जिसकी गि( जैसी नजरें प्रदेश की जमीन पर लगी हुई है।
चमोली से लेकर चंपावत, उत्तरकाशी से लेकर ऊधमसिंह नगर , टिहरी से लेकर टनकपुर और देहरादून से लेकर नैनीताल सहित समूचे प्रदेश में भू-माफियाओं का गिरोह इस काम में जुटा है।  हर जगह प्रदेश  की जमीन को हड़पकर भूमाफिया बेच रहे  हैं। खरीद-फरोख्त का यह धंधा दिन दूनी और रात चैगुनी तरक्की कर रह है। यही वजह है कि इस ध्ंाधे में जो भी लोग आये उन्होंने ना सिर्फ मोटा पैसा कमाया बल्कि सरकार और शासन में भी अपनी धाक जमायी। समय के साथ-साथ  भू-माफियाओं का राज और डर प्रदेश में इस कदर बढ़ गया जैसे कि अंधकार में किसी दैत्य का। जिसकी परछाई मात्र से ही लोग सहम जाते हैं।
समूचे प्रदेश में भू-माफियाओं ने ना सिर्फ सरकारी जमीनों पर कब्जा जमाया हुआ है बल्कि कृषि भूमि का बिना लैंड यूज चेंज किये उसे बेच भी रहे  हैं। प्रदेश में जमीनों की खरीद-फरोख्त का सूचकांक हर रोज कुलांछे भर रहा है लेकिन सरकार से लेकर शासन और प्रशासन के एक भी नुमाइंदे ने सूबे में हो रही भूमि की अवैध खरीदारी पर सावल नहीं उठाये। इसकी वजह यह भी बताई जा रही है कि इस धंधे में खुद प्रदेश के हुक्मरान शामिल हैं, ऐसे में भू-माफियाओं पर कार्रवाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
जमीन की खरीद फरोख्त का सिलसिला राजधानी में भी बदस्तूर जारी है। स्थिति ये है कि राजधानी और इससे सटे इलाकों में जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी जमीनों की खरीददारी पर अंकुश नहीं लग रहा है कभी बासमती की खुशबू और लीची की मिठास के लिए पहचान रखने वाले दून से यह दोनों ही चीज गयाब हो गई है। आम के बागान चैपट हो गये हैं। भू-माफियाओं के हाथों विकासनगर बिक रहा है, लेकिन आला-अफसरों के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है। विकासनगर में कई आम और लीची के बागन कंक्रीट के जंगल की भेंट चढ़  गये हैं  लेकिन इसके बावजूद भी प्रशासन ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया।
जबकि देहरादून से सटे  आसपास के क्षेत्र की देख-रेख के लिए बकायदा दूनघाटी विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इस प्राधिकरण पर क्षेत्र की निगरानी रखने की जिम्मेदारी है।  लेकिन आरामपरस्त असफरों की कार्यशैली का फायदा उठा भू-माफियाओं ने ना सिर्फ सरकारी जमीनों बल्कि बागानों  पर अवैध प्लाटिंग कर बेच दिया है। जबकि प्रदेश के भू-कानून के अनुसार किसी भी कृषि योग्य जमीन को बिना लैंड यूज चेंज किये उसकी प्लाटिंग नहीं की जा सकती है। बावजूद इसके विकासनगर के हरबर्टपुर, परगना पछवादून  स्थित वंशीपुर गांव में इस कानून का भू-माफियाओं ने जमकर उल्लंघन किया।  कहते हैं कुंभकर्ण भी सिर्फ छः महीने ही सोता था मगर ताज्जुब की बात है कि साडा नाम का प्राधिकरण उक्त प्रकरण में पिछले सात साल से सोया हुआ ही है। आरटीआई का रणसिंघा उसे जगाने की कोशिश करता है लेकिन साडा उनींदी हालत में ही नोटिस भेजकर फिर से सो जाता है।  बंशीपुर के बाग प्रकरण पर आरटीआई के तहत ली गई जानकारी के अनुसार प्राधिकरण को सिर्फ 45 बीघा जमीन पर अवैध प्लाटिंग नजर आयी, जबकि भू-माफियाओं द्वारा 245 बीघा जमीन पर प्लाटिंग की गई है। प्राधिकरण द्वारा आरटीआई के तहत जानकारी दी गई है कि अमुक बागान के 45 बीघा जमीन पर  भू-उपविभाजन के विरू( लक्ष्मी नारायण, रमेश नारायण, हृदय नारायण, बिदुर नारायण, आखिलेश नारायण और जनार्दन को कारण बताओ एवं विकास कार्य रोको नोटिस निर्गत किया है। जो कि 17 जनवरी 2005 को भेजा गया। इसके साथ ही प्राधिकरण सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देता है कि उसने 27 सितंबर 2012 को 11 बजे तक अपने कार्यालय में हाजिर होकर भू-स्वामी को अपने पक्ष में बात रखने का नोटिस दिया था। ऐसे में प्राधिकरण पर सवाल उठता है कि साल 2005 से अब तक उसने इस प्रकरण में क्या कार्यवाही की?  आखिर इतने जिम्मेदार प्राधिकरण के अफसर कहां सोये रहे। आखिर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगे जाने के बाद ही प्राधिकरण ने उक्त भू-स्वामी को अपने पक्ष रखने की याद क्यों दिलायी? आखिर क्यों प्राधिकरण अवैध निर्माण के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने से हिचकिचा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भू-माफियाओं के तार सीधे साडा से जुडे हों, इसीलिए पिछले सात साल तक प्राधिकरण ने इस ओर कार्यवाही करना उचित नहीं समझा हो।
वहीं दूसरी ओर दूनघाटी विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण की कार्यप्रणाली पर एक और प्रकरण सवाल उठाता है। ये मामला भी विकासनगर का है, जिसमें जीवनगढ़ गांव लगभग 153 बीघा जमीन पर भू-उपविभाजन और  भू-खंड पर विकास कार्य किया जा रहा है। लेकिन प्राधिकरण को इससे कोई सरोकार नहीं है। हालांकि प्राधिकरण ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी दी कि उसने 11 जून 2007 को भू-स्वामी को नोटिस दिया था और उसे अपना पक्ष रखने को कहा गया था। ताज्जुब की बात है कि इसके बाद भी यहां प्लाटिंग का कार्य जोरों पर है।
इन दो प्रकरणों से साफ होता है कि दून घाटी में भू-माफियाओं का कितना दबदबा है। जमीनों की खरीद-फरोख्त में लिप्त भू-माफियाओं को ना तो कानून का डर  है और ना ही प्रशासन का खौफ। यही वजह है कि सूबे में भू-माफिया निश्चिंत हैं। क्योंकि उसे भय दिखाने वाले प्रशानिक अधिकारी से लेकर नेता उसकी मुट्ठी में हैं। सवाल उठता है कि  क्या सरकार इन तथ्यों से बेखबर हैं? उसके अफसर क्या गुल खिला रहे हैं और उन्हें किस नेता का संरक्षण प्राप्त है या यूं कहें यह नेता-अफसर-माफिया जोड़ है, जो आसानी से नहीं टूटेगा। सबसे गंभीर और खतरनाक यह जोड़ है जिसे प्रदेश की जनता को समझ लेना चाहिए। जिस जमीन के लिए जनता ने लड़ाई लडी उसे बचाने के लिए उन्हें दूसरा आंदोलन भी न लड़ना पड़े।

कहीं किस्सा कुर्सी का तो नही!



चड्डा बंधु हत्याकांड की जांच दिल्ली क्राइम ब्रांच कर रही है और यह बात भी सामने आ रही है कि इस हाईप्रोफाइल हत्याकांड के दौरान उत्तराखंड का एक आईएएस अफसर भी छतरपुर में मौजूद था।  अगर सच में उत्तराखंड का कोई आईएएस अफसर छतरपुर में था तो यह कैसे संभव है कि दिल्ली पुलिस ने उस कथित आईएएस से कोई पूछताछ नहीं की और ना ही उत्तराखंड सरकार या पुलिस को किसी आईएएस के वहां होने की पुष्टि करी।  जहां आज के टैक्नालाॅजी के युग में कौन आदमी कहां है उसकी लोकेशन खंगालना दिल्ली पुलिस के बांए हाथ का काम है। मगर आजतक उत्तराखंड के किसी आईएएस के छतरपुर में मौजूद होने का कोई सबूत सामने नहीं आ पाया है।
दूसरी ओर उत्तराखंड में अगले मुख्य सचिव पद की लड़ाई भी अंदरखाने चल रही है। अभी से रास्ता साफ किया जा रहा है, कहीं यह खबर कि उत्तराखंड का एक सीनियर आईएएस वहां मौजूद था यह भी अपने चहेते खबरनबीसों के माध्यम से हव्वा तो नहीं बनाया जा रहा है?सूत्रों की मानें तो छतरपुर में हत्याकांड के समय उत्तराखंड का कोई अधिकारी मौजूद नहीं था, इसके बावजूद बड़ी सूझबूझ और रणनीति के तहत यह खबर आग की तरह फैली। वहीं दूसरी ओर रेव पार्टी में एक आईपीएस का नाम घसीटा जाना भी पुलिस महकमें में साजिश के तहत देखा जा रहा है। इन दोनों प्रकरणों को देख कर एक पहलू यह भी निकल कर सामने आ रहा है कि माफिया तंत्र अपने हितैशी अधिकारियों और खबरनबीसों के जरिए मुख्यमंत्री पर  भी निशाना साधने की तैयारी में तो नहीं है। अगर  ऐसा है तो इसकी पुष्टि आने वाले दिनों में जरूर होगी।

देवभूमि की छाती पर, माफिया के गमबूट




चड्डा हत्याकांड से लेकर रेव पार्टी तक

देवभूमि उत्तराखंड का शायद चरित्र बदल रहा है! जिन  आला अफसरों को तरक्की की तस्वीर बनानी चाहिए उन अफसरों का नाम राज्य के लिहाज से जधन्य कांडों में उछल रहा है। किसी का नाम हत्याकांड की कड़ी बन रहा है तो किसी का नाम नशीली महफिलों का लुत्फ लूटने वालों में शामिल हो रहा है। जिन बदनाम धंधों से माफिया के ताल्लुकात होते हैं वहां राज्य के अफसरों के नाम तलाशे जा रहे हैं। पौंटी हत्याकांड के छीटे हों या रेव पार्टी के दाग, अगर राज्य के अफसर के दामन पर तलाशे जा रहे हैं तो सवाल उठना लाजिमी है आखिर अफसरों के नाम कौन उछाल रहा है ?उन्ही की बिरादरी, या राज्य में सक्रिय माफिया ? ये सच है ! या साजिश ! देवभूमि की मासूम जनता के सामने ये यक्ष प्रश्न बन गया है।

सीन एक शूटआउट ऐट छतरपुर,  लिकर किंग और माफियाओं का बेताज बादशाह पौंटी चड्डा  और उसके भाई हरदीप सिंह चड्डा की आपसी रंजिश से मौत। ये खबर आते ही पूरे उत्तरी भारत में सनसनी पसर गई । यकायक आयी इस खबर पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। लेकिन मीडिया में छाने के बाद सबको यकीन हो गया कि लिकर किंग नहीं रहा। शुरूआत में इस दोहरे हत्याकांड के लिए जिम्मेदार दोनों भाईयों के बीच संपत्ति विवाद को करार दिया गया। लेेकिन इस बीच सुखदेव सिंह नामधारी का नाम आने से मामले ने दूसरा मोड़ लिया। नामधारी का कनेक्शन सीधे भगवाधारियों से है और इस दोहरे हत्याकांड से पहले नामधारी के सीने पर उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष का बिल्ला भी टंगा हुआ था।
इस प्रकरण में नामधारी का नाम आने से जहां उत्तराखंड सरकार की सांसे फूली वहीं भाजपा और संघ सहित तात्कालीन सीएम की जान भी अटक गयी जिन्हांेने नामधारी को आयोग का पद सौंपा। किसी से भी जबाव देते नहीं बना कि आखिर प्रदेश के एक सम्मानित पद पर आसीन नामधारी शूटआउट ऐट छतरपुर की घटना के दौरान वहां क्या कर रहा था?
राष्ट्रीय मीडिया में लगातार खबरों के प्रसारण के बाद सरकार ने सुखदेव सिंह नामधारी को पदमुक्त कर दिया। दूसरी ओर भाजपा ने भी समय को भांपते हुए नामधारी की पार्टी से प्राथमिक सदस्यता खत्म कर उससे किनारे होने में अपनी भलाई समझी। इतना ही नहीं नामधारी ने हत्याकांड के तुरंत बाद उत्तराखंड के दो नेताओं और एक अधिकारी से फोन पर बात की, क्या जनता कभी इन नमों को जान पाएगी? शुटआउट ऐट छतरपुर की जांच में जुटी दिल्ली पुलिस सूबतों के आधार पर सुखदेव सिंह नामधारी और उसके गनर सचिन त्यागी को गिरफ्तार कर उनसे पूछताछ कर रही है।
इस पूरे  घटनाक्रम के दौरान उत्तराखंड सहित राष्ट्रीय मीडिया में एक और खबर आती है कि शूटआउट ऐट छतरपुर से उत्तराखंड के एक आईएएस अफसर के तार भी जुडे़ हैं। इस खबर से अमूमन शंात माने जाने वाले राज्य की नौकरशाही में खलबली मच गई है। सवाल उठ रहा है पौंटी हत्याकांड से प्रदेश के वरिष्ठ आईएएस अफसर का क्या नाता है ? खबरें तो यह भी कहती हैं कि अफसर भी वंहा मौजूद था सवाल है आखिर बदनाम धंधे के सौदागर से व्हाइटकाॅलर जाॅब करने वाले अफसर का क्या ताल्लुक था आखिर वह वहां क्या करने गया था? अगर खबर में रत्ती भर भी सच्चाई है तो पूछना जायज है आखिर पोंटी से अफसर का क्या रिश्ता था ?
सीन दो, तरक्की के साथ कदमताल कर रहा देहरादून अब आधुनिकता के अंधे गलियारे की ओर बेहिसाब दौड़ रहा है। यही वजह है कि मठ-मंदिरों की जमीन पर अब ढोल-नगाड़ों का मंडाण नहीं लगता बल्कि पश्चिम की अधनंगी संस्कृति नशे में थिरकती हुई दिखती है। रेस्तरां और नाइट क्लब खुल रहे हैं, अमूमन आठ बजे के बाद सन्नाटे में पसरे रहने वाले दून की रातंे अब विभिन्न प्रकार की रंगीन लाइटों और डीजे के संगीत में मदमस्त हैं, जहां जवानी का जोश अपने उबाल के चरम सीमा पर  रहता है और बेपरवाह काया बिन पेंदे के लोटे की तरह कहीं भी लुडक जाती है। कानून के नजारिये ये अपराध है लेकिन दून की शांत वादियों में कानून का कड़ा मिजाज पर भी शायद नाइट क्लब का नशा तारी है। हाल ही में दून पुलिस ने राजपुर रोड़ स्थित एक नाइट क्लब पर छापा मारा जहां रेव पार्टी चल रही थी। छापे के दौरान कई युवक-युवतियों को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया। कुलीन वर्ग के इन युवाओं पर देवभूमि की खाकी ने सख्ती ना दिखा कर उन्हें थाने की दहलीज पर ही जमानत पर छोड़ दिया। लेकिन इस पूरे  घटनाक्रम के दौरान एक और खबर बांउसर की तरह उछल जाती है कि रेव पार्टी के दौरान राज्य के अफसर भी मौजूद थे।
लेकिन सवाल उठता है कि ये खबर कैसे लीक हुई? क्या ये खबर आइपीएस बिरादरी ने उड़वाई है। या फिर इसके पीछे कोई ऐसा चेहरा या बिरादरी है जिसकी मंशा अपनी अधूरी हसरतों को पूरा करने की है।
इस जटिल गुत्थी को भले कोई समझे या ना समझे लेकिन पुलिस प्रशासन बखूबी समझता हैै। सूत्रों की मानें तो जिस आईपीएस अफसर का नाम रेव पार्टी में घसीटा जा रहा है उसकी कार्यशैली से देवभूमि के दामन को दागदार करने वाले माफिया गिरोह भी परेशान हैं। क्योंकि उस अफसर पर न तो माफिया की चकाचैंध का असर होता है न उसकी दबंगई का । इतना ही नहीं माना तो ये भी जाता है कि उस अफसर पर राज्य के  नेताओं का बस भी नहीं चलता।
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि रेव पार्टी में जो अफसर मौजूद थे, उन्होंने  ही इस अफसर को षड़यंत्र के तहत रेव पार्टी में बुलाया हो, ताकि उक्त अफसर का दामन दागदार हो जाए । सूत्रों के मुताबिक माफिया की आंखों की किरकिरी बने इस आईपीएस अफसर को माफिया ठिकाने लगाने में तुले हैं और उसकी जगह एक ऐसे अफसर को बिठाने की जुगत में लगे हैं जो पूर्व में भी दून की कमान संभाल चुका है। खबरें  तो यह भी कहती हैं कि राज्य में सक्रिय माफिया चाहता है कि पुलिस प्रशासन में उच्च स्तरीय पदों पर कोई पहाड़ी अफसर ना बैठे क्योंकि इससे उन्हें काफी नुकसान पहुंचता है और पहाड़ी अफसर के पहाड़ जैसे मजबूत हौंसलों से माफिया के मन मुताबिक काम नहीं होते हैं।
यही वजह है कि बड़े पदों पर माफिया तंत्र अपने चहेते अफसरों के लिए धनबल का खूब इस्तेमाल करते हैं। जानकार लोग इसे हाल ही में पुलिस प्रशासन द्वारा किये गये पुलिस अधिकारियों की अदला-बदली के रूप में देखते हैं। इसके साथ ही अंदेशा जताते हैं कि माफिया तंत्र इस काम को अंजाम देने के लिए कार्पोरेट की समझ रखने वाले आदमी पर दांव खेल रहे हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि कैसे काम किया जाना है लिहाजा निशाना सटीक जगह लगाना जरूरी है।
इस मामले में कुछ हद तक माफिया सफल भी हुए हैं।  इतना ही नहीं माफिया तंत्र जानता है कि मीडिया की भूमिका सबसे अहम रहती है, ऐसे में कुछ पत्रकारों पर माफियाओं ने अपनी कृपा दृष्टि बनाई हुई है। जानकार बताते हैं कि इसमें ऐसी प्रजाति  के पत्रकार है जिनका प्रदेश के सरोकारों से कोई नाता नहीं है और पत्रकारिता उनके लिए महज रोजी रोटी कमाने का जरिया है। बावजूद इसके उनका सिक्का न सिर्फ सरकार और शासन में चलता है बल्कि ये लोग अपने तरीके से मीडिया का हव्वा बनाकर अपने और सौंपे गए काम को अंजाम भी दे देते हैं। पत्रकारों के इस गुट में अधिकांशतः पश्चिमी यूपी के लोग शामिल हैं।
खैर पूरे प्रकरण को देखकर लगता है कि इस समूचे प्रदेश में माफिया राज चल रहा है। सरकार और शासन माफियाओं के आगे नतमस्तक है। पुलिस से लेकर शासन-प्रशासन और मीडिया से लेकर सरकार में दखल होने के कारण माफिया अपने अनुसार देवभूमि की छाती को रौंद रहे हैं और प्रदेश की नीतियों को अपने माफिक तोड़ मरोड रहे हैं ।  सूबे में उच्च पदों पर अपने चहेतों को फिट कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये खबर कोई और उछाल रहा है माना जा रहा है कि इस खबर के पीछे अधिकारियों की बिरादरी के ही वो विभीषण हैं जिनके माफिया से ताल्लुक हैं।  क्योंकि ये आईपीएस अफसर माफियाओं की आंखों की किरकिरी बना हुआ है साथ इस पर पहाड़ी होने का तमगा भी लगा हुआ है। जबकि दूसरी ओर माफिया दून का किला फतह करना चाहते हैं और बड़े शातिर तरीके से इसे अंजाम भी दिया जा रहा है।
बहरहाल सच जो भी इसका खुलासा तकनीक के इस दौर में  जल्द हो जाएगा लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर देवभूमि की छाती को माफिया का गमबूट अपने चमचे नौकरशाहों, नेताओं और गैरमुल्की खबरों के ठेकेदारों की बदौलत कब तक रौंदता रहेगा?  माफियाओं ने अपनी कृपा दृष्टि बनाई हुई है। जानकार बताते हैं कि इसमें ऐसी प्रजाति  के पत्रकार है जिनका प्रदेश के सरोकारों से कोई नाता नहीं है और पत्रकारिता उनके लिए महज रोजी रोटी कमाने का जरिया है। बावजूद इसके उनका सिक्का न सिर्फ सरकार और शासन में चलता है बल्कि ये लोग अपने तरीके से मीडिया का हव्वा बनाकर अपने ओर सौंपे गए काम को अंजाम भी दे देते हैं। पत्रकारों के इस गुट में अधिकांशतः पश्चिमी यूपी के लोग शामिल हैं।
खैर पूरे प्रकरण को देखकर लगता है कि इस समूचे प्रदेश में माफिया राज चल रहा है। सरकार और शासन माफियाओं के आगे नतमस्तक है। पुलिस से लेकर शासन-प्रशासन और मीडिया से लेकर सरकार में दखल होने के कारण माफिया अपने अनुसार देवभूमि की छाती को रौंद रहे हैं और प्रदेश की नीतियों को अपने माफिक तोड़ मरोड रहे हैं ।  सूबे में उच्च पदों पर अपने चहेतों को फिट कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये खबर कोई और उछाल रहा है माना जा रहा है कि इस खबर के पीछे अधिकारियों की बिरादरी के ही वो विभीषण हैं जिनके माफिया से ताल्लुक हैं।  क्योंकि ये आईपीएस अफसर माफियाओं की आंखों की किरकिरी बना हुआ है साथ इस पर पहाड़ी होने का तमगा भी लगा हुआ है। जबकि दूसरी ओर माफिया दून का किला फतह करना चाहते हैं और बड़े शातिर तरीके से इसे अंजाम भी दिया जा रहा है।
बहरहाल सच जो भी हो इसका खुलासा तकनीक के इस दौर में  जल्द हो जाएगा लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर देवभूमि की छाती को माफिया का गमबूट अपने चमचे नौकरशाहों, नेताओं और गैरमुल्की खबरों के ठेकेदारों की बदौलत कब तक रौंदता रहेगा?

Friday, November 23, 2012

खात्मे की ओर पहाड़ी राज्य का बुनियादी मकसद




उत्तराखंड का जिक्र आते ही मनोमस्तिष्क में एक पहाडी राज्य का खाका खींच जाता है। ऐसा राज्य जिसे कुदरत ने अपार सुंदरता दी, ऐसा राज्य जो नदियों के संगीत से हर रोज नहाता है। ऐसा राज्य जहां लोगों के चेहरों पर मसूमियत झलकती है। ऐसा राज्य जिसके अंदर देश भक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा है और देश के स्वाभिमान के लिए जिस प्रदेश के युवाओं ने अपनी जान की बाजी लगाई हो। वहीं काले-कूलेटे और नंग-धडंग पहाड़ों वाला प्रदेश अपने बाल्यकाल के बारह साल पूरा कर चुका है। लेकिन जिस मुकाम पर आज ये पहाड़ी प्रदेश है, वहां से राज्य बनने का बुनियादी मकसद गायब नजर आता है। यहां के लोग ऐसे पहाड़ी राज्य के लिए नहीं लड़े थे बल्कि पहाड़ी लोगों की नियति बदलने और मैदानी चश्मे से देखे जाने वाली सरकारी नीति के खिलाफ  आंदोलन लड़ा गया था। लेकिन बिडंबना देखिए कि राज्य गठन के बारह साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ उलटे इस प्रदेश में राज करने वाली राजनीतिक पार्टियों का फोकस पहाड़ के बजाय देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर पर रहा। विकास की ज्यादा से ज्यादा योजनाएं इन्हीं तीनों जनपदों में सिमट कर रह गई। पहाड़ से पलायन नहीं थम रहा है। बल्कि राज्य बनने के बाद पहाड़ से लोगों के पलायन करने का ग्राफ ज्यादा बढ़ा। हालत ये हैं कि कई गांव जन-विहीन हो चुके हैं। लेकिन किसी भी सरकार ने पलायन को रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई। टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक में सबसे ज्यादा पलायन हुआ, इतना पलायन शायद ही आजाद भारत में कहीं हुआ हो, इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हुए पलायन के बावजूद भी राज्य सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो प्रदेश के सीमान्त गांवों हो रहा पलायन भारी खतरे की ओर इशारा कर रहा है। प्रदेश की सीमाएं चीन और नेपाल से लगी होनेे से सीमावर्ती क्षेत्रों से पलायन सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है। पहाड़ी इलाकों और सीमावार्ती क्षेत्रों से हो रहा पलायन इंगित करता है कि हमारी सरकारों आर्थिक वहज पैदा करने में अक्षम रही है। जिससे पहाड़ का आदमी अपने गांव या कस्बे से पलायन करने को मजबूर है। पहाड़ों का विकास करने का दावा करने वाली यहां की अब तक की सरकारों ने प्रदेश के पहाड़ों को जोड़ने के लिए कोई काम नहीं किया। सूबे में सभी राष्ट्रीय राजमार्ग यूपी के जामने के हैं और से राजमार्ग मैदान को पहाड़ से जोड़ते है ना कि पहाड़ को पहाड़ से। आज तक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा कि वो पहाड़ी जिलों को आपास में जोड़े। सरकार के उदासीन रवैये से साफ होता है कि पहाड़ी राज्य की चिंता किसी को नहीं है। कोई पहाड़ के विकास के बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाता। जब तक सोच दिल्ली की रहेगी। तब तक इस राज्य में कुछ भी नहीं हो पायेगा। कृषि, बागवानी, पर्यटन के मामले में हम एक कदम आगे भी नहीं बढ़ पाये। सरकारें दावे तो खूब करती है कि लेकिन उस पर अमल कभी भी नहीं करती। सूबे की समूची नौकरशाही मैदानी सोच की है, सचिवालय में काम के नाम पर फाइले इधर-उधर जरूर होती है लेकिन बुनियादी चीजों पर कोई भी नौकरशाह फैसले नहीं लेता। राज्य के प्रति सोच रखने वाले चिंतक, विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और समाजिक कार्यकर्ताओं को कोई पूछता नहीं है। उनसे विकास योजनाओं को लेकर कोई राय ही नहीं लेता। शायद ये इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जो इस प्रदेश की विकास योजना तय कर रहे हैं उन्हें यहां के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भूगोल की समझ ही नहीं है। ऐसे में आप कैसे पहाड़ के विकास की सोच सकते हैं। जब नेता अनुभव हीन हो और नौकरशाह अपने सहूलियत के हिसाब से योजनाएं तय कर रहे हो तो इस राज्य का भविष्य क्या होगा, और आप समझ सकते हैं कि इस प्रदेश का बुनियादी मकसद क्यों खत्म होते जा रहे हैं।

उत्तराखंड को एक नए जनांदोलन की दरकार



9 नवंबर 2000, ये वो दिन था जिस दिन, उत्तराखंड के आसमान में उम्मीदों की पतंग तैर रही थी, रंग-बिरंगे सपनों से सजी ये पतंग आसमान की ऊंचाई को भेद रही थी। उत्तराखंड का समाज नए राज्य मिलने से इतना खुश था कि राज्य के प्रति उसकी उम्मीदों का ग्राफ भी दोगुना हो चला था। राज्य गठन की खबर पहाड़ों में रोडियो के माध्यम से सुनी गई थी, तो अगले दिन अपने उत्तराखंड का आकार और प्रकार अखबारों की चौखट के भीतर छपा हुआ पाया।
नए राज्य की अकुलाहट से समूचा उत्तराखंड नए उत्साह से लैस था। बच्चे, बूढ़ों से लेकर महिलाएं नए उत्तराखंड की कल्पानाओं का खाका आपस में बुन रही थी। युवाओं के सपनों का उत्तराखंड बेरोजगार मुक्त प्रदेश था, यही वजह थी कि उनके जेहन में कैद शिक्षित और सभ्य समाज बनने का सपना हिलोरे मार रहा था। पलायन की पीड़ा की मार झेल रहे गांव में नई रौनक और युवाओं की चहल-पहल का इंतजार बूढ़ी और धुंधली पड़ रही नजरांें ने करना शुरू कर दिया था।
प्रदेश की महिलाओं ने जिस उत्तराखंड के लिए लड़ाई लड़ी थी, आज वो भी अपने सपनों को पूरा होता देख रही थी, काम के बोझ से भी वो मुक्त होना चाहती थी, वो भी अपने समाज में हाशिये पर नहीं बल्कि मुख्यधारा में शामिल होना चाहती थी। उत्तराखंड के विकास के लिए उनके अंदर जो छटपटाहट थी, उसके साकार होने की उम्मीद नजर आने लगी थी।
लेकिन अफसोस कि नियति को शायद ये कभी मंजूर नहीं था, और ना ही उन लोगों ने राज्य के प्रति कोई ठोस सकारात्मक पहल की जो इस प्रदेश के भाग्य-विधाता बनाये गये। इस प्रदेश की किस्मत का फैसला तो उसी दिन तय हो चुका था, जब सूबे की अंतरिम सरकार और इस मुल्क के पहले मुखिया ने प्रदेश का पहला शासनादेश निकाला। इस शासनादेश में राज्य की जो नींव रखी गई, उससे इस प्रदेश की अवधारणा ही खत्म होती है। जबकि इसके उलट छत्तीसगढ़ ने अपने पहले शासनादेश में अपने मूल निवासियों की पैरवी की।
 इसे बिडंबना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे कि वहां भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और यहां भी, लेकिन यहां के राजनेताओं ने जो शासनादेश जारी किया उसे पहाड़ी बुद्धिजीवी, चिंतक, सम्मान पा चुके आंदोलनकारी और गुमनामी के अंधेरे में खो चुका आंदोलनकारी तबका अंतरिम सरकार की अपरिपक्वता मानता है और राज्य में एक नए जनांदोलन की गुंजाइश देख रहा है।
इस माटी के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी प्रदेश की हालत को देखकर उदास हैं। उनकी उदासी से साफ झलकता है कि सपनों का प्रदेश अभी कोसों दूर है। नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि बारह साल किसी प्रदेश के लिए कम नहीं हेाता है। लेकिन बारह साल के सफर में जो तकलीफ जनता महसूस कर रही है, उससे उसके अंदर आक्रोश गहराता जा रहा है। जनता में पनप रहा असंतोष एक दिन जरूर जनांदोलन का रूप लेगा। हम अंधेरे में रहें ऐसा नहीं हो सकता। बारह साल का सफर बता रहा है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं। अगर हममें राज करने की सामर्थ्य नहीं है तो हमें गुलाम बना दिया जाय।
 नेगी कहते हैं कि इतिहास हमेशा गवाह रहा है कि बिना छीने-झपटे अपना हक नहीं लिया जा सकता। लिहाजा उत्तराखंड में भी एक बडे़ जनांदोलन की खदबदाहट अभी से सुनाई देने लगी है। उत्तराखंड के भाग्य में तो हमेशा आंदोलन ही लिखा है, यहां हर छोटी-बड़ी मांग के लिए लोगों को अपने घर की दहलील लांघनी पड़ी, तब जाकर लोगों ने अपना हक पाया है। प्रदेश की वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए एक नए आंदोलन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसे में सरकार के नुमाइंदांे को भी अपनी सोच बदली होगी, स्थानीय लोगों की भावना का ख्याल रखना होगा। अगर नीति नियंताआंे ने प्रदेश के प्रति अपनी सोच नहीं बदली तो जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।
उत्तराखंड के बारे में जनकवि अतुल शर्मा कहते हैं कि बारह साल बाद मैं इस राज्य में एक और जनांदोलन की गुंजाइश देखता हूं। यहां सत्ता बदलती है, लेकिन व्यवस्था नहीं। 12 साल के दौरान महिलाओं की पीठ का बोझ कम नहीं हुआ। इस राज्य अब तक की सरकारें कोई ठोस नीति नहीं बना पायी। राज्य तो मिला लेकिन सपने आज भी सपने रह गये। इस पृथक राज्य की अवधारणा पांच ‘प’ को लेकर थी। पानी, पलायन, पर्यटन, पर्यावरण और पहचान। इन पांचों ‘प’ को लेकर पिछले बारह साल में क्या हुआ आप देख सकते हैं। व्यवस्था की नीति और नियत साफ न होना इसका कारण है। जो तकलीफ में है उनसे मिलकर नीतियां नहीं बन रही है। अभी गांव व्यवस्था की पकड़ से दूर हैं। इसीलिए ग्राम स्तर से व्यवस्था के खिलाफ जनाक्रोश भड़क रहा है। एक सुबह जरूरी आयेगी जब युवा समझेगा कि उसके हक-हकूकों पर डाका डाला जा रहा है। वो निश्चित विद्रोह करेगा, वो उठ खड़ा होगा अपने हक की खातिर और उसी दिन इस प्रदेश में एक दूसरे जनांदोलन का सूत्रपात होगा। तुम याद रखना-
                             एक दिन नई सुबह उगेगी यहां देखना, दर्द भरी रात भी कटेगी यहां देखना

चौराहे पर उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें



उत्तराखंड की आने वाली पीढ़ी जब इतिहास के पन्नों को पलटेगी, तो उन्हें शायद ही यकीन नहीं होगा कि, उत्तराखंड एक जनांदोलन की कोख से पैदा हुआ राज्य है। ऐसा आंदोलन आजाद भारत के इतिहास में शायद ही कभी हुआ होगा, जिसका अपना कोई ना नेता था और ना ही नेतृत्व। इस जनांदोलन में हर कोई शामिल था और हर किसी का एक ही मकसद था ‘अपना राज्य हो, अपना राज हो’। यही वजह थी कि सपनों के प्रदेश को साकार करने के लिए इस आंदोलन में लुका-छिपी का खेल खेलने वाले बच्चे थे, तो कांपती हुई काया में जवानी का जोश लिए बुजुर्ग, घर-आंगन की जिम्मेदारी संभालने वाली महिलाएं थी, तो नौकरी की खातिर अपने समाज से दूर परदेश गया युवा, यहां तक की सरकार के मुलाजिम होने के बाद भी पहाड़ के सैकड़ों बेटों ने अपने फौलादी हौंसला दिखाकर नौकरी की परवाह किये बिना आंदोलन में शामिल हुए और पहाड़ की आवाज को बुलंद किया। माटी का मान और अपनों के सम्मान के लिए भड़की एक चिंगारी ने कब जनांदोलन का रूप लिया किसी को भी पता नहीं चला।
ये वो दौर था, जब दुनियां नई सदी की शुरूआत में नई संभावनएं तलाशने में व्यस्त थी, लेकिन तब उत्तराखंड का पहाड़ी समाज अपने हक-हकूकों के लिए छटपटा रहा था, और यही छटपटाहट उत्तराखंड राज्य आंदोलन की क्रांति का बीज साबित हुआ। जल, जंगल, जमीन और जवान के बुनियाद मुद्दे को लेकर लड़े गये इस आंदोलन का नेतृत्व किसी एक के हाथ में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद भी राज्य अंादोलन के नाम पर अपने घरों तक सीमित लोगों ने मुंडेरों को लांघ कर सड़कों पर आवाज बुलंद की। तब धार से लेकर गाड़, गली-मोहल्लों और सड़कों से लेकर सर्पीली पगडंडियों हर जगह आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो जैसे नारे सुनाई पड़ते थे। गजब देखिए कि राज्य आंदोलन के दौरान कई संगठनों ने जरूर भागदारी निभाई, जिनकी एक ही आवाज पर लोग अपना काम छोड़ आंदोलन में शामिल होते थे, लेकिन अफसोस कि आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें चौराहे पर खड़ी है। जबकि राज्य की मौजूदा हालात में उन ताकतों को एक ही मंच पर खड़ा न होने की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। हालात ये हैं कि जिन मुट्ठियों ने राज्य के सरोकारों के लिए एक जुट होकर हवा में लहराना था आज वो बिखरी हुई उंगलियां बन गई हैं। उत्तराखंड आंदोलन की ये ताकतें बैचेन हैं, उन्हें अफसोस है कि कभी अलग राज्य को लेकर वो एक आवाज पर एकजुट हो जाया करती थी लेकिन आज मूल मुद्दों से भटक जाने की बेचैनी उन्हें सताये जा रही है।


राज्य गठन के बाद उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतें बिखरी पड़ी हैं। राज्य आंदोलन में भागीदार संगठनों और पर्टियों के इस बिखराव का कारण कुछ संगठनों का मकसद सिर्फ उत्तराखंड राज्य का निर्माण था, राज्य मिला और उनका उत्तरदायित्व खत्म हो गया। लेकिन जिस राज्य के स्वरूप की कल्पना की गई थी जिसके लिए लड़ाई लड़ी गई थी, वह सपना आज भी अधूरा है। जो आज तक स्थाई राजधानी का चयन नहीं कर पाये, वो इस प्रदेश का क्या विकास करेंगे। लिहाजा आंदोलन की ताकतों को एकजुट होना चाहिए।
- कमला पंत, अध्यक्ष, उत्तराखंड महिला मंच



निजी स्वार्थ और नफा-नुकसान की सोच की वहज से आज उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ताकतों चौराहे पर है। जिसकी वहज से उन लोगों ने फायदा उठाया जो राज्य आंादोलन के धुर विरोधी थे। राज्य तो बना लेकिन राज्य आंदोलनकारियों का क्या मिला। जिन लोगों को कुर्सी मिली, उन्होंने अपने पीछे के उन लोगों को भुला डाला जो नमक-रोटी खा कर आंदोलन में साथ खड़े थे। जिससे आंदोलनकारियों को गहरी चोट पहुंची है।
- सुशीला ध्यानी, अध्यक्ष, कौशल्या डबराल वाहिनी


उत्तराखंड आंदोलन दो विचारधाराओं ने लड़ा। एक विचारधारा वो थी जो आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो वाले थे, दूसरी विचारधारा के लोग वो थे जो राज्य कैसे चलेगा, कैसी नीति होगी को लेकर आंदोलन लड़ रहे थे। क्योंकि यहां के लोगों ने नए उत्तराखंड से नये भारत के निर्माण का सपना बुना था। उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें कमजोर पड़ी है। राजनेताओं ने जैसे चाहा अपना फायदा उठाया कोई बोलने वाला नहीं है, ऐसे में प्रदेश में सामाजिक, राजनीतिक और व्यवस्था परिवर्तन की सख्त जरूरत है। क्योंकि समस्या का समाधान वही कर सकता है जिसकी समस्या है, और इसके लिए नई ताकत का खड़ा होना जरूरी है।

-पी सी तिवारी, अध्यक्ष उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी

उत्तराखंड राज्य के हालत देख अफसोस होता है, जहां तक बात राज्य आंदोलन की ताकतों की है, कोई भी एक मंच पर नहीं है। राज्य आंदोलन को सब भूल गये। राष्ट्रीय दलों ने दिग्भ्रमित कर दिया है। कुछ लोग अपने रास्ते भटक गये। ये लोग अपनी मातृ-शक्ति का अपना भूल गये। एक दल से कई धड़े बन गये। जिससे हमारी मूल भावना कमजोर पड़ गई। अगर सपनों के उत्तराखंड को पाना है तो अपने अहम को त्यागना होगा और क्षेत्रीय ताकत को मजबूत करना होगा।

- ए.पी. जुयाल, केंद्रीय कार्यकारी अध्यक्ष, यूकेडी पी


                           
                                               प्रस्तुति- प्रदीप थलवाल

Monday, October 22, 2012

क्या लोकतंत्र के पर्व का जश्न फीका होने लगा है?




टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जो मत प्रतिशत सामने आया है उससे हर कोई हैरान भी है और परेशान भी। क्योंकि इस संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव से तकरीबन 6-7 माह पहले प्रदेेश में विधानसभा चुनाव हुए थे और फिर सितारगंज में एक उपचुनाव भी हुआ था। जिसमें सूबे की जनता ने रिकॉर्ड वोटिंग की थी, लेकिन तकरीबन छह महिने के अंतराल बाद जो ये चुनाव हुआ है उसमें जनता ने खुलकर भागीदारी नही की। लोकतंत्र का चुनावी पर्व फीका रहा । इस चुनाव के प्रति जनता का मोह भंग क्यों हुआ ? यह बात राजनीतिक समीक्षकों को तो अखर ही रही है सियासी दलों को भी सोचने को मजबूर कर रही है कि आखिर चूक कहां पर हुई। राजनीतिक दलों के सत्ता स्वार्थ ने जनता को घरों में बिठाया या लोकतंत्र का चुनावी उत्सव धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खो रहा हो। वजह जो भी हो दुनिया के सबसे बडे़ और मजबूत लोकतंत्र में कम मतदान भविष्य के लिए एक खतरनाक आहट मानी जा सकती है।
बहरहाल टिहरी संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में लगभग 43 पफीसदी मतदान हुआ। अगर जिलावार देखा जाय तो सबसे ज्यादा मतदान देहरादून जिले में हुआ, देहरादून जिले में 45.29 प्रतिशत मतदान हुआ, दूसरे नंबर पर उत्तरकाशी जिला रहा है जहंा 44 पफीसदी मतदाताओं ने अपने मताध्किार का प्रयोग किया। सबसे कम मतदान टिहरी जिले में हुआ। यहां सिपर्फ 36.19 प्रतिशत मतदान हुआ। तीनों जिलों के मतदान पर अगर नजर डालें तो उत्तरकाशी का प्रदर्शन बेहतर रहा। क्योंकि उत्तरकाशी जिले में आयी आपदा और जिले में धन की कटाई और मंडाई होने के बाद भी मतदाताओं थोड़ा बहुत उत्साह देखने को मिला। जबकि टिहरी के मतदाताओं ने लोकतंत्रा के इस पर्व का कोई महत्व नहीं दिया।
अगर तीनों जिलों की विधनसभा सीटों के हिसाब से मतदान की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा मतदान विकासनगर विधनसभा सीट पर हुआ यहां 52.43 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि दूसरे नंबर पर चकराता विधनसभा सीट रही। सहसपुर और गंगोत्राी क्रमशः तीसरे और चौथे क्रम पर रही। सबसे कम वोटिंग घनसाली और टिहरी विधनसभा क्षेत्रा पर हुई । यहां क्रमशः 29.88 और 33.87 मतदाताओं ने अपने वोट का प्रयोग किया।

टिहरी संसदीय सीट का भूगोल देखा जाय तो इस सीट का अध्किांश भाग पर्वतीय है, जबकि मैदानी इलाका कम ही है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रा की अपेक्षा मैदानी क्षेत्रा में मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। इस लिहाज से मैदानी क्षेत्रा में पर्वतीय इलाकों की अपेक्षा ज्यादा मतदान भी हुआ है। जो कि सीध्े तौर पर जीत और हार के लिए निर्णयक साबित हुआ। दूसरी ओर मैदानी विधनसभा क्षेत्रों में हुए मतप्रतिशत को देखे तो वो उत्तरकाशी जनपद की तीनों विधनसभा सीटों पर हुए मतदान की अपेक्षा कम हुआ है जबकि टिहरी की चारों विधनसभा क्षेत्रों में मतदान न्यूनतम रहा है। सवाल उठाता है कि पर्वतीय मतदाता ने वोट देने में क्यों कंजूसी दिखाई।

क्या इसकी वहज एक के बाद एक हो रहे चुनाव से लोग ऊब गये हैं? या पिफर पहाड़ के जनसरोकार के मुद्दे न उठाये जाने से जनता नाराज है। टिहरी उपचुनाव में हुए कम मतदान के पीछे जनप्रतिनिध्यिों का जनता के प्रति गैरजिम्मेदाराना रवैया भी एक कारण माना जा रहा है । जनता का मानना है कि जब वो किसी काम से अपने जनप्रतिनिध् िके पास जाती है तो जनप्रतिनिध् िया तो उसे टरका देता या पिफर उसके काम को ज्यादा अहमियत नहीं देता। जिससे मतदाता में नाराजगी है।
देखा गया है कि चुनाव के दौरान प्रत्याशी मतदाता के घर तक वोट मांगने जरूर आता है लेकिन जीतने के बाद वो पूरे पांच साल तक उन्हें अपनी शक्ल तक नहीं दिखाता। जिस वक्त उन्हें अपने जनप्रतिनिध् िकी आवश्यकता होती है उस समय वो देहरादून अपने भविष्य की तिकड़म भिड़ाने के लिए जुगत भिड़ता है या पिफर दिल्ली दरबार में अपने सियासी वजूद को बचाने के लिए जी हजूरी पफरमा रहा होता है।
ऐसे में जनता के पास चुनाव ही एकमात्रा ऐसा हथियार है जिसके जरिए वो अपनी नाखुशी जाहिर कर सकता है। माना जा रहा है कि टिहरी उपचुनाव में कम मतदान भी इसी बात का प्रतीक है।
सबसे ज्यादा मतदाताओं की नाराजगी टिहरी जिले में दिखी। जहां सबसे कम मतदान हुआ। कम वोटिंग होने का कारण क्षेत्रा की उपेक्षा भी है। क्योंकि टिहरी झील से जो समस्या कम से कम प्रतापनगर और घनसाली विधनसभा क्षेत्रा के लिए उपजी है उसी का नतीजा है कि दोनों ही विधनसभा सीटों में वोट प्रतिशत कम रहा। यहां तक कि टिहरी विधनसभा क्षेत्रा में भी मतदान बहुत कम रहा। राजनीतिक दलों से नाता रखने वाले इस बात को भी स्वीकारते हैं कि मतदान होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण स्थानीय मुद्दों और स्थानीय लोगों को महत्व नहीं दिया जाना है। क्योंकि टिहरी उपचुनाव मे क्षेत्राीय मुद्दे किसी भी पार्टी ने नहीं उठाये बशर्ते यूकेडी पी के। दूसरी और प्रदेश की दो मुख्य राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन में भी दिल्ली दरबार का हुक्म माना। स्थानीय चेहरे को चुनावी समर में उतारना मुनासिब नहीं समझा। जिसका सीध असर मतदान पर पड़ा।

टिहरी संसदीय सीट पर कम मतदान का ये दूसरा अवसर है। इससे पहले राज्य गठन की मांग को लेकर प्रदेश भर में चुनाव बहिष्कार किया गया था। उस वक्त सूबे में बहुत कम मतदान हुआ था। हालांकि इस बार भी कई जगह चुनाव का बहिष्कार किया गया था।
लेकिन सवाल उठाता  है कि क्या चुनाव बहिष्कार से समस्या का हल हो जायेगा। इस प्रकार से चुनाव के प्रति लोगों में उदासीनता का भाव भरता जा रहा है, इससे स्पष्ट होता है कि भविष्य में चुनाव मात्रा रस्म अदायगी तक सीमित रह जायेगा। लोकतंत्रा के इस पर्व का जश्न पफीका न पड़े इसके लिए राजनीतिक दलों को अपने गिरेबान में झांकना होगा । वरना कहीं ऐसा न हो कि नौबत उस जगह पंहुच जाए जहां संविधान के इस महत्वपूर्ण अध्किार का महत्व ही खत्म हो जाए। बहरहाल टिहरी संसदीय सीट के उपचुनाव में हुए कम मतदान ने लोकतंत्रा के भविष्य पर एक सवालिया निशान लगा ही दिया है।

टिहरी संसदीय सीट पर खिला कमल



महारानी माला राज्य लक्ष्मी को टिहरी की बागडोर


टिहरी लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव का नतीजा सामने आ चुका है। जनादेश सत्तासीन कांग्रेस के बजाय भाजपा के पक्ष में रहा। आगामी लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल के तौर पर देखे जा रहे इस उपचुनाव में भाजपा ने बाजी मारी। पिछले कई चुनावों में हार का सामना कर रही भाजपा को टिहरी की जीत ने संजीवनी का काम किया। भाजपा प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी की जीत ने पार्टी कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं को जोश से लबरेज कर दिया । वहीं दूसरी ओर टिहरी संसदीय सीट पर मिली हार से कांग्रेस आहत हो गई। कांग्रेस के लिहाज से देखा जाए तो यह हार उसके लिए ऐतिहासिक हार बन गयी है। हार के कारणों की खोज में जुटी कांग्रेस मंथन करने को मजबूर है। हालांकि मझौले दर्जे के नेता बयानबाजी से भी बाज नहीं आ रहे हैं।
खैर भाजपा की परंपरागत सीट रही टिहरी में कांग्रेस हैट्रिक लागने के मूड में थी। यही कारण था कि कांग्रेस ने इस सीट पर अपने कई खांटी नेताओं को तरजीह ना देकर मुख्यमंत्री बहुगुणा के पुत्र को महत्व दिया। कांग्रेस टिहरी सीट को हर हाल में जीतना चाहती थी, ऐसे में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भरोसे में लेकर साकेत की जीत की गारंटी ली थी। इसके लिए सीएम बहुगुणा ने अपने स्तर से हर कोशिश की, यहां तक कि उन्होने चुनाव की कमान खुद संभाल कर पार्टी नेताओं को जीत के प्रति आश्वस्त भी किया। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों में खुद कांग्रेस के लिए वोट मांगे।
टिहरी संसदीय सीट में कांग्रेसियों के तूफानी हवाई दौरे, बूथ लेवल तक के चुनावी प्रबंधन से कांग्रेस की जीत पक्की मानी जा रही थी। जबकि इसके उलट भाजपा प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी ने सादगी से मैदानी क्षेत्रों में खुद प्रचार अभियान की बागडोर थामी थी। महारानी ने खुद जनता के बीच जाकर लोगों से वोट की अपील की। महारानी ने राजशाही वैभव को दूर रख अपने सौम्य स्वभाव से मतदाताओं का दिल जीता। उनकी सीधी साधी छवि को लेकर कांग्रेस ने चुनावी सभाओं में कई टिप्पणियां की लेकिन महारानी ने कांग्रेस की उन टिप्पणियों पर कभी भी पलटवार नहीं किया। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि उनकी इसी गंभीरता ने उन्हें जनता के बीच मजबूत किया और उनकी जीत प्रशस्त की। हालाकि यह भी माना जा रहा है धरेलू गैस सिलैंडर  से सब्सिडि वापस लेने का फैसला और  बेहिसाब बढ़ती महंगाई के जिस चाबुक से आम जनता की खाल उधड़ रही है उसी मंहगाई के चाबुक ने कांग्रेस को टिहरी सीट से भी बेदखल किया है।  ये बात दूसरी है कि  चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने मंहगाई और भ्रष्टाचार को कोई मुद्दा नहीं माना और विकास के नाम पर वोट मांगे।  बावजूद इसके मतदान करने वाली जनता ने कांग्रेस को नकार दिया।

किसेे कहां क्या मिला...
महारानी ने कांग्रेस के प्रत्याशी और मुख्यमंत्री विजय बहुगुण के बेटे साकेत बहुगुणा को 22,694 मतों से पटखनी दी। जबकि तीसरे और चौथे नंबर पर क्रमशाः उत्तराखंड रक्षा मोर्चा और उत्तराखंड क्रांति दल-पी रहे। इन दोनों क्षेत्रीय दल समेत अन्य दस प्रत्याशियों की जमानत तक भी नहीं बची। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बनी टिहरी संसदीय सीट पर देहरादून के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान कर बाजी पलट दी। इस उपचुनाव में तकरीबन 5,10,951 मतदाताओं ने वोट दिया। कुल मतदाताओं के सापेक्ष 43 फीसदी वोटिंग होने से कोई भी पार्टी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी, लेकिन आखिरकार नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा।
टिहरी, देहरादून और उत्तरकाशी में हुई मतगणना में पहले पहल कांग्रेस आगे नजर आ रही थी, चकराता विधानसभा सीट से लगभग दस हजार वोट की बढ़त से कांग्रेस की उम्मीद परवान चढ़ गई थी। लेकिन विकासनगर, सहसपुर, कैंट, राजपुर, रायपुर और मसूरी विधानसभा सीटों पर भाजपा के पक्ष में हुए मतदान ने बाजी पलट दी। इन सभी विधानसभा में भाजपा ने लगभग 35,210 की बढ़त बनाई। उधर उत्तरकाशी की पुरोला और गंगोत्री सीट में कांग्रेस भाजपा से आगे रही, जबकि यमुनोत्री सीट पर मतदाताओं ने भाजपा पर भरोसा जताया। टिहरी जिले की प्रतापनगर,और धनोल्टी विधानसभा क्षेत्र पर कांग्रेस आगे रही,। जबकि घनसाली और टिहरी विधानसभा सीट पर भाजपा का जादू चला। उपचुनाव में कांग्रेस के मुकाबले इक्कीस साबित हुई भाजपा की प्रत्याशी महारानी माला राज्य लक्ष्मी को 2,45,835 वोट मिले जबकि कांग्रेस के प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को 2,23,141 वोट पड़े। दोनों के बीच जीत का अंदर 22,694 रहा। वहीं क्षेत्रीय दलों का हाल बहुत ही दयनीय रहा। अपने आपको प्रदेश की हितैषी बताने वाली उत्तराखंड क्रांति दल-पी इस उपचुनाव में चौथे नंबर पर रही उसे 6,939 मत मिले, जबकि तीसरे नंबर रहे उत्तराखंड रक्षा मोर्चा 7,466 मत बटोरने में कामयाब रहा।


प्रत्याशियों के बोल---

महारानी माला राज्य लक्ष्मी, नवनिर्वाचित सांसद, टिहरी

यह जीत टिहरी संसदीय क्षेत्र की जनता का आर्शीवाद है, हमारे परिवार ने अच्छे काम किये होंगे इसीलिए उन्होने मुझ पर भरोसा जताया। मैं उनका आभार करती हूं। महंगाई और भ्रष्टाचार सभी मुद्दे कांग्रेस के खिलाफ गये। मैं संसद में महंगाई का मद्दा उठाऊंगी। कांग्रेस के नेताओं द्वारा की गई टिप्पणी पर मैं कुछ नहीं कहूंगी। जनता समझदार है, वो सब जानती है।

साकेत बहुगुणा, प्रत्याशी कांग्रेस

जनता का आदेश सर्वोपरी, मतदाताओं से किये सभी वायदे पूरा करूंगा, दून के मतदाताओं की नाराजगी दूर करूंगा। हर हार में जीत छिपी होती है, जनता के बीच जाकर उनका काम करता रहूंगा। मेरा विश्वास है कि 2014 में हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे।

त्रिवेंद्र सिंह पंवार, प्रत्याशी, यूकेडी-पी
कांग्रेस के खिलाफ जनता में आक्रोश था, लिहाजा जनता ने उसे ही वोट दिया जो जीतने की स्थिति में था, मंत्री प्रीतम सिंह पंवार भी साथ नहीं आये, ऐसे में यूकेडी की हालत ज्यादा खराब हो गई। हार पर मंथन किया जायेगा।

कुंवर जपेंद्र, प्रत्याशी, उत्तराख्ंाड रक्षा मोर्चा

कांग्रेस की हार में उत्तराखंड रक्षा मोर्चा अहम रही, क्योंकि हमने जो मुद्दे उठाये उससे मैदानी इलाकों में कांग्रेस के खिलाफ मतदान हुआ। मूल निवास और अन्य मुद्दों पर हमने कांग्रेस को घेरा, जिसकी वहज से भाजपा जीतने में कामयाब रही।

क्या बोले नेता

टिहरी की जनता ने केंद्र सरकार की नीतियों और राज्य सरकार के छह महीने के कार्यकाल को खारिज किया है। महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की मुहर लग चुकी है। चुनावी नतीजों ने सरकार के अहंकार को खत्म किया है। ---- बी.सी. खंडूड़ी, पूर्व मुख्यमंत्री

जनता के गुस्से का फायदा भाजपा को मिला। जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। कांग्रेस में आपसी फूट का नतीजा भी इस चुनाव में देखने को मिला।---- भगत सिंह कोश्यारी, राज्य सभा संासद

प्रदेश में अराजकता का महौल है, भाजपा की तमाम कल्याणकारी योजनाओं में रूकावट पैदा की गई है। केंद्र और राज्य सरकार ने आम जनता के हकों को मारा है।.... डा. रमेश पोखरियाल निशंक

टिहरी और उत्तरकाशी जिले में कांग्रेस को बढ़त ने बता दिया है कि विकास के नाम पर पहाड़ के मतदाताओं ने कांग्रेस की सरकार पर भरोसा जताया है। आपदा पीड़ितों ने भी कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर सरकार के कामों पर मुहर लगाई।...... विजय बहुगुणा, मुख्यमंत्री

पार्टी जिसे प्रत्याशी घोषित करती है उसे जितना सभी की सामुहिक जिम्मेदारी होती है। अब बहानेबाजी से कोई काम नहीं चलेगा। टिहरी की हार से सबक लिया जायेगा और कांरणों को खंगाला जायेगा, ताकि भविष्य में पार्टी मजबूत होकर उभरे।..... यशपाल आर्य, प्रदेश अध्यक्ष, कांग्रेस।

पहाड़ में कांग्रेस की जीत हुई है। देहरादून के कुछ क्षेत्रों में रसोई गैस भारी पड़ा, विकासनगर, रायपुर, राजपुर में हार की समीक्षा की जायेगी। .... सुबोध उनियाल, विधायक नरेंद्र नगर।




Saturday, October 6, 2012

असमय बसंत का आना!


               
लगता है उत्तराखंड में बसंत ने आहट दे दी। तभी तो भ्रमरों का मद्म गुंजन सुनाई दे रहा है। भ्रमर ध्वनी टेलीवीजन रूपी फूलों के स्क्रीन से सुनाई पड़ रही हैं। कुछ भौंरे विरोधी गुंजन कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उत्तरांखड में मौल्यार आता दिख रहा है। देखिए न यह मौल्यार ऐसे वक्त आ रहा है जब टिहरी संसदीय सीट पर उपचुनाव का फल पक रहा है। अक्सर राजनीति के धरातल पर बसंत ऐसे ही मौकों पर आता है। क्योंकि ऐसे टाईम पर बसंती भौंरों का गुंजन कम होने के बाद भी ऊंचा सुनाई पड़ता है। वो इसलिए कि प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है, क्योंकि प्रकृति नहीं चाहती है कि भौंरों और फूलों में कोई बैर रहे। अपने जंगली प्रदेश के राजनीतिक धरातल पर बसंत के आने की प्रबल इच्छा है, इस बसंती बयार से कंटीली हो चुकी राजनीति फिर हरी-भरी होने के संकेत हैं। भगवाधारियों की आपसी जंग और धर्मनिरपेक्षियों की सुल्ताल बनने के टक्राहट से सियासी सल्तनत को कई गहरे जख्म दिये हैं, जिसका दर्द बसंती भौंरे केा अभास होता है। तभी तो हेमंत ऋतु में बसंत आने की चर्चा हो रही है। बसंत के अचानक और ऐसे समय आने के संकेत सियासी सामंतों को महज मजाक लग रहा है। लेकिन उनके माथे से लेकर पीठ पर पसीने की बंूदे हैं, उन्हें अंदर ही अंदर ये बात भी उन्हें खाये जा रही है कि कहीं प्रकृति रूठ गई और ऐसा सच हुआ तो फिर क्या होगा? लिहाजा बसंत को आने से रोके जाने के लिए राजनीतिक रसायन की विधा अपनानी होगी। ताकि बसंत आये नहीं बल्कि शांति से ‘संत’ ही रहे। जैसा अभी तक चल रहा है। राजनीति की स्वीकृत बगिया देहरादून में इन दिनों राजभौंरों की संख्या ना के बराबर है, ये इन दिनों टिहरी वाटिका में विचरण कर रहे हैं। क्योंकि इस वाटिका में अपना कब्जा जो जमाना है, यहां की हर डाल, शाख पर अपना वर्चास्व कायम जो रखना है। इस वाटिका पर किस झुंड का कब्जा होगा ये तो तेरह को पता चल जायेगा। लेकिन देहरादून से जो बसंती गुंजन जो सुनाई पड़ रहा है उससे एक वर्ग के भौंरों का चिंतित होना लाजमी है। इससे एक वर्ग की वर्चास्व की लड़ाई पर मानसिक तौर पर फर्क भी पड़ा है।
इस प्रकृति से वास्ता रखने और इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वालों का कहना है कि बसंत आने की खबर प्रदेश के अयन मंडल से होते हुए अचानक लोगों के घरों में दाखिल हुई, चुपचाप आई इस खबर की वास्तविकता का जब लोगों ने पता कि ये बात सौ आने सच निकली। हालांकि बसंत बयार आने की सुगबुगाहट पहले भी सुनाई देती रही लेकिन ये हल्की और परले दर्जे की थी। लेकिन अभी जो खबर अयनमंडल से लेकर अखबारी दुनियां में तैर रही है उसमें दम है। इस खबर में कई तरह के आरोप लगाये जा रहे हैं। इसमें जहर की बात भी सुनने को मिल रही है। आरोप लग रहे हैं कि इस जंगली प्रदेश का लोग भला नहीं चाहते हैं यही वहज है कि बसंत के पैरोकार को ठिकाने लगाये जाने की सुनियोजित योजना थी। लेकिन बसंत राज को जब इसकी भनक लगी तो तय हुआ कि अपना समय न होने के बाद भी बसंत लौट आयेगा। वाया एफआरआई के जंगलों से लौट आयेगा। नए भम्ररों का झुंड होगा पुराने भी भौंड से भौंड (स्वर से स्वर) मिलायेंगे और बसंती गीत गाकर फिर से जख्मी जंगली प्रदेश की जमीन पर मरहम लगायेंगे। खबर है कि इसके लिए दिल्ली एम्स के लिए पत्र व्यवहार हो रहा है, एम्स के वरिष्ठ शैल्य चिकित्सक की मुहर लगती है कि नहीं ये कहना मुश्किल है। लेकिन बसंत राज के जन्म दिन पर बड़ी बात जरूर निकल कर आयेगी। और बताया जायेगा कि क्यों असमय बसंत का आना तय हुआ। खैर हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल के शब्दों में .... अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलंेगे।


Thursday, October 4, 2012

इस चारागाह के चरवाहे



प्रदीप थलवाल

आजकल उत्तराखंड में अजीब किस्म की हलचल दिख रही है। आसमान से लेकर सड़क पर भागदौड़ बढ़ी हुई है। इस भाग-दौड़ का मुख्य बिंदु टिहरी बताया जा रहा है। जहां से चुनावी भूकंप के झटके उठ रहे हैं, और यही टिहरी किसी चारागाह से कम नजर नहीं आ रहा है। जिस प्रकार गोरू-भैंस और बकरियांे का चारागाह होता है, उसी प्रकार टिहरी और ये पहाड़ी मुल्क भी राजनेताओं का चारागाह साबित हो रहा है। जिस प्रकार समाज के हर वर्ग में श्रेणी पायी जाती है उसी प्रकार की श्रेणी राजनीतिक चारागाह में भी होती है। सबसे निचले स्तर पर कार्यकर्ता टाइप के चरवाहे होते हैं, फिर ब्लॉक, जिला स्तर के होते हैं, राज्य स्तर पर आते-आते हैं इनकी श्रेणी इतनी उच्च हो जाती है कि चरवाही के मायने ही बदल जाते हैं। क्योंकि ये चरवाहे वीआईपी श्रेणी में आते हैं और ये चरवाहे अपने आप को कुलीन समझने लगते हैं।

उत्तराखंड भी राजनीति के लिहाज से खासी उर्वरक और उपजाऊ है। यही वजह है कि यहां देश के कोने कोने और भांति-भांति किस्म के नेता अपनी नेतागिरी चमकाने आते हैं। उत्तराखंड का पिछले बारह साल का इतिहास टटोले तो प्रदेश में कई पैराशूट नेता ने यहां ना सिर्फ लैंडिंग की बल्कि यहां पर राजनीति का ककहरा सीखने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में भी चमके। कुछ नेता ऐसे भी थे जो उत्तराखंड को कतई भी पसंद नहीं करते थे लेकिन आखिरकार झक मार के यहां आये और खूब लूट-खसोट की। लेकिन इलाकाई नेता इस उपजाऊ जमीन पर ढंग से नहीं पनप पाये। हालांकि किसी तारे की तरह कुछ समय के लिए राजनीति के अयन मंडल में ये नेता जरूर टिमटिमाये, लेकिन इनकी टिमटिमाहट अब नहीं उतनी नहीं है। इसका कारण शायद इन इलाकाई राजनेताओं को राजनीतिक करने का शऊर नहीं था।

तमाम वजहों के चलते बाहरी चरवाहे उत्तराखंड जैसे नए-नवेले चारागाह में आये और जमकर सेंधमारी की, जिसका फायदा बाहरी लोगों को खूब मिला। विभिन्न संगठनों, दलों और ना जाने किन-किन जगाहों से आये ये लोग यहां के मठाधीश तक बन बैठे। यही वजह है कि प्रदेश में होने वाले हर चुनाव में इनको देखा जा सकता है। इतना ही नहीं इन लोगों की संख्या में कमी की बजाय हर चुनाव में तेजी देखने को मिल रही है। जिससे प्रदेश का मूल नेता हाशिये पर सरकता जा रहा है। हाल ही का उदाहरण देखिए, टिहरी में लोकसभा उपचुनाव होने जा रहा है। इस संसदीय सीट पर दोबारा इतिहास दोहराया गया। तमाम दलों ने स्थानीय लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनने के बजाय बाहरी लोगों को तरजीह दी। कांग्रेस, भाजपा से लेकर उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने बाहरी लोगों को चुनाव में उतारा, हां एक मात्र यूकेडी पी ने स्थानीय निवासी पर जरूर दांव खेला है।

कांग्रेस ने जहां साकेत बहुगुणा पर दांव खेला, वहीं भाजपा ने टिहरी राजपरिवार की महारानी राजलक्ष्मी शाह पर भरोसा जताया है, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने कुंवर जपेंद्र सिंह को चुनावी मैदान में उतारा है। गौर से अगर आंकलन किया जाये तो इन तीन राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार किस लिहाज से यहां के मूल निवासी है। हालांकि भाजपा उम्मीदवार राजघराने की बहु होने के नाते मूल निवासी के दायरे में फिट बैठ सकती है लेकिन वो भी विदेशी मूल की है। लेकिन कांग्रेस और उरमा के प्रत्याशी यहां के मूल निवासी नहीं है।

ऐसे में राजनीति के इस चारागाह में बाहरी और नये-नवेले चरवाहे पर लोग-बाग भी टिप्पणी कर रहे हैं। लोगों का यहां तक कहना है कि यहां के लोगों ने जिस प्रदेश का सपना देखा था वो महज सपना रह गया है, और ये प्रदेश सिर्फ राजनेताओं के लिए किसी चारागाह बनकर रह गया है। इतना ही नहीं लोगों का कहना है कि इस प्रदेश का दुर्भाग्य देखिए कि बाहरी लोग ना जाने कैसी-कैसी पार्टियों के यहां आकर अपनी पैठ बनाते हैं। इन दिनों प्रदेश में भारतीय बल्द पार्टी के नेता की आने की बात भी कह रहे हैं, जो कांग्रेस के हाथ के सहारे अपनी नैया पार लगाने जुगत में है।

लेकिन सवाल ये है कि इस चारगाह के चरवाहे क्या बहारी होंगे, या फिर कभी यहां के लोगे भी इतने मजबूत होंगे कि वो खुद ही चरवाह की भूमिका निभा सके। खैर महान जर्मन कवि ने कभी लिखा था कि ...और चरवाहे से नाराज भेड़ों ने कसाई को मौका दे दिया, उन्होने जनवाद के खिलाफ मत दिया क्योंकि वह जानवादी थे।

Monday, September 24, 2012

मूल निवास पर सरकार का सरेंडर

               
मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का जिन्न एक बार फिर बोतल से निकल आया है। मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर राज्य गठन के बाद से जंग छिड़ी हुई है। लेकिन प्रदेश की किसी सरकार ने इसका समाधान निकालने की नहीं समझी। राज्य की सभी सरकारों ने इस मामले को टरकाने में ही अपनी भलाई समझी। मौजूदा कांग्रेस सरकार से प्रदेश की जनता को खासी आशाएं थी कि प्रदेश का मुखिया खुद कानून का जानकार है तो ये सरकार मूल निवाास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर सकारात्मक भूमिका निभायेगी और सूबे के हकों का ख्याल रखेगी। लेकिन सूबे के मुखिया विजय बहुगुणा के बयान ने लाखों लोगों की उम्मीद को एक झटके में ही खत्म कर दिया। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने स्पष्ट लहजे में कह दिया है कि उनकी सरकार मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र मामले में हाईकोर्ट के आदेशें का पालन करेगी। मुख्यमंत्री के इस बयान से जहां इस पर्वतीय प्रदेश के मूल निवासियों का गहरा झटका लगा वहीं विपक्षी दल इसे मुख्यमंत्री की कमजोर मानसिकता और प्रदेश के प्रति मुख्यमंत्री की सोच को इंगित करता है। मुख्यमंत्री ने अपने बयान में ये भी कहा कि वो मूलनिवास और जाति प्रमाण पत्र के संदर्भ में दिये हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट भी नहीं जायेंगे। सीएम के बयान से साफ होता है कि वो नहीं चाहते हैं कि प्रदेश के मूल निवासियों को उनका वाजिब हक मिले। मुख्यमंत्री के इस बयान से उसकी सहयोगी और अपने आपको उत्तराखंड के हितों की हितैषी बताने वाली यूकेडी-पी भी गुस्से में है। क्योंकि यूकेडी पी पहले से ही मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र पर अपना रूख स्पष्ट कर चुकी है, यूकेडी चाहती है कि मूल निवास की कट ऑफ डेट राज्य गठन के दिन से ना हो बल्कि इससे पूर्व यानि कि 1950 हो। इस मामले को लेकर यूकेडी ने पहले ही अदालत की डबल बेंच में अर्जी दाखिल की हुई है। 
ये सारा प्रकरण उस वक्त हो रहा है जब प्रदेश में टिहरी उपचुनाव होने जा रहे हैं। मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर दिये मुख्यमंत्री का बयान दस अक्टूबर केा होने वाले मतदान पर क्या असर डालेगा ये 13 अक्टूबर को ही मालूम होगा। लेकिन दूसरी ओर यूकेडी पी ही इस मुद्दे पर गरम नजर आ रही है। यूकेडी पी सरकार में सहयोगी होने के बावजूद भी सरकार पर हमला कर रही है जिससे साफ होता है कि यूकेडी का राजनीतिक एजेंडा प्रदेश के हित में है। जबकि दूसरी ओर भाजपा इस मुद्दे को ज्यादा तूल देती नहीं दिखाई दे रही है। यानि कि भाजपा भी नहीं चाहती है कि वो भी इस पचड़े में पड़े, और अपने हाथ जला बैठे। उधर एक और क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड रक्षा मोर्चा भी मूल निवास और जति प्रमाण पत्र पर हाईकोर्ट की दलीलों का अध्ययन कर लागू करने की बात कर रहा है। ऐसा नहीं है कि किसी भी दल का सदस्य नहीं चाहता है कि प्रदेश में मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 हो लेकिन वोट बैंक के चलते यूकेडी पी के अलावा कोई राजनीतिक दल इस फैसले को मजबूती के साथ नहीं उठा रहा है। 
उधर टिहरी लोकसभा उपचुनाव के मद्देनजर यूकेडी के पास मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र का मुद्दा सबसे हाट है, अगर यूकेडी चाहे तो वो इस मुद्दे को उछाल कर जनता के सामने अपने आप को मजबूत कर सकती है, और लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा को टक्कर दे सकती है, लेकिन यूकेडी के शीर्ष नेता सरकार पर सीधा हमला करने के मूड में नहीं है। सरकार ने भी मूल निवास और जाति प्रमाण पत्र को लेकर सरेंडर कर दिया है। राज्य सरकार नहीं चाहती है कि वो इस मुद्दे केा सुप्रीम केार्ट में ले जाये। यानि कि मूल निवासियों को इसके लिए खुद ही पहल करनी होगी। 

Friday, September 21, 2012

प्रतापनगर की पीड़ा



टिहरी जिला मुख्यालय के ठीक सामने नजर आने वाला पहाड़, प्रतापनगर है, दरअसल प्रतापनगर को पहाड़ इसलिए कहा गया है कि हर कोई इसे महज एक पहाड़ी टीला समझ कर धोखे में रहता है, ठीक उसी तरह जैसे कि यहां के हजारों लोग धोखे और छलावे की जिंदगी जीने को मजबूर है। कभी टिहरी महाराजा की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही प्रतापनगर आज विकास के लिए तड़प और छटपटा रहा है। विकास की दुहाई देने वालों ने अपनी मोटी कमाई के लिए टिहरी बांध की ऐसी पटकथा लिखी कि प्रतापनगर को अलग-थलग कर काले पानी की सजा मुकर्रर कर दी। प्रतापनगर के लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके साथ उसी संघीय राष्ट्र के लोग धोखा करेंगे, जिन्होने सन उन्नीस सौ अड्तालीस में एक राष्ट्र का नारा देकर टिहरी का विलय भारत में कराया। तब शायद ना टिहरी के महाराजा ने सोचा था और ना प्रतापनगर की जनता ने की 21वीं सदी उनके लिए किसी सजा से कम ना होगी। विकास के नाम पर टिहरी में जनमी और पली बढ़ी एक सभ्यता भले ही पानी के ताबूत में दफन हो गयी हो लेकिन प्रतापनगर की तीन लाख की आबादी वाली जनता दर-दर ठोकर खाने को मजबूर है। एक दशक पहले जब एतिहासिक टिहरी शहर तिल-तिल कर डूब रहा था, तो दूसरी ओर प्रतापनगर भी तड़प रहा था, झील का पानी का स्तर बढ़ता गया तो प्रतापनगर के सारे बाटे-घाटे एक-एक कर पानी में समा रहे थे, ये वो बाटे-घाटे थे जो प्रतापनगर के लिए किसी रूधिर वाहिका से कम नहीं थे। झील की गर्त में हमेशा के लिए समा रहे सड़कों और रास्तों को देख कर प्रतापनगर मानों मूर्छित पड़ा हो, और ये मूर्छा कब टूटेगी कोई कह नहीं सकता। यही मूर्छित प्रतापनगर आज सभी के लिए महज पहाड़ का टीला बन कर रह गया है। इस पहाड़ी टीले की छाती पर जो समाज सांसे ले रहा है उसकी फिक्र शायद ही किसी को हो। कोई जान पाये कि विकास के साथ कदमताल करने वाला प्रतापनगर आज 18वीं सदी में जीने को मजबूर है। एक दशक में तीन निर्वाचित सरकारों ने अपना शासन इस प्रदेश में चलाया लेकिन किसी भी सरकार ने प्रतापनगर की सुध नही ली, जबकि प्रतापनगर की जनता ने जिस प्रत्याशी को भी यहां से चुनकर भेजा उसी की पार्टी की सूबे में सरकार बनी, फिर चाहे साल 2002 में मार्क्सवादी सिद्धांतों और कांग्रेसी रंग में रंगे खांटी नेता फूल सिंह बिष्ट हो या फिर संघ की खाकी पैंट पहनने वाला विजय सिंह पंवार या फिर वर्तमान में कांग्रेसी रंग-रूट विक्रम सिंह नेगी। तीनों ही लोगों को प्रतापनगर की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर देहरादून के सफेद पर्वत भेजा, लेकिन किसी ने भी प्रतापनगर की आवाज सफेद पर्वत के अंदर नहीं उठायी। प्रतापनगर को आज गोविंद सिंह नेगी जैसे तेज-तर्रार नेता की जरूरत है, जो विधानसभा के अंदर प्रतापनगर की समस्या को मजबूती से रख सके। 
वर्तमान में प्रतापनगर के परिदृश्य को देखते हुए कतई भी नहीं लगता कि ये वही प्रतापनगर है जहां कभी विकास का पहिया तेजी से घूम रहा था। महज एक दशक में प्रतापनगर के अंदर से इतना पलायन हुआ कि आज समूचा इलाका वीरान हो चुका है। प्रतापनगर से एक दशक में हुआ पालयन शायद ही आजाद भारत के अंदर किसी अन्य जगह से हुआ हो। प्रतापनगर से पलायन कर चुके लोग नई टिहरी, ऋषिकेश, देहरादून, हरिद्वार और महानगरों में अब अपनी जड़े जमा रहे हैं। लेकिन प्रतापनगर में हुए इतने बड़े पलायन की ओर किसी की नजर नहीं पड़ी ।ना सरकार की और ना उसके हुक्मरानों की। पालयन पर बड़ी बहस होती है लेकिन इस बहस में कभी भी प्रतापनगर का कोई जिक्र तक नहीं होता। कोई रत्तीभर नहीं बोलता कि प्रतापनगर की भी थोड़ा सुध लो, लेकिन नहीं। शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा तो यहां बाबा आदम के जमाने की है। स्कूलों में एक भी टीचर नहीं, बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन शिक्षक ना होने से बैरंग वापस लौटते हैं या फिर रास्तों में छुपमछुपाई का खेल खेलकर अपने भविष्य को अंधेरे में धकेलने को मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के नाम पर प्रतापनगर ब्लॉक में दो महाविद्यालय खोले गये, एक लंबगांव के कोने में तो एक अगरोड़ा में, दोनों कालेज ऐसी जगह बनाये गये जहां जाने में छात्रों को भारी परेशानी उठानी पड़ती है। लंबगांव में खोले गये कालेज में विज्ञान संकाय की मांग थी लेकिन जालिम नेताओं और अफसरांे ने इसकी स्वीकृत आज तक नहीं दी, लिहाजा विज्ञान विषय से पढ़ाई करने वाले छात्रों को महंगा किराया देकर या तो नई टिहरी में या फिर देहरादून और ऋषिकेश पढ़ाई करनी पड़ रही है।  यही हाल अस्पतालों का है, एक भी डाक्टर आस्पतालों में नहीं है। प्रतापनगर और लंबगंाव में कहने को तो अस्पताल है, लेकिन इनकी हालत बदतर है। यहां तक पहुंचते ही मरीज दम तोड़ देता है। क्षेत्र में एक सौ आठ आपातकालीन सेवा तो हैं लेकिन महज दिखावे की, वो इसलिए कि एक सौ आठ की एम्बुलेंस प्रतापनगर खड़ी रहती है, और अगर भदूरा पट्टी के गांव में कोई घटना घट जाती है तो एम्बुलेंस को वहां पहुचने के लिए तकरीबन तीन घंटे लग जाता है। ऐसे में इस सेवा का यहां के लोगों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं है।
शायद देश में इतनी महंगी राशन कहीं नहीं मिलती है, जितनी कि प्रतापनगर में, इसकी वहज भी टिहरी झील से उपजी समस्या है। राशन से भरे वाहन घनसाली या फिर उत्तरकाशी से प्रतापनगर जाते हैं। जिससे गाड़ी का भाडा़ इतना बढ़ जाता है कि दुकानदारों को मजबूर होकर महंगी राशन बेचनी पड़ती है। प्रतापनगर में चावल और दालों के भाव आसामन छू रहे हैं। और पिछले एक दशक से प्रतापनगर की जनता इस महंगाई से त्रस्त है, आलम ये है कि ऋषिकेश में दस रूपये किलो टमाटर प्रतापनगर में पचास रूपये से नीचे नहीं मिलता। लेकिन किसी भी सरकार ने यहां की जनता की पीड़ा को नहीं समझा। यही हाल पेयजल का है, प्रतापनगर में पानी की भारी किल्लत है, स्थिति ये है कि यहां घोड़ो और खच्चरों पर पानी की ढुलाई की जाती है, जबकि प्रतापनगर और लंबगांव के लिए थलवाल गाड़ (सिलगाड़) से टैंकर से पानी की सप्लाई की जाती है, जिससे स्थानीय काश्तकारों को भारी समस्या उठानी पड़ती है, क्योकि गाड़ का सारा पानी टैकरों से सप्लाई किये जाने से सेरों के खेत पानी के बिना सूख जाते हैं, जिससे धान की फसल को भारी नुकसान पहुंचता है, जिस वहज से यहां नौबत मारपीट तक आ जाती है। कई बार स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी किया लेकिन प्रशासन की ओर से कुछ भी नहीं किया गया। हालांकि सरकार की ओर से पंपिंग योजना शुरू करने की घोषणा तो की गई थी लेकिन ये योजना कब  धरातल की बजाय रसातल में समा गई। 
हाल के दिनों में आयी आपदा का कहर प्रतापनगर पर भी टूटा। प्रतापनगर जाने के लिए दो झूला पुल है, एक पीपलडाली और दूसरा स्यांसू पुल। लेकिन सूबे में भारी बरसात और टिहरी झील में बढ़ते पानी के जल स्तर से इन दो पुलों से जुडे मार्ग भूस्खलन की जद में आये। जिस वजह से लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ी। आलम ये था कि सुबह चार बजे घर से निकले लोग ऋषिकेश रात आठ बजे पहुंच रहे थे। क्षेत्र की ऐसी स्थिति में प्रदेश की सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिध देहरादून में दुबके थे। लेकिन क्षेत्र के हालात को लेकर प्रतापनगर के विधायक तक ने मुंह नहीं खोला। सड़कें दरक रही थी, जनता के माथे पर परेशानी का पसीना चूं रहा था और जनप्रतिनिधि प्रसन्न मुद्रा में देहरादून की सड़कों पर चौपहिया वाहन का सुख भोग रहे थे। हालांकि कुछ लोगों का कहना ये भी कहना है कि क्षेत्र के विधायक बड़े विजनरी व्यक्तित्व वाले हैं, लेकिन ऐसे विजन का क्या करना जिसका उपयोग वो क्षेत्र के विकास के लिए नहीं कर पा रहे हैं। प्रतापनगर को अगर मौजूदा समय में अगर किसी चीज की आवश्यकता है तो वो हैं क्षेत्र के लिए एक अदद पुल। हालांकि प्रतापनगर के लिए चांठी-डोबरा के पास एक पुल प्रस्तावित भी है, लेकिन ये पुल पिछले एक दशक से निर्माण की अंधेर गुफा में कहीं खो गया है। लिहाजा इस पुल के लिए रामायण के नल-नील की सख्त आवश्यकता है। ताकि जल्द पुल का निर्माण हो सके और गंगा के उस पार की जनता को थोड़ा सुकून मिल सके। 

खैर जो भी हो टिहरी लोकसभा उपचुनाव का बिगुल बज चुका है। और आगामी 10 अक्टूबर को क्षेत्र की जनता एक बार फिर दिल्ली के गोल पर्वत के लिए अपना प्रतिनिधि चुनेगी। इस बार प्रतापनगर की जनता दिल्ली के दुर्ग में किसे भेजने में अपनी दिलचस्पी दिखायेगी ये कहना अभी मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि इस बार गंगा पार के इलाके का झुकाव राजपरिवार की तरफ ज्यादा है। इसका का भी वाजिब कारण है। क्योंकि स्वर्गीय महाराजा मानवंेद्र शाह ने कभी भी प्रतापनगर की उपेक्षा नहीं की। महाराजा के स्वर्गसिधर जाने के बाद इस क्षेत्र की सुध किसी ने भी नहीं ली। टिहरी की जमीन से प्रदेश की सियासत करने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री ने भी प्रतापनगर को हमेशा पहाड़ी टीला समझा, और हमेशा प्रतापनगर की उपेक्षा की, जब सांसद थे तब भी और प्रदेश के मुखिया भी होने के बाद भी प्रतापनगर की कोई खबर नहीं ली। टिहरी लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में भाजपा ने राजपरिवार पर अपना भरोसा जताकर टिहरी महारानी को मैदान में उतारा है। उधर कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे को टिकट थमा दिया है। दोनों दलों के प्रत्याशी क्षेत्र की जनता के लिए किसी अजनबी की तरह है। एक दफा भाजपा प्रत्याशी राजघराने की होने के नाते लोगों उनके प्रति भावनात्मक लगाव है लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी यहां की जनता के लिए अजनबी ही है। ऐसे में क्या टिहरी लोकसभा उपचुनाव में प्रतापनगर की जनता बहुगुणा परिवार के सदस्य को विजय बनाने में भागीदारी निभायेगी। इस का जबाव तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चल पायेगा। लेकिन इतना तो तय है कि झील पार का क्षेत्र अपनी परेशानियों का हिसाब चुनाव में जरूर चुकता करेगा, और ये हिसाब कांग्रेस की जीत में अवरोधक का काम करेगा। 

लोकसभा चुनाव भी होंगे, विधानसभ चुनाव भी होंगे, लेकिन क्या कभी इस बांध प्रभावित क्षेत्र को फिर से गोविंद सिंह नेगी जैसा तेज-तर्रार नेता मिलेगा। जो जनता की समस्याओं को संसद और विधानसभा के अंदर उठा सके। उम्मीद है कि एक दिन जरूर आयेगा जब प्रतापनगर को भी दूसरा गोविंद सिंह नेगी मिलेगा और तब खामोशी की चादर ओढ़े हुए प्रतापनगर, अपने हक के लिए आवाज बुलंद कर रहा होगा।  


Wednesday, September 19, 2012

कांग्रेस का दामन थामेंगे कंडारी!



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Tuesday, September 18, 2012

खबरदार..! सितारगंज नहीं है टिहरी




समीकरण गड़बड़ा सकते हैं घनसाली व प्रतापनगर के मतदाता


टिहरी इन दिनों खबरों की सुर्खियों में है। अखबारों, टीवी चैनलों और राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों में टिहरी की चर्चाएं छिड़ी हुई है। इन चर्चाओं में टिहरी के इतिहास को याद किया जा रहा है, राजा के जमाने की किस्से और कहानियां भी सुनने को मिल रही है। टिहरी से राजपाट और पच्चीस साल की गोर्ख्याण की यादें भी ताजा हो उठी है। गढ़वाल साम्राज्य का दो भागों में बंटना और फिर बाद में टिहरी रियासत का भारत में विलय भी चर्चा का हिस्सा है। टिहरी लोक सभा सीट पर टिहरी राजपरिवार का वर्चस्व, खात्मे और खत्म हुए वर्चस्व को दोबारा हासिल होने के सपनों का भी जिक्र इन दिनों चाय के ढ़ाबों से लेकर गांव की मुंडेरों और देहरादून के अविकसित शहरी इलाकों से लेकर सत्ता के गलियारों हो रहा है।
असल टिहरी भले ही पानी की झील की अतल गहराई में शांत और खामोश इन सब बातों से अनविज्ञ हो, लेकिन टिहरी लोकसभा उपचुनाव के बहाने उसे सहानुभूति से याद किया जा रहा है, राजा के बसाये जाने से लेकर, विकास के नाम पर उसे डुबोये जाने तक। टीवी चैनलों, अखबरों, राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और नेताओं के बयानों में टिहरी की विकास की बातें किसी मिश्री की तरह लग रही है, जिसकी मिठास कल्पना से भी मीठी प्रतीत होती है, अगर सच में ऐसा होता तो शायद भारत में विलय होने वाली टिहरी रियासत के लोग खुशनसीब होते, खास कर झील पार की आबादी।
टिहरी का अचानक चर्चाओं में आने का श्रेय मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को जाता है। जिनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने भूली-बिसरी टिहरी को खबरों में ला खड़ा कर दिया है। सांसद बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली पड़ी इस सीट पर उपचुनाव होना तय हुआ है। यही वजह है कि अनजान सितारगंज की तरह टिहरी भी चर्चाओं का बाजार गरमाये हुए है। लेकिन सितारगंज और टिहरी में जमीन-आसमान की असमानताएं हैं। टिहरी हमेशा से ही विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाए हुए है और सितारगंज सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री की विधानसभा सीट के तौर पर जानी जाती है, या फिर बंगाली बाहुल्य इलाका। लेकिन टिहरी की धरती कई अनगिनत पहचानों से अटी पड़ी है, जिसका बाखान असंभव है, क्योंकि टिहरी अपने आप में ही एक मिसाल है।
ऐसे में इस लोकसभा उपचुनाव में भी टिहरी को सितारगंज समझना नादानी होगा। क्योंकि सत्तासीन कांग्रेस  टिहरी को भी सितारगंज समझ बैठी है। कांग्रेस के मठाधीशों का एक मत है कि टिहरी में भी सितारगंज की सफलता को दोहराया जायेगा। अति आत्मविश्वास में पगलाये कांग्रेसियों को इतना जानना जरूरी होगा कि वो टिहरी की सांभ्रांत जनता से किस आधार पर वोट मांगेगी। यहां तो किसी को भूमिधरी का अधिकार नहीं चाहिए। जिस प्रत्याशी के लिए टिहरी के मतदाता से वोट की अपील की जा रही है उस प्रत्याशी का नाम यहां की जनता ने अखबारों के काले आखरों और टीवी पर बकबक करते एंकर के मुंह से सुना। ना कांग्रेस का प्रत्याशी यहां की परिस्थिति, बोली-भाषा और रीति रिवाज को जानता है और ना समझता है, यही हाल भाजपा प्रत्याशी का भी है। भाजपा भले ही राजपरिवार के बहाने जीत का स्वाद चखने को आतुर हो, लेकिन उसके उम्मीदवार का भी टिहरी संसदीय सीट पर अपना कोई वजूद नहीं है। महाराजा मानमेंद्र शाह की ईमानदारी और बोलांदा बद्रीश का भावनात्मक झुकाव भले ही भाजपा की ओर हो लेकिन जीत टिहरी महारानी की होगी ऐसा कहना भी अभी जल्दबाजी होगा।
टिहरी संसदीय सीट के राजनीतिक रूख की अगर बात करें तो प्रदेश के राजनेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं के जुबां पर टिहरी की विकास की बातें सुनने को मिल रही है। हर पार्टी के नेता टिहरी में हुए विकास को अपनी उपलब्धि बता रहे हैं, लेकिन बांध प्रभावित प्रतापनगर, घनसाली विधानसभा की जनता की समस्याओं के निदान के लिए किसी भी नेता के पास कोई योजना नहीं है। विस्थापित लोगों की समस्याएं, पुनर्वास में हुए घोटाले और ना जाने कितने ही मुद्दों पर हर पार्टी के नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। कोई भी नेता दावे के साथ ये कहने को तैयार नहीं है कि टिहरी डूब जाने के बाद से एक अदद पुल का इंतजार कर रही प्रतापनगर की जनता को कब पुल का सुख मिलेगा। जबकि सभी पार्टियों के नेताओं को पता है कि प्रतापनगर के लिए पुल का बनना कितना जरूरी है। अगर आंकड़ों की बात की जाय तो अकेले घनसाली और प्रतापनगर विधानसभा के मतदाता हार और जीत की बाजी पटलने का मद्दा रखते हैं। यही भूल सत्तासीन कांग्रेस करने जा रही है और भाजपा इसका फायदा उठाने में लगी है। नतीजा ये है कि दोनों विधानसभा में कांग्रेस विरोधी लहर निकल पड़ी है।
खैर कांग्रेस और भाजपा अब सीधे तौर पर मैदान में उतर चुकी है। दोनों की दलों के बीच चुनावी टक्कर देखने को मिल रहा है। भाजपा प्रत्याशी टिहरी महारानी माला राजलक्ष्मी शाह पर ना सिर्फ टिहरी लोकसभा सीट जीत कर कमल खिलाने की जिम्मेदारी है बल्कि दोबारा इस संसदीय सीट पर राजपरिवार का वर्चस्व कायम की भी चुनौती है। तो वहीं कांग्रेस प्रत्याशी साकेत बहुगुणा को विजय बनाने में खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। हालांकि मुख्यमंत्री टिहरी लोकसभा सीट को जीतने का दावा कर रहे हैं, लेकिन तमाम झंझावतों, विरोधों के बाद भी क्या बहुगुणा परिवार अपने नए ढौर को बचाने में कामयाब हो पायेंगे या फिर राजपरिवार की बहू अपने किले में राजनीतिक सेंधमारी को इस बार उखाड़ फेंकेगी। खैर लोकतंत्र के इस चुनावी घाट पर फैसला जनता को करना है, लिहाजा टिहरी को सितारगंज समझना हवा का रूख मोड़ सकती है।

Thursday, September 13, 2012

चिकित्सा षिक्षा मंत्री हरक सिंह रावत के नाम रैबार


स्यमान्या दिदा, हरकू,
देहरादून मा राजी-खुषी होलू, अर राजी-खुषी भी रह्यू चैंदूू, बल राजधानी का ठाठ त निराळा होन्दा न, दिदा जमानू ह्वैगी थै, आज आखर लेखण कू मन करी, मैली त्वै तैं
 याद करूला, दिदा भारी बिपदा आयीं, कैमा अपड़ी छृई लगौंण त कोई सुणद्वि नी च, हर कोई हसण बैठुदू, बल अपड़ी छोटी-बड़ी त अपडू मा लगौंदा न। बल दिदा त्वै दगड़ी त सभी मोबैल पर छुईं लगौंदा ना पर क्या कन मैं तैंत ये खेलुंडा देखी भारी डार कर लगदी। पर दिदा आज भिंडी दिन बिटी कलम उठाई, खदरा पंडी थै पणी। मसन भी खूब काळी ह्वैगी थै। छिंतड़न फ्वांजी-फांजी साफ करी लेखण बैठ्यूं। दिदा अचकालू बसख्याळ मैना लग्यां, द्यौरू खूब गिगडांण लग्यूं। रगड़ा-भगड़ी भी खूब होंणी, दिदा जीतम उठदू, जब कुरेडू गौं-गळा तैं घेरदू। हे दिदा सुणी कि त्वैन बल अचकालू इलाहबाद का छ्वरा की खूब रेड मारी, अर सरकार की गेर पकड़िक अपडू हक मांगी। दिदा तब जैक बल त्वै तैं डोखरा-पोंगड़ा, फौजी भाई की देख-रेख और डॉक्टर बनौण वाळी जिम्मेदारी दिनी। सुण दिदा तू खूब लड़ाक भी बल, क्या कन यखमा तेरी भी गलती नी चा, लड़ण और मर ता हमार खून मा चा। अला बल त्वैन दमयंती कु परमोष करिक भी दम लिनी बल, ठीक बात चा, पर दिदा पर जै लेक मैन त्वै कैं रैबार लेखण बैठी, उत मैंन लेखी नी चा। दिदा क्या लाण त्वै मा छुईं, अब नौ-न्याळ भी ज्वान ह्वैगी। पढ़ाई-लिखै कि 24 घंटा धत रंदी लगायीं। हर वक्त बोलण लग्या रंदा कि पिता हमुन भी इंजीन्यर अर डाक्टर बणेण, मैत इंजीन्यर अर डाक्टर न त बोलण औंदू अर ना ल्यखण, तनु तू दिदा समझीगी होलू, त्वै त बल पता होलू, तू त मंत्री ल बल। मैत घर्या आदमी, डोखरा-पुंगड़ा का बारा मा ही जाणदू। क्या कन दिदा ये पहाड़ त क्वै डाक्टर नी चा, हमु स्वचण लग्यां कि हमारा ही छोरा पढ़ी-लेखी कर पहाड़ की सेवा करला। पर दिदा मैन सुणी कि हमारा छोरा तै त देहरादून मा कोई पुछदू नी च, तख त बल पैंसू की छूईं लगौंदा। हमारा छोरू की क्वै कद्र नी कररू, यनु नी की हमारा छोरू तै पडुणू नी औंदू, पर दिदा हमुम मा हर्या-हर्या नोट नी चा। दिदा हमारा नौना मेहनत करी देहदूण गै पर दिदा तख बल सबसी पहली छुईं पैसूं की लगाई, डेढ़ लाख रूप्या मांगी बल नर्सिंग का कोर्स का दिदा नरसिंह खलू तौं तै जौन हमारा छोरू कू भविश्य बर्बाद करी। दिदा क्या लाण छूई म्यरू घर आई त बुकरा-बुकरी रोई, बोली पिता हमुन यनी रण ये पहाड़, पहाड़ की भलु कर वाळू कोई नी च। सब बैरा का लोग औणा अर वौ तै जमीन भी द्यणा अर स्कूल मा दाखिलू भी। क्या कन दिदा अब तू ही बतौ, हमरी बात कोई नी चा सुणण क तैयार, त्वै पर आस छ। दिदा यनु ना ह्वाव कि तू भी हमारी ओर पीठ फेरू। तनु त्वैन धारी की लाज नी रखी, फिर भी देख्याल पहाड़ की पिड़ा अगर त्वै तैं भी त हमारा नौ-न्याळ की ख्याल रखी। लाज रखी विपदा का मर्यां अपड़ा भै-बंदू कू। खैर दिदा रूमकी बक्त ह्वैगी। अंध्यारू भी ह्वैगी नजर नी पड़णी मेरा रैबार तैं ठंग सी पड़ी अर विचार करी।
तिथि- 01 सितंबर 2012

तेरू भुला
विपदा
हाल निवास- ठेठ पहाड

Tuesday, September 4, 2012

मस्त है मुखिया, मजे में मंत्री, अड़ियल अफसर और जोकर जनता




जोकर जनता सो रखी थी, लंबी और गहरी निंद्रा में, ये नींद जाड़ों के दिनों से पसरी हुई थी, कुछ खुशी के मारे, कुछ अकुलाहट के कारण भी, जोकर जनता जो ठहरी, ठिठुरन भरे दिनों झक काले और मैल से सने बदबूदार कपड़े पहन कर वोट देने गयी थी, इस खुशी में भी सो रखी थी, कि देहरादून के सफेद पर्वत में अब उसकी पूछ होगी। लेकिन दिल्ली दुर्ग में बैठी गोरी मेम ने पहाड़ क
ी जोकर जनता को बेबकूफ बना डाला, मेम ने इटालियन सॉफ्टवेयर वाले दिमाग से शतरंजी चाल चली और इलाहबादी छोरे को पहाड़ का ठेकेदार बना दिया। इस देशी मेम के आगे हरकू-हर्षू ने खूब हल्ला मचाया, खूब डुकरताल मारी, पर मेम तो ठहरी मेम, उसे कोई फर्क नहीं पड़ा, पर अपने हरकू-हर्षू की खूब सेम-सेम हुई। इलाहबादी छोरे भी तुरत-फुरत में दून पहुंचा, और ठेकेदारी की शपथ ली, उत्तराखंड में लखनवी अंदाज में ठेकेदारी शुरू होने लगी। छोटे मोटे ठेकेदारों की पौ-बारह हो गई। सफारी शूट पहने या कभी कभी खद्दर की सदरी पहने इलाहबादी छोरे ने राजधानी में पहाड़ी सुर में राग गाना शुरू किया। इलाहबादी छोरे के बेसुरे राग से जोकर जनता जागी, तो वो अतप्रभ रह गयी। बोला, ये पहाड़ी नहीं बल्कि कोई पहाड़ी भेष में कोई छलिया है। अब जोकर जनता कुछ-कुछ समझने लगी, कि उसे ठगा गया। इलाहबादी छोरा तो कभी दून में तो कभी दिल्ली में मदमस्त है। उसके चाण-बाण और मुंसी देश-विदेश की सैर कर ठाठ-बाट कर रहे हैं। प्रदेश में अफसरों का रवैया अड़ियल किस्म का है। जनता को जोकर समझते हैं, उनकी कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं, आलम ये है कि जो अधिकारी रिश्वत और कमिश्न जितना ज्यादा ले रहा है उसकी पूछ सरकार और शासन में ज्यादा है। लूट और झूट का खेल जमकर खेला जा रहा है। जोकर जनता खामोश है, उसके सामने उसके सपनों की हत्या हो रही है। जोकर जनता की छटपटाहट बता रही है कि उसके अंदर गुस्सा उबल रहा है, लेकिन करे क्या जनता तो जोकर ठहरी, उसे मुखिया, मंत्री, अफसर बांधना जानते हैं, काबू में रखना जानते हैं, उसके हितों की बात कर उसके उबाल को ठंडा करना जानते हैं। उनकी भिंची हुई मुठ्ठी को खोलना जानते हैं, लेकिन जब जोकर जनता विकास का सवाल पूछती है तो उसे बेबकूफ बनाया जाता है योजनाओं के नाम पर परियोजनाओं के नाम पर, राहत पैकेजों के नाम पर और ना जाने किसी-किसी प्रकार से उसे प्रलोभन दिये जाते हैं और जोकर जनता खुश होकर विकास की हरियाल का सपना बुनने बैठ जाती है और सपनांे में खो जाती है। उसकी ये तंद्रा कब टूटेगी....उसे भी नहीं पता।